भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
।।1.24 1.25।।सञ्जय बोले हे भरतवंशी राजन् निद्राविजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके मध्यभागमें पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस तरह कहा कि हे पार्थ इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख।
।।1.25।।भीष्म द्रोण तथा पृथ्वी के समस्त शासकों के समक्ष उन्होंने कहा हे पार्थ यहाँ एकत्र हुये कौरवों को देखो।
1.25।। व्याख्या गुडाकेशेन गुडाकेश शब्दके दो अर्थ होते हैं (1) गुडा नाम मुड़े हुएका है और केश नाम बालोंका है। जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं उसका नाम गुडाकेश है। (2) गुडाका नाम निद्राका है और ईश नाम स्वामीका है। जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है उसका नाम गुडाकेश है। अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था अतः उनको गुडाकेश कहा गया है। एवमुक्तः जो निद्राआलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषयभोगोंका दास नहीं होता केवल भगवान्का ही दास (भक्त) होता है उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं केवल सुनते ही नहीं उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया। हृषीकेशः इन्द्रियोंका नाम हृषीक है। जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोकमें और यहाँ हृषीकेश कहनेका तात्पर्य है कि जो मन बुद्धि इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं सबको आज्ञा देनेवाले हैं वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी वहाँ भगवान्ने अर्जुनके श्रेष्ठ रथको खड़ा कर दिया। भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् उस रथको भी भगवान्ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरवसेनाके मुख्यमुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें। उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति कुरु पदमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र ये दोनों आ जाते हैं क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं इस पक्षके हों चाहे उस पक्षके हों भले हों चाहे बुरे हों सदाचारी हों चाहे दुराचारी हों पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके इसी भावसे भगवान्ने यहाँ पश्यैतान् समवेतान् कुरुन् कहा है। नहीं तो भगवान् पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति ऐसा भी कर सकते थे परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको कुरुन् पश्य कहकर जाग्रत् कर रहे हैं जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे।अर्जुनने कहा था कि इनको मैं देख लूँ निरीक्षे (1। 22) अवेक्षे (1। 23) अतः यहाँ भगवान्को पश्य (तू देख ले) ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी। भगवान्को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान्ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही कुरुन् पश्य (इन कुरुवंशियोंको देख) ऐसा कहा है।कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम इन दोनोंमें बहुत अन्तर है। कुटुम्बमें ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्बके अवगुणोंकी तरफ खयाल जाता ही नहीं किन्तु ये मेरे हैं ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान्का भक्तमें विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्तके अवगुणोंकी तरफ भगवान्का खयाल जाता ही नहीं किन्तु यह मेरा ही है ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें क्रिया तथा पदार्थ(शरीरादि) की और भगवत्प्रेममें भावकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें मूढ़ता(मोह) की और भगवत्प्रेममें आत्मीयताकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें अँधेरा और भगवत्प्रेममें प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेममें तल्लीनताके कारण कर्तव्यपालनमें विस्मृति तो हो सकती है पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेहमें कुटुम्बियोंकी और भगवत्प्रेममें भगवान्की प्रधानता होती है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कुरूवंशियोंको देखनेके लिये कहा। उसके बाद क्या हुया इसका वर्णन सञ्जय आगेके श्लोकोंमें करते हैं।
।।1.25।। भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को भीष्म और द्रोण दोनों के सम्मुख एक स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। एक कर्तव्यनिष्ठ सारथि के समान वे अर्जुन से कहते हैं हे पार्थ यहाँ एकत्र हुए इन कौरवों को देखो। सम्पूर्ण प्रथम अध्याय में केवल ये ही शब्द हैं जिन्हें भगवान ने कहा है। उन शब्दों ने उस चिनगारी का काम किया जिसने अर्जुन के अहंकार पर आधारित झूठे मूल्यों एवं धारणाओं के महल को जलाकर राख कर दिया। इसके पश्चात् हम देखेंगे कि इन शब्दों की अर्जुन पर क्या प्रतिक्रिया हुई और किस प्रकार उसका मन टूटकर बिखर गया।पार्थ का अर्थ है पृथापुत्र अर्जुन। पृथा कुन्ती का दूसरा नाम है। इस संस्कृत शब्द पार्थ में पार्थिव की गन्ध मिलती है जिसका अर्थ हैमृत्तिका निर्मित। यह सम्बोधन अत्यन्त अर्थपूर्ण है। इसका तात्पर्य यह है कि गीता सत्य का संदेश है जिसे अमृत स्वरूप भगवान् ने मनुष्य के सार्वकालिक प्रतिनिधि र्मत्य पुरुष अर्जुन को सुनाया है।
1.24 1.25 Sanjay said O scion of the line of Bharata (Dhrtararastra), Hrsikesa, being told so by Gudakesa (Arjuna), placed the excellent chariot between the two armies, in front of Bhisma and Drona as also all the rulers of the earth, and said, O Partha (Arjuna), see these assempled people of the Kuru dynasty.
1.25. In front of Bhishma and Drona, and all the rulers of the earth, said: O Arjuna (son of Pritha), behold these Kurus gathered together.
1.25. There in both the armies, the son of Prtha observed his fathers, and paternal grandfathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, sons sons and comrades, fathers-in-law, and also friends.
1.25 भीष्मद्रोणप्रमुखतः in front of Bhishma and Drona? सर्वेषाम् of all? च and? महीक्षिताम् rulers of the earth? उवाच said? पार्थ O Partha? पश्य behold? एतान् these? समवेतान् gathered? कुरून् Kurus? इति thus.No Commentary.
1.25 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
The Lord, Hrsikesa, though himself the controller of everyone’s senses, was thus ordered by Arjuna, controlled just by his words. See how the Lord is controlled by prema! This is the implication of calling the Lord Hrsikesa. Here is the significance of the word Gudakesa. Akesa means Visnu (a), Brahma (ka) and Siva (Isa). Gudakesa means he who gives them (akesa) the experience of the sweetness of the Lord’s affection just as sugar (guda) gives the experience of sweetness. Therefore, Gudakesa refers to he who, by bringing Krishna under his control, gave Visnu, Brahma, and Siva the opportunity to experience of Krishna’s sweetness. Where the Supreme Lord Krishna, the crown jewel, source of all avataras, being controlled by prema, followed the orders of his servant, Arjuna, how could Visnu, Brahma and Siva, his mere expansions as guna avataras, show off any of their powers? Instead, by manifesting affectionate feelings for the Lord themselves (inspired by Arjuna), they felt successful. The lord of the spiritual sky (Mahavisnu) said: dvijatmamaja me yuvayor didrksuna I brought the brahmana’s sons here because I wanted to see the two of you. SB 10.89.58 Gudakesa can also mean the lord (isa) of sleep (gudaka), the controller of the senses. Even Krishna, who is the direct controller of maya, became controlled by Arjuna’s prema. Thus despicable maya or sleep was conquered by Arjuna. He spoke in front of Bhisma, Drona and all the kings. Though the word pramukhatah is compounded only with Bhisma and Drona, it refers to everyone. Thus the meaning is “putting his chariot in front of Bhisma, Drona and all the other kings.”
The Supreme Lord Krishna placed that most excellent of chariots in front of the Kaurava commanders Bhishma and Drona saying: See the assembled Kurus.
Madhvacarya has no commentary so we present Baladeva Vidyabhusanas. Placing the chariot in front of Bhishma and Drona between the two opposing armies Lord Krishna said: O Partha observe all these Kauravas and see those who are favoring them. The use of the word Partha emphasizes that as Arjuna is the son of Kunti who is the sister of Vasudev who assumed the role of being Lord Krishnas father; then He will as family engage Himself by accepting the position of Arjunas chariot driver. The use of the word Hrsikesa signifies that Arjuna will lose his desire to fight so what is the purpose of viewing the enemy army on the battlefield and within Lord Krishnas words an innuendo of taunting was hidden. Bhagavad-Gita Chapter 1, verse 26 Madhvacarya has no commentary so we present Baladeva Vidyabhusanas. Thus having been addressed by Lord Krishna in this way, Arjuna viewed the enemy soldiers among paternal uncles like Bhurisrava, and godfathers like Bhishma and Somadatta, and acaryas like Drona and Kripa, and maternal uncles like Salya, Sakuni and others, and brothers like Duryodhana, and sons like Laksmana the son of Duryodhana, etc, and grandsons like the sons of Laksmana, etc. friends like Asvattama and well wishers like Kritavarma, Bhagadatta and others and also the soldiers fighting on his own side. In this way Lord Krishna placed that most magnificent of chariots between the two armies in such a way as to give a view of both the armies on the battlefield.
After attentively surveying the army of the Kauravas arranged in battle formation, Arjuna the son of Pandu on whose flag bears the image of Hanuman, who set the kingdom of Lanka ablaze, requested Lord Krishna to place their chariot between the two opposing armies. Requested whom? Arjuna requested no lesser peronality than the Supreme Lord Himself, the treasurehouse of such attributes as wisdom, strength, sovereignity, eternality, omnipotence and splendour. Whom by His will created the complete cosmic manifestation in its triple aspect of inception, preservation and dissolution for His own pleasure as in sport. The Supreme Lord Krishna, Hrsikesa, the master of the senses. The Supreme Controller, internally and externally of all living entities evolving and evolved. Who although the Supreme Lord of all, yet descended down to Earth out of His causeless mercy for the redemption of the faithful and even more, He condescended to be Arjunas chariot driver, carrying out his wish to station their chariot in such a commanding position as to be able to readily view the belligerent Kauravas and put within the range of his vision such heroes as Bhishmadeva, Dronacarya and Kripa and the Kings of royal dynasties. At that time the Supreme Lord Krishna said to Arjuna: see what chances there are for the Kauravas victory over thee.
After attentively surveying the army of the Kauravas arranged in battle formation, Arjuna the son of Pandu on whose flag bears the image of Hanuman, who set the kingdom of Lanka ablaze, requested Lord Krishna to place their chariot between the two opposing armies. Requested whom? Arjuna requested no lesser peronality than the Supreme Lord Himself, the treasurehouse of such attributes as wisdom, strength, sovereignity, eternality, omnipotence and splendour. Whom by His will created the complete cosmic manifestation in its triple aspect of inception, preservation and dissolution for His own pleasure as in sport. The Supreme Lord Krishna, Hrsikesa, the master of the senses. The Supreme Controller, internally and externally of all living entities evolving and evolved. Who although the Supreme Lord of all, yet descended down to Earth out of His causeless mercy for the redemption of the faithful and even more, He condescended to be Arjunas chariot driver, carrying out his wish to station their chariot in such a commanding position as to be able to readily view the belligerent Kauravas and put within the range of his vision such heroes as Bhishmadeva, Dronacarya and Kripa and the Kings of royal dynasties. At that time the Supreme Lord Krishna said to Arjuna: see what chances there are for the Kauravas victory over thee.
Bheeshmadronapramukhatah sarveshaam cha maheekshitaam; Uvaacha paartha pashyaitaan samavetaan kuroon iti.
bhīṣhma—Grandsire Bheeshma; droṇa—Dronacharya; pramukhataḥ—in the presence; sarveṣhām—all; cha—and; mahī-kṣhitām—other kings; uvācha—said; pārtha—Arjun, the son of Pritha; paśhya—behold; etān—these; samavetān—gathered; kurūn—descendants of Kuru; iti—thus