श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।
।।10.1।।श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो अर्जुन मेरे परम वचनको तुम फिर सुनो? जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामनासे कहूँगा क्योंकि तुम मेरेमें अत्यन्त प्रेम रखते हो।
।।10.1।। व्याख्या -- भूयः एव -- भगवान्की विभूतियोंको तत्त्वसे जाननेपर भगवान्में भक्ति होती है? प्रेम होता है। इसलिये कृपावश होकर भगवान्ने सातवें अध्यायमें (8वें श्लोकसे 12वें श्लोकतक) कारणरूपसे सत्रह विभूतियाँ और नवें अध्यायमें (16वें श्लोकसे 19वें श्लोकतक) कार्यकारणरूपसे सैंतीस विभूतियाँ बतायीं। अब यहाँ और भी विभूतियाँ बतानेके लिये (टिप्पणी प0 535.1) तथा (गीता 8। 14 एवं 9। 22? 34 में कही हुई) भक्तिका और भी विशेषतासे वर्णन करनेके लिये भगवान् भूयः एव कहते हैं।श्रृणु मे परमं वचः -- भगवान्के मनमें अपनी महिमाकी बात? अपने हृदयकी बात? अपने प्रभावकी बात कहनेकी विशेष आ रही है (टिप्पणी प0 535.2)। इसलिये वे अर्जुनसे कहते हैं कि तू फिर मेरे परम वचनको सुन।दूसरा भाव यह है कि भगवान् जहाँजहाँ अर्जुनको अपनी विशेष महत्ता? प्रभाव? ऐश्वर्य आदि बताते हैं अर्थात् अपनेआपको खोल करके बताते हैं? वहाँवहाँ वे परम वचन? रहस्य आदि शब्दोंका प्रयोग करते हैं जैसे -- चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें रहस्यं ह्येतदुत्तमम् पदोंसे बताते हैं कि जिसने सूर्यको उपदेश दिया था? वही मैं तेरे रथके घोड़े हाँकता हुआ तेरे सामने बैठा हूँ। अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें श्रृणु मे परमं वचः पदोंसे यह परम वचन कहते हैं कि तू सम्पूर्ण धर्मोंका निर्णय करनेकी झंझटको छोड़कर एक मेरी शरणमें आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा? चिन्ता मत कर (18। 66)। यहाँ श्रृणु मे परमं वचः पदोंसे भगवान्का आशय है कि प्राणियोंके अनेक प्रकारके भाव मेरेसे ही पैदा होते हैं और मेरेमें ही भक्तिभाव रखनेवाले सात महर्षि? चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सभी मेरे मनसे पैदा होते हैं। तात्पर्य यह है कि सबके मूलमें मैं ही हूँ। जैसे आगे तेरहवें अध्यायमें ज्ञानकी बात कहते हुए भी चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने फिर ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है? ऐसे ही सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञानविज्ञानकी बात कहते हुए भी दसवें अध्यायके आरम्भमें फिर उसी विषयको कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं। चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने,परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् कहा? और यहाँ (दसवें अध्यायके आरम्भमें) श्रृणु मे परमं वचः कहा इनका तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गमें समझकी? विवेकविचारकी मुख्यता रहती है अतः साधक वचनोंको सुन करके विचारपूर्वक तत्त्वको समझ लेता है। इसलिये वहाँ ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् कहा है। भक्तिमार्गमें श्रद्धाविश्वासकी मुख्यता रहती है अतः साधक वचनोंको सुन करके श्रद्धाविश्वासपूर्वक मान लेता है। इसलिये यहाँ परमं वचः कहा गया है।यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया -- सुननेवाला वक्तामें श्रद्धा और प्रेम रखनेवाला हो और वक्ताके भीतर सुननेवालेके प्रति कृपापूर्वक हितभावना हो तो वक्ताके वचन? उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोताके भीतर अटलरूपसे जम जाता है। इससे श्रोताकी भगवान्में स्वतः रुचि पैदा हो जाती है? भक्ति हो जाती है? प्रेम हो जाता है। यहाँ हितकाम्यया पदसे एक शङ्का हो सकती है कि भगवान्ने गीतामें जगहजगह कामनाका निषेध किया है? फिर वे स्वयं अपनेमें कामना क्यों रखते हैं इसका समाधान यह है कि वास्तवमें अपने लिये भोग? सुख? आराम आदि चाहना ही कामना है। दूसरोंके हितकी कामना कामना है ही नहीं। दूसरोंके हितकी कामना तो त्याग है और अपनी कामनाको मिटानेका मुख्य साधन है। इसलिये भगवान् सबको धारण करनेके लिये आदर्शरूपसे कह रहे हैं कि जैसे मैं हितकी कामनासे कहता हूँ? ऐसे ही मनुष्यमात्रको चाहिये कि वह प्राणिमात्रके हितकी कामनासे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटनेपर मेरी प्राप्ति सुगमतासे हो जायगी। प्राणिमात्रके हितकी कामना रखनेवालेको मेरे सगुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है -- ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः (गीता 12। 4)? और निर्गुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है -- लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ৷৷. सर्वभूतहिते रताः (गीता 5। 25)। सम्बन्ध -- परम वचनके विषयमें? जिसे मैं आगे कहूँगा? मेरे सिवाय पूरापूरा बतानेवाला अन्य कोई नहीं मिल सकता। इसका कारण क्या है इसे भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।