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Bhagwad Gita Swami Ramsukhdas Ji BG 1.2⮫

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 1

भगवद् गीता अध्याय 1 श्लोक 1

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
 

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 1.1)

।।1.1।।धृतराष्ट्र बोले (टिप्पणी प0 1.2) हे सञ्जय (टिप्पणी प0 1.3) धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें युद्धकी इच्छासे इकट्ठे हुए मेरेे और पाण्डु के पुत्रोंने भी क्या किया  

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 1  भगवद् गीता अध्याय 1 श्लोक 1

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

1।।व्याख्या धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे कुरुक्षेत्रमें देवताओंने यज्ञ किया था। राजा कुरुने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होनेसे तथा राजा कुरुकी तपस्याभूमि होनेसे इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है। यहाँ धर्मक्षेत्रे और कुरुक्षेत्रे पदोंमें क्षेत्र शब्द देनेमें धृतराष्ट्रका अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियोंकी भूमि है। यह केवल लड़ाईकी भूमि ही नहीं है प्रत्युत तीर्थभूमि भी है जिसमें प्राणी जीतेजी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरहका लाभ हो जाय ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषोंकी सम्मति लेकर ही युद्धके लिये यह भूमि चुनी गयी है।संसारमें प्रायः तीन बातोंको लेकर लड़ाई होती है भूमि धन और स्त्री। इस तीनोंमें भी राजाओंका आपसमें लड़ना मुख्यतः जमीनको लेकर होता है। यहाँ कुरुक्षेत्रे पद देनेका तात्पर्य भी जमीनको लेकर ल़ड़नेमें है। कुरुवंशमें धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होनेसे दोनोंका कुरुक्षेत्रमें अर्थात् राजा कुरुकी जमीनपर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवों द्वारा पाण्डवोंको उनकी जमीन न देनेके कारण) दोनों जमीनके लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।यद्यपि अपनी भूमि होनेके कारण दोनोंके लिये कुरुक्षेत्रे पद देना युक्तिसंगत न्यायसंगत है तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है तो वह धर्मको सामने रखकर ही होता है। युद्धजैसा कार्य भी धर्मभूमि तीर्थभूमिमें ही करते हैं जिससे युद्धमें मरनेवालोंका उद्धार हो जाय कल्याण हो जाय। अतः यहाँ कुरुक्षेत्रके साथ धर्मक्षेत्रे पद आया है। यहाँ आरम्भ में धर्म पदसे एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भके धर्म पदमेंसे धर् लिया जाय और अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकके मम पदोंसे म लिया जाय तो धर्म शब्द बन जाता है। अतः सम्पूर्ण गीता धर्मके अन्तर्गत है अर्थात् धर्मका पालन करनेसे गीताके सिद्धान्तोंका पालन हो जाता है और गीताके सिद्धान्तोंके अनुसार कर्तव्यकर्म करनेसे धर्मका अनुष्ठान हो जाता है।इन धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे पदोंसे सभी मनुष्योंको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्मको सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सबके हितकी दृष्टिसे ही करना चाहिये केवल अपने सुखआरामकी दृष्टिसे नहीं और कर्तव्यअकर्तव्यके विषयमें शास्त्रको सामने रखना चाहिये (गीता 16। 24)। समवेता युयुत्सवः राजाओंके द्वारा बारबार सन्धिका प्रस्ताव रखनेपर भी दुर्योधनने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं भगवान् श्रीकृष्णके कहनेपर भी मेरे पुत्र दुर्योधनने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्धके मैं तीखी सूईकी नोकजितनी जमीन भी पाण्डवोंको नहीं दूँगा। (टिप्पणी प0 2.1) तब मजबूर होकर पाण्डवोंने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र दोनों ही सेनाओंके सहित युद्धकी इच्छासे इकट्ठे हुए हैं।दोनों सेनाओंमें युद्धकी इच्छा रहनेपर भी दुर्योधनमें युद्धकी इच्छा विशेषरूपसे थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्यप्राप्तिका ही था। वह राज्यप्राप्ति धर्मसे हो चाहे अधर्मसे न्यायसे हो चाहे अन्यायसे विहित रीतिसे हो चाहे निषिद्ध रीतिसे किसी भी तरहसे हमें राज्य मिलना चाहिये ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेषरूपसे दुर्योधनका पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्धकी इच्छावाला था। पाण्डवोंमें धर्मकी मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवननिर्वाह कर लेंगे पर अपने धर्ममें बाधा नहीं आने देंगे धर्मके विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बातको लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु जिस माँकी आज्ञासे युधिष्ठिरने चारों भाइयोंसहित द्रौपदीसे विवाह किया था उस माँकी आज्ञा होनेके कारण ही महाराज युधिष्ठिरकी युद्धमें प्रवृत्ति हुई थी (टिप्पणी प0 2.2) अर्थात् केवल माँके आज्ञापालनरूप धर्मसे ही युधिष्ठिर युद्धकी इच्छावाले हुये हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्यको लेकर ही युयुत्सु थे पर पाण्डव धर्मको लेकर ही युयुत्सु बने थे। मामकाः पाण्डवाश्चैव पाण्डव धृतराष्ट्रको (अपने पिताके बड़े भाई होनेसे) पिताके समान समझते थे और उनकी आज्ञाका पालन करते थे। धृतराष्ट्रके द्वारा अनुचित आज्ञा देनेपर भी पाण्डव उचितअनुचितका विचार न करके उनकी आज्ञाका पालन करते थे। अतः यहाँ मामकाः पदके अन्तर्गत कौरव (टिप्पणी प0 3.1) और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी पाण्डवाः पद अलग देनेका तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रका अपने पुत्रोंमें तथा पाण्डुपुत्रोंमें समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था अपने पुत्रोंके प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदिको तो अपना मानते थे पर पाण्डवोंको अपना नहीं मानते थे। (टिप्पणी प0 3.2) इस कारण उन्होंने अपने पुत्रोंके लिये मामकाः और पाण्डुपुत्रोंके लिये पाण्डवा पदका प्रयोग किया है क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं वे ही प्रायः वाणीसे बाहर निकलते हैं। इस द्वैधीभावके कारण ही धृतराष्ट्रको अपने कुलके संहारका दुःख भोगना पड़ा। इससे मनुष्यमात्रको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरोंमें मुहल्लोंमें गाँवोंमें प्रान्तोंमें देशोंमें सम्प्रदायोंमें द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं ये दूसरे हैं ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभावसे आपसमें प्रेम स्नेह नहीं होता प्रत्युत कलह होती है।यहाँ पाण्डवाः पदके साथ एव पद देनेका तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं अतः उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था। परन्तु वे भी युद्धके लिये रणभूमिमें आ गये तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया मामकाः और पाण्डवाः (टिप्पणी प0 3.3) इनमेंसे पहले मामकाः पदका उत्तर सञ्जय आगेके (दूसरे) श्लोकसे तेरहवें श्लोकतक देंगे कि आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेना को देखकर द्रोणाचार्यके मनमें पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा करनेके लिये उनके पास जाकर पाण्डवोंके मुख्यमुख्य सेनापतियोंके नाम लिये। उसके बाद दुर्योधनने अपनी सेनाके मुख्यमुख्य योद्धाओंके नाम लेकर उनके रणकौशल आदिकी प्रशंसा की। दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये भीष्मजीने जोरसे शंख बजाया। उसको सुनकर कौरवसेनामें शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक पाण्डवाः पदका उत्तर देंगे कि रथमें बैठे हुए पाण्डवपक्षीय श्रीकृष्णने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन भीम युधिष्ठिर नकुल सहदेव आदिने अपनेअपने शंख बजाये जिससे दुर्योधनकी सेनाका हृदय दहल गया। उसके बाद भी सञ्जय पाण्डवोंकी बात कहतेकहते बीसवें श्लोकसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादका प्रसङ्ग आरम्भ कर देंगे। किमकुर्वत किम् शब्दके तीन अर्थ होते हैं विकल्प निन्दा (आक्षेप) और प्रश्न।युद्ध हुआ कि नहीं इस तरहका विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता क्योंकि दस दिनतक युद्ध हो चुका है और भीष्मजीको रथसे गिरा देनेके बाद सञ्जय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्रको वहाँकी घटना सुना रहे हैं। मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने यह क्या किया जो कि युद्ध कर बैठे उनको युद्ध नहीं करना चाहिये था ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्रके भीतर भी आक्षेपपूर्वक पूछनेका भाव नहीं था।यहाँ किम् शब्दका अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है। धृतराष्ट्र सञ्जयसे भिन्नभिन्न प्रकारकी छोटीबड़ी सब घटनाओंको अनुक्रमसे विस्तारपूर्वक ठीकठीक जाननेके लिये ही प्रश्न कर रहे हैं।सम्बन्ध धृतराष्ट्रके प्रश्नका उत्तर सञ्जय आगेके श्लोकसे देना आरम्भ करते हैं।