निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।1.31।।
।।1.31।।हे केशव मैं लक्षणों शकुनोंको भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्धमें स्वजनोंको मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ।
।।1.31।। व्याख्या निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव हे केशव मैं शकुनोंको (टिप्पणी प0 22.2) भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्यके आरम्भमें मनमें जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है वह उत्साह उस कार्यको उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है। परन्तु अगर कार्यके आरम्भमें ही उत्साह भङ्ग हो जाता है मनमें संकल्पविकल्प ठीक नहीं होते तो उस कार्यका परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भावसे अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीरमें अवयवोंका शिथिल होना कम्प होना मुखका सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं (टिप्पणी प0 22.3) इसके सिवाय आकाशसे उल्कापात होना असमयमें ग्रहण लगना भूकम्प होना पशुपक्षियोंका भयंकर बोली बोलना चन्द्रमाके काले चिह्नका मिटसा जाना बादलोंसे रक्तकी वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभीके और पहलेके इन दोनों शकुनोंकी ओर देखता हूँ तो मेरेको ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्टके सूचक दीखते हैं। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे युद्धमें अपने कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें कोई लाभ होगा ऐसी बात भी नहीं है। इस युद्धके परिणाममें हमारे लिये लोक और परलोक दोनों ही हितकारक नहीं दीखते। कारण कि जो अपने कुलका नाश करता है वह अत्यन्त पापी होता है। अतः कुलका नाश करनेसे हमें पाप ही लगेगा जिससे नरकोंकी प्राप्ति होगी।इस श्लोकमें निमित्तानि पश्यामि और श्रेयः अनुपश्यामि (टिप्पणी प0 23) इन दोनों वाक्योंसे अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शुकुनोंको देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ दोनों ही रीतिसे युद्धका आरम्भ और उसका परिणाम हमारे लिये और संसारमात्रके लिये हितकारक नहीं दीखता। सम्बन्ध जिसमें न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दीखता है ऐसी अनिष्टकारक विजयको प्राप्त करनेकी अनिच्छा अर्जुन आगेके श्लोकमें प्रकट करते हैं।