Download Bhagwad Gita 1.36 Download BG 1.36 as Image

⮪ BG 1.35 Bhagwad Gita BG 1.37⮫

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 36

भगवद् गीता अध्याय 1 श्लोक 36

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।1.36।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 1.36)

।।1.36।।हे जनार्दन इन धृतराष्ट्रसम्बन्धियोंको मारकर हमलोगोंको क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियोंको मारनेसे तो हमें पाप ही लगेगा।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।1.36।।हे जनार्दन धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या करके हमें क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।1.36।। व्याख्या   निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः ৷৷. हत्वैतानाततायिनः   धृतराष्ट्रके पुत्र  और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं उनको मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे ऐसा पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बारबार खटकेगा। चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा।आततायी छः प्रकारके होते हैं आग लगानेवाला विष देनेवाला हाथमें शस्त्र लेकर मारनेको तैयार हुआ धनको हरनेवाला जमीन (राज्य) छीननेवाला और स्त्रीका हरण करनेवाला  (टिप्पणी प0 25) । दुर्योधन आदिमें ये छहों ही लक्षण घटते थे। उन्होंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था। भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक दिया था। हाथमें शस्त्र लेकर वे पाण्डवोंको मारनेके लिये तैयार थे ही। द्यूतक्रीड़ामें छलकपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था। द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधनने मैंने तेरेको जीत लिया है तू मेरी दासी हो गयी है आदि शब्दोंसे बड़ा अपमान किया था और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था।शास्त्रोंके वचनोंके अनुसार आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता  नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन  (मनुस्मृति 8। 351)। परन्तु आततायीको मारना उचित होते हुए भी मारनेकी क्रिया अच्छी नहीं है। शास्त्र भी कहता है कि मनुष्यको कभी किसीकी हिंसा नहीं करनी चाहिये  न हिंस्यात्सर्वा भूतानि  हिंसा न करना परमधर्म है  अहिंसा परमो धर्मः (टिप्पणी प0 26) । अतः क्रोधलोभके वशीभूत होकर कुटुम्बियोंकी हिंसाका कार्य हम क्यों करेंआततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारनेके लायक हैं ही परन्तु अपने कुटुम्बी होनेसे इनको मारनेसे हमें पाप ही लगेगा क्योंकि शास्त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुलका नाश करता है वह अत्यन्त पापी होता है  स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम्।  अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं उन्हें कैसे मारा जाय उनसे अपना सम्बन्धविच्छेद कर लेना उनसे अलग हो जाना तो ठीक है पर उन्हें मारना ठीक नहीं है। जैसे अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है सम्बन्ध   पूर्वश्लोकमें युद्धका दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।1.36।। अर्जुन के इतना कुछ कहने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण मूर्तिवत् मौन ही रहते हैं। इसलिये वह पहले की भाषा छोड़कर मृदुभाव से किसी मन्द बुद्धि मित्र को कोई बात समझाने की शैली में भावुक तर्क देने लगता है। भगवान् के निरन्तर मौन धारण किये रहने से अर्जुन की यह परिवर्तित नीति अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होती है।इस श्लोक में प्रथम वह कहता है कि दुर्योधनादि को मारने से किसी प्रकार का कल्याण होने वाला नहीं है। इस पर भी काष्ठवत् मौन खड़े श्रीकृष्ण को देखकर उसको इस मौन भाव का कारण समझ में नहीं आता। शीघ्र ही उसे स्मरण हो आता है कि कौरव परिवार आततायी है और धर्मशास्त्र के नियमानुसार आततायी को तत्काल मार डालना चाहिये चाहे वह शिक्षक वृद्ध पुरुष या वेदज्ञ ब्राह्मण ही क्यों न हो। आततायी को मारने में किसी प्रकार का पाप नहीं है। अन्यायपूर्वक किसी पर आक्रमण करने वाला पुरुष आततायी कहलाता है।अपने शुद्ध दिव्य स्वरूप के विपरीत हम जो गलत काम करते हैं वे पाप कहलाते हैं। शरीर मन और बुद्धि को ही अपना स्वरूप समझकर कोई कर्म करना श्रेष्ठ मनुष्य का लक्षण नहीं है। अहंकारपूर्वक स्वार्थ के लिये किये गये कर्म हमारे और शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा के बीच वासना की सुदृढ़ दीवार खड़ी कर देते हैं। इन्हें ही पाप कहा जाता है।शत्रुओं की हत्या करने में अर्जुन का अविवेकपूर्ण विरोध शास्त्र को न समझने का परिणाम है और फिर अपनी समझ के अनुसार कर्म करना अपनी संस्कृति को ही नष्ट करना है।इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के तर्कों की न स्तुति करते हैं और न ही आलोचना। वे जानते हैं कि अर्जुन को अपने मन की बात कह लेने देनी चाहिए। किसी मानसिक रोगी के लिए यह उत्तम निदान है। इस प्रकार उसका चित्त शांत हो जाता है।

English Translation - Swami Gambirananda

1.36 O Janardana, what happiness shall we derive by killing the sons of Dhrtarastra? Sin alone will accrue to us by killing these felons.

English Translation - Swami Sivananda

1.36. By killing these sons of Dhritarashtra, what pleasure can be ours, O Janardana? Only sin will accrue to us from killing these felons.

English Translation - Dr. S. Sankaranarayan

1.36. Nothing but sin would slay these desperadoes and take hold of us. Therefore we should not slay Dhrtarastras sons, our own relatives.

English Commentary - Swami Sivananda

1.36 निहत्य having slain? धार्तराष्ट्रान् sons of Dhritarashtra? नः to us? का what? प्रीतिः pleasure? स्यात् may be? जनार्दन O Janardana? पापम् sin? एव only? आश्रयेत् would take hold? अस्मान् to us? हत्वा having killed? एतान् these? आततायिनः felons.Commentary Janardana means one who is worshipped by all for prosperity and salvation -- Krishna.He who sets fire to the house of another? who gives poision? who runs with sword to kill? who has plundered wealth and lands? and who has taken hold of the wife of somody else is an atatayi. Duryodhana had done all these evil actions.

English Translation of Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya's

1.36 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

English Translation of Commentary - Dr. S. Sankaranarayan

1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage How by slaying my own kinsmen etc. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary

1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, I will not fight. He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.

Commentary - Chakravarthi Ji

Rudra Vaishnava Sampradaya - Commentary

Rudra Vaisnava Sampradaya:VisnuswamiThere is no commentary for this verse.

Brahma Vaishnava Sampradaya - Commentary

Madhvacarya has no commentary so we present Baladeva Vidyabhusanas. If it is put forth that in killing aggressors there is sin that argument can be nullified because in the Vasistha Samhita III.XI beginning: agnido garadas caiva sastra-panir it is stated that the following six types of aggressors can be slain. 1) one who administers poison 2) one who commits arson 3) one who attacks with deadly weapons 4) one who steals ones wealth 5) one who usurps anothers property 6) and one who kidnaps anothers wife All these aggressors can immediately be slain without any sinful reaction incurred and this confirmed in Manu Samhita VIII.CCCL beginning atatayinam ayantam hanyad meaning: Without hesitation such aggressors may be slain as there is no sin in killing them. It is factual that every one of these six aggressions has been previously perpetrated by Duryodhana and his brothers, so all of them certainly should be slain. To answer this Arjuna replies that it would be sinful to kill friends, relatives and superiors. His reasoning is because the killing of aggressors is found in the moral codes of Niti sastra whereas in Dharma sastra it is stated that one should not cause harm to any living creature. Since Dharma sastra is superior to Niti sastra the killing of revered elders such as Drona, Bhishma and others can only be the cause of sin. Without the elders and the relatives the enjoyment of sovereignty will not be palatable rather will only result in remorse. By Arjuna addressing Lord Krishna as Madhava the controller of all wealth and opulence, Arjunas intention is to ask why the Lord of Sri the goddess of fortune would encourage him to fight a battle that will be full of gore and death, devoid of all wealth and opulence.

Shri Vaishnava Sampradaya - Commentary

There is no commentary for this verse.

Kumara Vaishnava Sampradaya - Commentary

It could possibly be accepted what Arjuna has stated regarding others on the battlefield; but for the wicked sons of Dhritarastra led by Duryodhana who have tried to harm the Pandavas in various ways should be slain immediately. In Vedic scriptures six aggressors may be rightfully slain at anytime. One who administers poison, one who commits arson, one who attacks with deadly weapons, one who steals wealth, one who usurps property and one who kidnaps a wife. The sons of Dhritarastra have committed these heinous acts of aggression against the Pandavas. The word atatayinah meaning aggressors can also be applied as criminals and such criminals committing any of the six aggressions can be rightfully slain. So the sons of Dhritarastra should be slain without any hesitation or compunction; but in rebuttal Arjuna is saying that sin would be accrued and hell would be the punishment as a result of slaying ones relatives. Their is no reward in this world or the next for such an action; therefore it would be improper to execute this. The word hi means certainly and this augments this assertion. By addressing Lord Krishna with the vocative Madhava meaning the husband of the goddess of fortune indicates that as the husband He is the progenitor of the family not the destroyer of the family and that Arjuna should also not act contrarily to this. by Kesava Kasmiri. Bhagavad-Gita

Transliteration Bhagavad Gita 1.36

Nihatya dhaartaraashtraan nah kaa preetih syaaj janaardana; Paapam evaashrayed asmaan hatwaitaan aatataayinah.

Word Meanings Bhagavad Gita 1.36

nihatya—by killing; dhārtarāṣhṭrān—the sons of Dhritarashtra; naḥ—our; kā—what; prītiḥ—pleasure; syāt—will there be; janārdana—he who looks after the public, Shree Krishna; pāpam—vices; eva—certainly; āśhrayet—must come upon; asmān—us; hatvā—by killing; etān—all these; ātatāyinaḥ—aggressors; tasmāt—hence; na—never; arhāḥ—behoove; vayam—we; hantum—to kill; dhārtarāṣhṭrān—the sons of Dhritarashtra; sva-bāndhavān—along with friends; sva-janam—kinsmen; hi—certainly; katham—how; hatvā—by killing; sukhinaḥ—happy; syāma—will we become; mādhava—Shree Krishna, the husband of Yogmaya