यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
।।1.38 1.39।।यद्यपि लोभके कारण जिनका विवेकविचार लुप्त हो गया है? ऐसे ये दुर्योधन आदि कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको और मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले पापको नहीं देखते? तो भी हे जनार्दन कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको ठीकठीक जाननेवाले हमलोग इस पापसे निवृत्त होनेका विचार क्यों न करें
।।1.38।।यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुये ये लोग कुलनाशकृत दोष और मित्र द्रोह में पाप नहीं देखते हैं।
।।1.38।। व्याख्या यद्यप्येते न पश्यन्ति ৷৷. मित्रद्रोहे च पातकम् इतना मिल गया इतना और मिल जाय फिर ऐसा मिलता ही रहे ऐसे धन जमीन मकान आदर प्रशंसा पद अधिकार आदिकी तरफ बढ़ती हुई वृत्तिका नाम लोभ है। इस लोभवृत्तिके कारण इन दुर्योधनादिकी विवेकशक्ति लुप्त हो गयी है जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्यके लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं कुटुम्बियोंका नाश करने जा रहे हैं वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी और राज्यके रहते हुए हमारे शरीर चले जायेंगे तो क्या दशा होगी क्योंकि मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता जितना वियोगमें दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें लोभ छा जानेके कारण इनको राज्यहीराज्य दीख रहा है। कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर पाप होगा वह इनको दीख ही नहीं रहा है।जहाँ लड़ाई होती है वहाँ समय सम्पत्ति शक्तिका नाश हो जाता है। तरहतरह की चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रोंमें भी आपसमें खटपट मच जाती है मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरहका मतभेद हो जाता है। मतभेद होनेसे वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण दोनों बचपनके मित्र थे। परन्तु राज्य मिलनेसे द्रुपदने एक दिन द्रोणका अपमान करके उस मित्रताको ठुकरा दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्यके बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमानका बदला लेनेके लिये द्रोणाचार्यने मेरेद्वारा राजा द्रुपदको परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया। इसपर द्रुपदने द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये एक यज्ञ कराया जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी दोनों पैदा हुए। इस तरह मित्रोंके साथ वैरभाव होनेसे कितना भयंकर पाप होगा इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं विशेष बात अभी हमारे पास जिन वस्तुओंका अभाव है उन वस्तुओंके बिना भी हमारा काम चल रहा है हम अच्छी तरहसे जी रहे हैं। परन्तु जब वे वस्तुएं हमें मिलनेके बाद फिर बिछुड़ जाती हैं तब उनके अभावका बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओंका जो निरन्तर अभाव था वह इतना दुःखदायी नहीं था जितना वस्तुओंका संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होनेपर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओंका अभाव मानता है उन वस्तुओंको वह लोभके कारण पानेकी चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओंका अभी अभाव है बीचमें प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होनेपर भी अन्तमें उनकी अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही जो कि वस्तुओंके मिलनेसे पहले थी। बीचमें लोभके कारण उन वस्तुओंको पानेके लिये केवल परिश्रमहीपरिश्रम पल्ले पड़ा दुःखहीदुःख भोगना पड़ा। बीचमें वस्तुओंके संयोगसे जो थोड़ासा सुख हुआ है वह तो केवल लोभके कारण ही हुआ है। अगर भीतरमें लोभरूपी दोष न हो तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो तो कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो तो संग्रहका सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसारका सुख किसीनकिसी दोषसे ही होता है। कोई भी दोष न होनेपर संसारसे सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभके कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेकविचारको लुप्त कर देता है। कथं न ज्ञेयमस्माभिः ৷৷৷৷ प्रपश्यद्भिर्जनार्दन अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थपरम्पराको देखना ही चाहिये जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे़ क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह(वैर द्वैष) से होनेवाली पापको भी अच्छी तरहसे जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह वैरभाव होगा तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्मजन्मान्तरतक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा जिससे हमारा पतनहीपतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये।यहाँ अर्जुनकी दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभकी तरफ तो जा रही है पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह(मोह) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरोंका दोष देखना यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं) इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है। सम्बन्ध कुलका क्षय करनेसे होनेवाले जिन दोषोंको हम जानते हैं वे दोष कौनसे हैं उन दोषोंकी परम्परा आगेके पाँच श्लोकोंमें बताते हैं।
।।1.38।। No commentary.