तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।।
।।10.10।।उन नित्यनिरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ? जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।
।।10.10।। उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को? मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।
।।10.10।। व्याख्या -- [भगवन्निष्ठ भक्त भगवान्को छोड़कर न तो समता चाहते हैं? न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं (टिप्पणी प0 546.3)। उनका तो एक ही काम है -- हरदम भगवान्में लगे रहना। भगवान्में लगे रहनेके सिवाय उनके लिये और कोई काम ही नहीं है। अब साराकासारा काम? सारी जिम्मेवारी भगवान्की ही है अर्थात् उन भक्तोंसे जो कुछ कराना है? उनको जो कुछ देना है आदि सब काम भगवान्का ही रह जाता है। इसलिये भगवान् यहाँ (दो श्लोकोंमें) उन भक्तोंको समता और तत्त्वज्ञान देनेकी बात कह रहे हैं।]तेषां सततयुक्तानाम् -- नवें श्लोकके अनुसार जो भगवान्में ही चित्त और प्राणवाले हैं? भगवान्के गुण? प्रभाव? लीला? रहस्य आदिको आपसमें एकदूसरेको जानते हुए तथा भगवान्के नाम? गुणोंका कथन करते हुए नित्यनिरन्तर भगवान्में ही सन्तुष्ट रहते हैं और भगवान्में ही प्रेम करते हैं? ऐसे नित्यनिरन्तर भगवान्में लगे हुए भक्तोंके लिये यहाँ सततयुक्तानाम् पद आया है।भजतां प्रीतिपूर्वकम् -- वे भक्त न ज्ञान चाहते हैं? न वैराग्य। जब वे पारमार्थिक ज्ञान? वैराग्य आदि भी नहीं चाहते? तो फिर सांसारिक भोग तथा अष्टसिद्धि और नवनिधि चाह ही कैसे सकते हैं उनकी दृष्टि इन वस्तुओंकी तरफ जाती ही नहीं। उनके हृदयमें सिद्धि आदिका कोई आदर नहीं होता? कोई मूल्य नहीं होता। वे तो केवल भगवान्को अपना मानते हुए प्रेमपूर्वक स्वाभाविक ही भगवान्के भजनमें लगे रहते हैं। उनका,किसी भी वस्तु? व्यक्ति आदिसे किसी तरहका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। उनका भजन? भक्ति यही है कि हरदम भगवान्में लगे रहना है। भगवान्की प्रीतिमें वे इतने मस्त रहते हैं कि उनके भीतर स्वप्नमें भी भगवान्के सिवाय अन्य किसीकी इच्छा जाग्रत् नहीं होती।ददामि बुद्धियोगं तम् -- किसी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिके संयोगवियोगसे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो अर्थात् संसारके पदार्थ मिलें या न मिलें? नफा हो या नुकसान हो? आदर हो या निरादर हो? स्तुति हो या निन्दा हो? स्वास्थ्य ठीक रहे या न रहे आदि तरहतरहकी और एकदूसरेसे विरुद्ध विभिन्न परिस्थितियाँ आनेपर भी उनमें एकरूप (सम) रह सकें -- ऐसा बुद्धियोग अर्थात् समता मैं उन भक्तोंको देता हूँ।ददामि का तात्पर्य है कि वे बुद्धियोगको अपना नहीं मानते? प्रत्युत भगवान्का दिया हुआ ही मानते हैं। इसलिये बुद्धियोगको लेकर उनको अपनेमें कोई विशेषता नहीं मालूम देती।येन -- मैं उनको वह बुद्धियोग देता हूँ? जिस बुद्धियोगसे वे मेरेको प्राप्त हो जाते हैं।मामुपयान्ति ते -- जब वे भगवान्में ही चित्त और प्राणवाले हो गये हैं और भगवान्में ही सन्तुष्ट रहते हैं तथा भगवान्में ही प्रेम करते हैं? तो उनके लिये अब भगवान्को प्राप्त होना क्या बाकी रहा? जिससे कि भगवान्को यह कहना पड़ रहा है कि वे मेरेको प्राप्त हो जाते हैं मेरेको प्राप्त हो जानेका तात्पर्य है कि वे प्रेमी भक्त अपनेमें जो कमी मानते हैं? वह कमी उनमें नहीं रहती अर्थात् उन्हें पूर्णताका अनुभव हो जाता है।
।।10.10।। जब तक सबसे श्रेष्ठ आनन्ददायक वस्तु या लक्ष्य को नहीं पाया गया है जिसमें हमारा मन पूर्णतया रम सके? तब तक बाह्य विषयों? भावनाओं तथा विचारों के जगत् के साथ हुए तादात्म्य से हमारी सफलतापूर्वक निवृत्ति नहीं हो सकती। आनन्दस्वरूप आत्मा में ध्यानाकर्षण करने की ऐसी सार्मथ्य है और इसलिए? जिस मात्रा या सीमा तक इस आत्मस्वरूप में मन स्थित होता है? उसी मात्रा में वह दुखदायी मिथ्या बंधनों की पकड़ से मुक्त हो जाता है। इस वेदान्तिक सत्य का भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में वर्णन करते हैं? जो मेरा भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।प्रिय के साथ तादात्म्य का ही अर्थ है प्रेम। आत्मा के साथ हुए तादात्म्य के अनुपात में ही जीव भक्त कहलाता है और जब वह सततयुक्त हो जाता है? तभी वह वास्तविक रूप में हृदयस्थित अपनी अव्यक्त दिव्यता को अभिव्यक्त कर पाता है।ऐसे भक्त जो निरन्तर भक्ति? सन्तोष और आनन्द के वातावरण में सतत आत्मा का चिन्तन करते हैं उन भक्तों को स्वयं भगवान् ही वह बुद्धियोग देते हैं? जिसके द्वारा वे भगवान् को ही प्राप्त होते हैं।बुद्धियोग का पहले भी वर्णन किया जा चुका है। आत्मा के अनन्त स्वरूप पर निदिध्यासन से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना ही बुद्धियोग है। प्रस्तुत संदर्भ में उसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि उपर्युक्त पद्धति से साधनाभ्यास करने वाले साधक को सत्य का बौद्धिक ग्रहण होता है। निसंदेह हमारा वह अभिप्राय कदापि नहीं है कि परिच्छिन्न बुद्धि के द्वारा कभी अनन्त वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है। हम केवल लौकिक जगत् के एक सुपरिचित वाक्प्रचार का उपयोग ही कर रहे हैं। जब तक बुद्धि से ग्रहण किया गया एक अनुभव किसी अन्य अनुभव से बाधित नहीं होता? तब तक उस पूर्व अनुभव को प्रामाणिक और संदेह रहित माना जाता है। आत्मा का अनुभव्ा कदापि बाधित नहीं हो सकता? क्योंकि वह अनुभवकर्ता का ही स्वरूप है। ऐसा दृढ़ ज्ञान केवल उन साधकों को ही प्राप्त होता है जिनमें आत्मानुसंधान करने की परिपक्वता एवं स्थिरता आ जाती है।इस प्रकार? उक्त ध्यानाभ्यास के द्वारा सत्य पर पड़े आवरण और तज्जनित विक्षेपों की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है? तब वह साधक समाधि का साक्षात् अनुभव करता है? जो बुद्धियोग की परिसमाप्ति और पूर्णता है।इस बुद्धियोग के द्वारा भगवान् अपने भक्तों के लिए निश्चित रूप से क्या करते हैं? इसका वर्णन अगले श्लोक में है --
10.10 To them who are ever devoted and worship Me with love, I grant that possession of wisdom by which they reach Me.
10.10 To them who are ever steadfast, worshipping Me with love, I give the Yoga of discrimination by which they come to Me.
10.10. To these persons, who are [thus] mingling [with Me] and revere [Me] with love, I grant that knowledge-Yoga by means of which they reach Me.
10.10 तेषाम् to them? सततयुक्तानाम् ever steadfast? भजताम् (of the) worshipping? प्रीतिपूर्वकम् with love? ददामि (I) give? बुद्धियोगम् Yoga of discrimination? तम् that? येन by which? माम् to Me? उपयान्ति come? ते they.Commentary The devotees who have dedicated themselves to the Lord? who are ever harmonious and selfabiding? who are ever devout and who adore Him with intense love (not for attaining any selfish purpose)? obtain the divine grace. The Lord gives them wisdom or the Yoga of discrimination or understanding by which they attain the knowledge of the Self. The Lord bestows on these devotees who have fixed their thoughts on Him alone? devotion of right knowledge. (Buddhi Yoga) by which they know Him in essence. They know through the eye of intuition in deep meditaion the Supreme Lord? the One in all? the Self of all? as their own Self? destitue of all limitations. Buddhi here is the inner eye of intuition by which the magnificent experience of oneness is had. Buddhi Yoga is Jnana Yoga. (Cf.IV.39XII.6and7)Why does the Lord impart this Yoga of knowledge to His devotees What obstacles does the Buddhi Yoga remove on the path of the aspirant or devotee The Lord gives the answer in the following verse.
10.10 Tesam, to them, who, becoming devotees, adore Me in the manner described earlier; satata-yuktanam, who are ever devoted, ever attached, who have become free from all external desires; and bhajatam, who worship-. Is it because of hankering for possessions? The Lord says: No, (they worship) priti-purvakam, with love. To them who worship Me with that (love), dadami, I grant; tam, that; buddhi-yogam, possession of wisdom-buddhi means full enlightenment with regard to My real nature; coming in possession (yoga) of that is buddhi-yoga; yena, by which possession of wisdom consisting in full enlightenment; upayanti, they reach, realize as their own Self; mam, Me, the supreme God who is the Self. Who do so? Te, they, who adore Me through such disciplines as fixing their minds on Me, etc. For what purpose, or as the destroyer of what cause standing as an obstacle on the way of reaching You, do You bestow that possession of wisdom to those devotees of Yours? In reply to such a ery the Lord says:
10.10 See Comment under 10.11
10.10 To those ceaselessly united with Me, namely, those who desire ceaseless union with Me, and who are worshipping Me, I grant with love, that same Buddhi-yoga or devotional attitude of a mature state. By that they come to Me. Likewise:
“It is understood that the joy of the devotee described in the previous verse is spiritual bliss beyond the modes. But which method do the devotees gain direct contact with you? And from what source do they gain realization?” I give buddhi yoga to those who are desirous of association with me constantly (satata yuktanam). This means that the Lord alone causes buddhi yoga (bhakti yoga) to appear within the functions of their hearts. This buddhi yoga cannot be obtained at all from any other source. It is given only by me and received only by the devotee. By this bhakti, they attain me; they attain direct association with me (upayanti—they come near Me).
And to such persons so fully dedicated to the Supreme Lord Krishna out of great bhakti or exclusive loving devotion, He Himself bestows buddhi-yogam or the divine spark of spiritual intelligence allowing their individual consciousness to attain communion with His ultimate consciousness. This means that as paramatma the Supreme Soul within all living entities, He inspires them internally bequeathing the supra-subtle divine understanding by which they may come to Him eternally.
Here Lord Krishna verifies the reality that such great beings as His devotees, who worship Him out of great devotion with constant love, factually exist.
The words satata-yuktanam means those who constantly aspires for Lord Krishnas association. They aspire by incessantly worshipping Him and intensely meditating for communion with Him. To such persons out of loving compassion, Lord Krishna gives them buddhi-yogam or spiritual intelligence so that their individual consciousness can attain communion with the ultimate consciousness of the Supreme Lord and come to Him.
The words satata-yuktanam means those who constantly aspires for Lord Krishnas association. They aspire by incessantly worshipping Him and intensely meditating for communion with Him. To such persons out of loving compassion, Lord Krishna gives them buddhi-yogam or spiritual intelligence so that their individual consciousness can attain communion with the ultimate consciousness of the Supreme Lord and come to Him.
Teshaam satatayuktaanaam bhajataam preetipoorvakam; Dadaami buddhiyogam tam yena maamupayaanti te.
teṣhām—to them; satata-yuktānām—ever steadfast; bhajatām—who engage in devotion; prīti-pūrvakam—with love; dadāmi—I give; buddhi-yogam—divine knowledge; tam—that; yena—by which; mām—to me; upayānti—come; te—they