अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।
।।1.7।।हे द्विजोत्तम हमारे पक्ष में भी जो विशिष्ट योद्धागण हैं उनको आप जान लीजिये आपकी जानकारी के लिये अपनी सेना के नायकों के नाम मैं आपको बताता हूँ।
।।1.7।। द्रोणाचार्य को द्विजोत्तम कहकर सम्बोधित करते हुये दुर्योधन अपनी सेना के प्रमुख वीर योद्धाओं के नाम सुनाता है। एक कायर मनुष्य अंधेरे में अनुभव होने वाले भय को दूर करने के लिये सीटी बजाता है अथवा कुछ गुनगुनाने लगता है। दुर्योधन की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की थी। अपराधबोध से पीड़ित अत्याचारी दुर्योधन की मनस्थिति बिखर रही थी। यद्यपि उसकी सेना सक्षम शूरवीरों से सुसज्जित थी तथापि शत्रुपक्ष के वीरों को देखकर उसे भय लग रहा था। अत द्रोणाचार्य के मुख से स्वयं को प्रोत्साहित करने वाले शब्दों को वह सुनना चाहता था। परन्तु जब वह आचार्य के पास पहुँचा तब वे शान्त और मौन रहे। इसलिये टूटत्ो उत्साह को फिर से जुटाने के लिये वह अपनी सेना के प्रमुख योद्धाओं के नाम गिनाने लगता है।यह स्वाभाविक है कि अपराधबोध के भार से दबा हुआ व्यक्ति नैतिक बल के अभाव में सम्भाषणादि की मर्यादा को भूलकर अत्यधिक बोलने लगता है। ऐसे मानसिक तनाव के समय व्यक्ति के वास्तविक संस्कार उजागर होते हैं। यहाँ दुर्योधन अपने गुरु को द्विजोत्तम कहकर सम्बोधित करता है। आन्तरिक ज्ञान के विकास के कारण ब्राह्मण को द्विज (दो बार जन्मा हुआ) कहा जाता है। माता के गर्भ से जन्म लेने पर मनुष्य संस्कारहीन होने के कारण पशुतुल्य ही होता है। संस्कार एवं अध्ययन के द्वारा वह एक शिक्षित व सुसंस्कृत पुरुष बनता है। यह उसका दूसरा जन्म माना जाता है। यह द्विज शब्द का अर्थ है। द्रोणाचार्य ब्राह्मण कुल में जन्में थे और स्वभावत उनमें हृदय की कोमलता आदि श्रेष्ठ गुण थे। पाण्डव सैन्य में उनके प्रिय शिष्य ही उपस्थित थे। यह सब जानकर चतुर किन्तु निर्लज्ज दुर्योधन को अपने गुरु की निष्पक्षता पर भी संदेह होने लगा था। जब हमारे उद्देश्य पापपूर्ण और कुटिलता से भरे होते हैं तब हम अपने समीपस्थ और अधीनस्थ लोगों में भी उन्हीं अवगुणों की कल्पना करने लगते हैं।