यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।
।।1.46।।अगर ये हाथोंमें शस्त्रअस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग युद्धभूमिमें सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मेरेको मार भी दें? तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा।
।।1.46।।यदि मुझ शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले को ये शस्त्रधारी कौरव रण में मारें तो भी वह मेरे लिये कल्याणकारक होगा।
1.46।। व्याख्या यदि माम् ৷৷. क्षेमतरं भवेत् अर्जुन करते हैं कि अगर मैं युद्धसे सर्वथा निवृत्त हो जाऊँगा तो शायद ये दुर्योधन आदि भी युद्धसे निवृत्त हो जायँगे। कारण कि हम कुछ चाहेंगे ही नहीं लड़ेंगे भी नहीं तो फिर ये लोग युद्ध करेंगे ही क्यों परन्तु कदाचित जोशमें भरे हुए तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए ये धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग सदाके लिये हमारे रास्तेका काँटा निकल जाय वैरी समाप्त जो जाय ऐसा विचार करके सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मेरेको मार भी दें तो उनका वह मारना मेरे लिये हितकारक ही होगा। कारण कि मैंने युद्धमें गुरुजनोंको मारकर बड़ा भारी पाप करनेका जो निश्चय किया था उस निश्चयरूप पापका प्रायश्चित्त हो जायेगा उस पापसे मैं शुद्ध हो जाऊँगा। तात्पर्य है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो मैं भी पापसे बचूँगा और मेरे कुलका भी नाश नहीं होगा।जो मनुष्य अपने लिये जिस किसी विषयका वर्णन करता है उस विषयका उसके स्वयंपर असर पड़ता है। अर्जुनने भी जब शोकाविष्ट होकर अट्ठाईसवें श्लोकसे बोलना आरम्भ किया तब वे उतने शोकाविष्ट नहीं थे जितने वे अब शोकाविष्ट हैं। पहले अर्जुन युद्धसे उपरत नहीं हुए पर शोकविष्ट होकर बोलतेबोलते अन्तमें वे युद्धसे उपरत हो जाते हैं और बाणसहित धनुषका त्याग करके बैठ जाते हैं। भगवान्ने यह सोचा कि अर्जुनके बोलनेका वेग निकल जाय तो मैं बोलूँ अर्थात् बोलनेसे अर्जुनका शोक बाहर आ जाय भीतरमें कोई शोक बाकी न रहे तभी मेरे वचनोंका उसपर असर होगा। अतः भगवान् बीचमें कुछ नहीं बोले। विशेष बात अबतक अर्जुनने अपनेको धर्मात्मा मानकर युद्धसे निवृत्त होनेमें जितनी दलीलें युक्तियाँ दी हैं संसारमें रचेपचे लोग अर्जुनकी उन दलीलोंको ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान् अर्जुनको जो बातें समझायेंगे उनको ठीक नहीं समझेंगे इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थितिमें हैं उस स्थितिकी उस श्रेणीकी बातको ही वे ठीक समझते हैं उससे ऊँची श्रेणीकी बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुनके भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोहसे आविष्ट होकर ही वे धर्मकी साधुताकी बड़ी अच्छीअच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगोंके भीतर कौटुम्बिक मोह है उन लोगोंको ही अर्जुनकी बातें ठीक लगेंगी। परन्तु भगवान्की दृष्टि जीवके कल्याणकी तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो भगवान्की इस ऊँची श्रेणीकी दृष्टिको वे (लौकिक दृष्टिवाले) लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान्की बातोंको ठीक नहीं मानेंगे प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुनके लिये युद्धरूपी पापसे बचना बहुत ठीक था पर भगवान्ने उनको युद्धमें लगाकर ठीक नहीं किया। वास्तवमें भगवान्ने अर्जुनसे युद्ध नहीं कराया है प्रत्युत उनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुनको कर्तव्यरूपसे स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्धका विचार तो अर्जुनका खुदका ही था वे स्वयं ही युद्धमें प्रवृत्त हुए थे तभी वे भगवान्को निमन्त्रण देकर लाये थे। परन्तु उस विचारको अपनी बुद्धिसे अनिष्टकारक समझकर वे युद्धसे विमुख हो रहे थे अर्थात् अपने कर्तव्यके पालनसे हट रहे थे। इसपर भगवान्ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता यह तेरा मोह है। अतः समयपर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है उसका त्याग करना उचित नहीं है।कोई बद्रीनारायण जा रहा था परन्तु रास्तेमें उसे दिशाभ्रम हो गया अर्थात् उसने दक्षिणको उत्तर और उत्तरको दक्षिण समझ लिया। अतः वह बद्रीनारायणकी तरफ न चलकर उलटा चलने लग गया। सामनेसे उसको एक आदमी मिल गया। उस आदमीने पूछा कि भाई कहाँ जा रहे हो वह बोला बद्रीनारायण। वह आदमी बोला कि भाई बद्रीनारायण इधर नहीं है उधर है। आप तो उलटे जा रहे हैं अतः वह आदमी उसको बद्रीनारायण भेजनेवाला नहीं है किन्तु उसको दिशाका ज्ञान कराकर ठीक रास्ता बतानेवाला है। ऐसे ही भगवान्ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है युद्ध नहीं कराया है।स्वजनोंको देखनेसे अर्जुनके मनमें यह बात आयी थी कि मैं युद्ध नहीं करूँगा न योत्स्ये (2। 9) पर भगवान्का उपदेश सुननेपर अर्जुनने ऐसा नहीं कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा किन्तु ऐसा कहा कि मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा करिष्ये वचनं तव (18। 73) अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करूँगा। अर्जुनके इन वचनोंसे यही सिद्ध होता है कि भगवान्ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है।वास्तवमें युद्ध होना अवश्यम्भावी था क्योंकि सबकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसको कोई भी टाल नहीं सकता था। स्वयं भगवान्ने विश्वरूपदर्शनके समय अर्जुनसे कहा है कि मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। अतः तेरे युद्ध किये बिना भी ये विपक्षमें खड़े योद्धालोग बचेंगे नहीं (11। 32)। इसलिये यह नरसंहार अवश्यम्भावी होनहार ही था। यह नरसंहार अर्जुन युद्ध न करते तो भी होता। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करते तो जिन्होंने माँकी आज्ञासे द्रौपदीके साथ अपने सहित पाँचों भाइयोंका विवाह करना स्वीकार कर लिया था वे युधिष्ठिर तो माँकी युद्ध करनेकी आज्ञासे युद्ध अवश्य करते ही। भीमसेन भी युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते क्योंकि उन्होंने कौरवोंको मारनेकी प्रतिज्ञा कर रखी थी। द्रौपदीने तो यहाँतक कह दिया था कि अगर मेरे पति (पाण्डव) कौरवोंसे युद्ध नहीं करेंगे तो मेरे पिता (द्रुपद) भाई (धृष्टद्युम्न) और मेरे पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु कौरवोंसे युद्ध करेंगे (टिप्पणी प0 33) । इस तरह ऐसे कई कारण थे जिससे युद्धको टालना सम्भव नहीं था।होनहारको रोकना मनुष्यके हाथकी बात नहीं है परन्तु अपने कर्तव्यका पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्यच्युत होकर अपना पतन कर सकता है। तात्पर्य है कि मनुष्य अपना इष्टअनिष्ट करनेमें स्वतन्त्र है। इसलिये भगवान्ने अर्जुनको कर्तव्यका ज्ञान कराकर मनुष्यमात्रको उपदेश दिया है कि उसे शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहना चाहिये उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिये। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें अर्जुनने अपनी दलीलोंका निर्णय सुना दिया। उसके बाद अर्जुनने क्या किया इसको सञ्जय आगे के श्लोकमें बताते हैं।
।।1.46।। यहाँ अर्जुन अपने अन्तिम निर्णय की घोषणा करता है। सब प्रकार से परिस्थिति पर विचार करने पर उसे यही उचित जान पड़ता है कि रणभूमि में वह किसी प्रकार का प्रतिकार न करे चाहें कौरव उसे शस्त्ररहित जानकर सैकड़ों बाणों से उसके सुन्दर शरीर को हरिण की तरह विद्ध कर दें।यहाँ अर्जुन द्वारा प्रयुक्त क्षेम शब्द विचारणीय है क्योंकि वह शब्द ही उसकी वास्तविक मनस्थिति का परिचायक है। क्षेम और मोक्ष शब्द के अर्थ क्रमश भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक उन्नति हैं। यद्यपि अर्जुन ने अब तक जो भी तर्क प्रस्तुत किये उनमें आध्यात्मिक संस्कृति के पतन के भय को बड़े परिश्रम से सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था परन्तु क्षेम शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि वह वास्तव में शारीरिक सुरक्षा चाहता था जो युद्ध पलायन में संभव थी।संक्षेप में हम कह सकते हैं कि युद्ध में विजयरूपी फल में अत्यन्त आसक्ति और उसकी चिन्ता के कारण अर्जुन आत्मशक्ति खोकर एक उन्माद के मानसिक रोगी के समान विचित्र व्यवहार करने लगता है।
1.46 If, in this battle, the sons of Dhrtarastra armed with weapons kill me who am non-resistant and unarmed, that will be more beneficial to me.
1.46. If the sons of Dhritarashtra with weapons in hand should slay me in battle, unresisting and unarmed, that would be better for me.
1.46. It would be more beneficial for me if Dhrtarastras men with weapons in their hands, should slay me, unresisting and unarmed.
1.46 यदि if? माम् me? अप्रतीकारम् unresisting? अशस्त्रम् unarmed? शस्त्रपाणयः with weapons in hand? धार्तराष्ट्राः the sons of Dhritarashtra? रणे in the battle हन्युः should slay? तत् that? मे of me? क्षेमतरम् better? भवेत् would be.No Commentary.
1.46 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, I will not fight. He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, I will not fight. He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur
Anticipating the question: What happened then? This verse explains that Arjuna whose mind was despondent, agitated by grief sat down on the chariot in view of all the troops.
Madhvacarya has no commentary so we present Baladeva Vidyabhusanas. Then what happened asked Dhritarastra? To this question of curosity Sanjaya spoke this verse beginning evam uktvarjunah. It was seen by all that throughout this discourse Arjuna had been standing with the objective still being to fight while merely viewing the opposing army; but suddenly he just sat down on the seat of his chariot in despair It has been perceived from the beginning of creation that the propensity to embark upon the path of atma tattva or self-realisation manifests only in those living beings who are righteous and have no predilection to cause injury to any living entity by thought, word or action. It has also been perceived that success derived from embarking upon this initiative never arises in those living entities who are bereft of these qualities.
Sanjaya frankly speaks to Dhritarastra at this time saying that Arjuna, who is the most noble minded, the most compassionate, the eternal well wisher and the most virtuous; although frequently fraught with difficulties along with his four brothers, instigated by thee and thy son, including horrid acts of treachery against them with intent to kill, such as attempting to burn them all alive in a specially made house of combustible lac, administering poison and other unworthy deeds as well. It is surely known to you that by Arjuna the destruction of all your clan is certain due to the fact that he has the support of the Parama Purusa, the Supreme Personality, Lord Krishna Himself, by his side. Still Arjuna looks upon you all with feelings of friendship and overcome by compassion and by the fear of performing actions which are opposed to righteousness, that tiger among men became introvert and said to Lord Krishna that under no circumstance would he fight. After saying so he became very dejected in mind and afflicted with grief at the thought of seperation from relatives and dropping his celestial bow reknowned as Gandiva he just sat down on the chariot.
Sanjaya frankly speaks to Dhritarastra at this time saying that Arjuna, who is the most noble minded, the most compassionate, the eternal well wisher and the most virtuous; although frequently fraught with difficulties along with his four brothers, instigated by thee and thy son, including horrid acts of treachery against them with intent to kill, such as attempting to burn them all alive in a specially made house of combustible lac, administering poison and other unworthy deeds as well. It is surely known to you that by Arjuna the destruction of all your clan is certain due to the fact that he has the support of the Parama Purusa, the Supreme Personality, Lord Krishna Himself, by his side. Still Arjuna looks upon you all with feelings of friendship and overcome by compassion and by the fear of performing actions which are opposed to righteousness, that tiger among men became introvert and said to Lord Krishna that under no circumstance would he fight. After saying so he became very dejected in mind and afflicted with grief at the thought of seperation from relatives and dropping his celestial bow reknowned as Gandiva he just sat down on the chariot.
Yadi maam aprateekaaram ashastram shastrapaanayah; Dhaartaraashtraa rane hanyus tanme kshemataram bhavet.
aho—alas; bata—how; mahat—great; pāpam—sins; kartum—to perform; vyavasitāḥ—have decided; vayam—we; yat—because; rājya-sukha-lobhena—driven by the desire for kingly pleasure; hantum—to kill; sva-janam—kinsmen; udyatāḥ—intending; yadi—if; mām—me; apratīkāram—unresisting; aśhastram—unarmed; śhastra-pāṇayaḥ—those with weapons in hand; dhārtarāṣhṭrāḥ—the sons of Dhritarashtra; raṇe—on the battlefield; hanyuḥ—shall kill; tat—that; me—to me; kṣhema-taram—better; bhavet—would be