सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्ितं विदुर्देवा न दानवाः।।10.14।।
।।10.14।। हे केशव जो कुछ भी आप मेरे प्रति कहते हैं? इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्? आपके (वास्तविक) स्वरूप को न देवता जानते हैं और न दानव।।
।।10.14।। यहाँ अर्जुन अपने मन के भावों को स्पष्ट करते हुए गुरु के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा को भी व्यक्त करता है जो कुछ आप मेरे प्रति कहते हैं उसे मैं सत्य मानता हूँ। केशव शब्द का अर्थ है जिनके केश सुन्दर हैं अथवा केशि नामक असुर का वध करने वाले। यद्यपि वह श्रीकृष्ण के कथन को सत्य मानता है? परन्तु वह उनके सम्पूर्ण आशय को ग्रहण नहीं कर पाता। तात्पर्य यह है कि उसे हृदय से भगवान के वचनों में पूर्ण विश्वास है? किन्तु उसकी बुद्धि अभी भी असन्तुष्ट ही है।ज्ञानपिपासा के वशीभूत अर्जुन का असन्तुष्ट व्यक्तित्व मानो कराहता है । यह ज्ञानपिपासा दूसरी पंक्ति में प्रतिध्वनित होती है जहाँ वह कहता है आपके व्यक्तित्व को न देवता जानते है और न दानव। दानव दनु के पुत्र थे? जो प्राय स्वर्ग पर आक्रमण करते रहते थे? यज्ञयागादि में बाधा पहुँचाते थे और आसुरी जीवन जीते थे। इसके विपरीत? पुराणों के वर्णनानुसार? देवतागण स्वर्ग के निवासी हैं जो र्मत्य मानवों की अपेक्षा शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं में अधिक शक्तिशाली होते हैं।वैयक्तिक दृष्टि से? देव और दानव हमारे मन की क्रमश शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। जब अर्जुन कहता है कि आत्मा के स्वरूप का निर्धारण न तो सूक्ष्म और शुभ के दर्शन के समान हो सकता है? और न ही दानवी प्रवृत्ति के समान? तब उसकी निराशा स्पष्ट झलकती है। न तो हमारी दैवी प्रवृत्तियां सत्य का आलिंगन कर सकती हैं? और न ही दानवी गुण उसको युद्ध के लिए आह्वान करके शत्रु रूप में हमारे सामने ला सकते हैं। जगत् में हम वस्तुओं या व्यक्तियों को केवल दो रूप में मिलते हैं प्रिय और अप्रिय अथवा मित्र और शत्रु के रूप में। आत्मा के व्यक्तित्व की पहचान इन दोनों ही प्रकारों से नहीं हो सकती? क्योंकि वह योग और विभूति की अभिव्यक्तियों में द्रष्टा है।यदि सत्य को कोई नहीं जान सकता है? तो फिर अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से उसका वर्णन करने का अनुरोध क्यों करता है उनमें ऐसा कौन सा विशेष गुण है? जिसके कारण वे उस वस्तु का वर्णन करने में समर्थ हैं? जिसे अन्य कोई जान भी नहीं पाता है