तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।1.12।।
।।1.12।।दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए कुरुवृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्मने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।
।।1.12।।उस समय कौरवों में वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में गरज कर शंखध्वनि की।
।।1.12।। व्याख्या तस्य संजनयन् हर्षम् यद्यपि दुर्योधनके हृदयमें हर्ष होना शंखध्वनिका कार्य है और शंखध्वनि कारण है इसलिये यहाँ शंखध्वनिका वर्णन पहले और हर्ष होनेका वर्णन पीछे होना चाहिये अर्थात् यहाँ शंख बजाते हुए दुर्योधनको हर्षित किया ऐसा कहा जाना चाहिये। परन्तु यहाँ ऐसा न कहकर यही कहा है कि दुर्योधनको हर्षित करते हुये भीष्मजीने शंख बजाया। कारण कि ऐसा कहकर सञ्जय यह भाव प्रकट कर रहे हैं कि पितामह भीष्मकी शंखवादन क्रियामात्रसे दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न हो ही जायगा। भीष्मजीके इस प्रभावको द्योतन करनेके लिये ही सञ्जय आगे प्रतापवान् विशेषण देते हैं। कुरुवृद्धः यद्यपि कुरुवंशियोंमें आयुकी दृष्टिसे भीष्मजीसे भी अधिक वृद्ध बाह्लीक थे (जो कि भीष्मजीके पिता शान्तनुके छोटे भाई थे) तथापि कुरुवंशियोंमें जितने बड़ेबूढ़े थे उन सबमें भीष्मजी धर्म और ईश्वरको विशेषतासे जाननेवाले थे। अतः ज्ञानवृद्ध होनेके कारण सञ्जय भीष्मजीके लिये कुरुवृद्धः विशेषण देते हैं। प्रतापवान् भीष्मजीके त्यागका बड़ा प्रभाव था। वे कनककामिनीके त्यागी थे अर्थात् उन्होंने राज्य भी स्वीकार नहीं किया और विवाह भी नहीं किया। भीष्मजी अस्त्रशस्त्रको चलानेमें बड़े निपुण थे और शास्त्रके भी बड़े जानकार थे। उनके इन दोनों गुणोंका भी लोगोंपर बड़ा प्रभाव था।जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्यके लिये काशिराजकी कन्याओंको स्वयंवरसे हरकर ला रहे थे तब वहाँ स्वयंवरके लिये इकट्ठे हुए सब क्षत्रिय उनपर टूट पड़े। परन्तु अकेले भीष्मजीने उन सबको हरा दिया। जिनसे भीष्म अस्त्रशस्त्रकी विद्या पढ़े थे उन गुरु परशुरामजीके सामने भी उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं की। इस प्रकार शस्त्रके विषयमें उनका क्षत्रियोंपर बड़ा प्रभाव था।जब भीष्म शरशय्यापर सोये थे तब भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराजसे कहा कि आपको धर्मके विषयमें कोई शंका हो तो भीष्मजीसे पूछ लें क्योंकि शास्त्रज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है अर्थात् भीष्मजी इस लोकसे जा रहे हैं (टिप्पणी प0 11) । इस प्रकार शास्त्रके विषयमें उनका दूसरोंपर बड़ा प्रभाव था। पितामहः इस पदका आशय यह मालूम देता है कि दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे कही गयी बातोंका द्रोणाचार्यने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने यही समझा कि दुर्योधन चालाकीसे मेरेको ठगना चाहता है इसलिये वे चुप ही रहे। परन्तु पितामह (दादा) होनेके नाते भीष्मजीको दुर्योधनकी चालाकीमें उसका बचपना दीखता है। अतः पितामह भीष्म द्रोणाचार्यके समान चुप न रहकर वात्सल्यभावके कारण दुर्योधनको हर्षित करते हुए शंख बजाते हैं। सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ जैसे सिंहके गर्जना करनेपर हाथी आदि बड़ेबड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं ऐसे ही गर्जना करनेमात्रसे सभी भयभीत हो जायँ और दुर्योधन प्रसन्न हो जाय इसी भावसे भीष्मजीने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया। सम्बन्ध पितामह भीष्मके द्वारा शंख बजानेका परिणाम क्या हुआ इसको सञ्जय आगेके श्लोकमें कहते हैं।
।।1.12।। दुर्योधन की मूर्खतापूर्ण वाचालता के कारण उसकी सेना के योद्धाओं की स्थिति बड़ी विचित्र सी हो रही थी। उन पर भी उदासी का प्रभाव प्रकट होने लगा जिसे भीष्म वहीं निकट खड़े देख रहे थे। भीष्म पितामह ने कर्मशील द्रोणाचार्य के मौन में छिपे क्रोध को समझ लिया। उन्होंने यह जाना कि इन सबको इस मनस्थिति से बाहर निकालने की आवश्यकता है अन्यथा स्थिति को इसी प्रकार छोड़ देने पर आसन्न युद्ध के समय योद्धागण प्रभावहीन हो जायेंगे। योद्धाओं के इस मनोभाव को समझते हुये सेनापति भीष्म पितामह ने दुर्योधन के साथ सभी सैनिकों के मन में हर्ष और विश्वास की तरंगें उत्पन्न करने के लिये पूरी शक्ति से शंखनाद किया।यद्यपि भीष्माचार्य का यह शंखनाद दुर्योधन के प्रति करुणा से प्रेरित था तथापि उसका अर्थ युद्धारम्भ की घोषणा करने वाला सिद्ध हुआ जैसे कि आधुनिक युद्धों में पहली गोली चलाकर युद्ध प्ररम्भ होता है। शंख के इस सिंहनाद के साथ महाभारत के युद्ध का प्रारम्भ हुआ और इतिहास की दृष्टि से कौरव ही आक्रमणकारी सिद्ध होते हैं।
1.12 The valiant grandfather, the eldest of the Kurus, loudly sounding a lion-roar, blew the conch to raise his (Duryodhanas) spirits.
1.12. His glorious grandsire (Bhishma), the oldest of the Kauravas, in order to cheer Duryodhana, now roared like a lion, and blew his conch.
1.12. Generating joy in him, the powerful paternal grandfather (Bhisma), the seniormost among the Kurus, roared highly a lion-roar and blew his conchshell.
1.12 तस्य his (Duryodhanas)? संजयन् causing? हर्षम् joy? कुरुवृद्धः oldest of the Kurus? पितामहः grandfather? सिंहनादम् lions roar? विनद्य having sounded? उच्चैः loudly? शङ्खम् conch? दध्मौ blew? प्रतापवान् the glorious.No Commentary.
1.12 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhimas forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhanas) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, Our cause is almost lost now itself. So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.
Bhisma, the elder of the Kurus, joyful on hearing respect given to him, and to produce joy in Duryodhana by driving away his fears, roaring like lion, blew his conch shell. The phrase simha-nadam vinadya uses the same root nod twice. The literal meaning is roaring the roar of a lion. The intended meaning is “roaring like a lion,” according to the sutra upamane karmani. (Panini 3.4.45)
Bhishmadeva hearing such words of high esteem, roared like a lion and to gladden the heart of Duryodhana blew a thunderous blast from his conch shell.
Madhvacarya has no commentary so we present Baladeva Vidyabhusanas. Bhishma become elated hearing the praises given him by Duryodhana. Thus to eliminate the fear he knew Duryodhana was concealing in his heart he roared like a lion, simha-nadam means roaring like a lion and then blew a thunderous blast on his conchshell. By only sounding a blast on his conch shell without speaking Bhishma signified that true to ksatriya or warrior code of warfare he would fight until death.
There is no commentary for this verse.
So Duryodhana full of internal anxiety deceptively addressed the preceptor Dronacarya attempting to conceal his fear at the might of the Pandava army. Drona understanding the offensive innuendo by the words inner significance ignored Duryodhana being dissatisfied by the subtle sarcasm concealed within the words. At this time the valiant grandsire Bhishma perceiving Duryodhanas inner despondency, roared like a lion and blew a thunderous blast on his conch shell just to increase Duryodhanas joy.
Tasya sanjanayan harsham kuruvriddhah pitaamahah; Simhanaadam vinadyocchaih shankham dadhmau prataapavaan.
tasya—his; sañjanayan—causing; harṣham—joy; kuru-vṛiddhaḥ—the grand old man of the Kuru dynasty (Bheeshma); pitāmahaḥ—grandfather; sinha-nādam—lion’s roar; vinadya—sounding; uchchaiḥ—very loudly; śhaṅkham—conch shell; dadhmau—blew; pratāpa-vān—the glorious