स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।10.15।।
।।10.15।। हे पुरुषोत्तम हे भूतभावन हे भूतेश हे देवों के देव हे जगत् के स्वामी आप स्वयं ही अपने आप को जानते हैं।।
।।10.15।। यह श्लोक दर्शाता है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण उस परम सत्य का वर्णन करने में सक्षम हैं? जिसे न स्वर्ग के देवता जान सकते हैं और न दानवगण। आत्मा को कभी प्रमाणों (इन्द्रियों) के द्वारा दृश्य पदार्थ के रूप में नहीं जाना जा सकता है? और न वह हमारी शुभ अशुभ प्रवृत्तियों के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। परन्तु? आत्मा चैतन्य स्वरूप होने से स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञान को जानने के लिए किसी अन्य प्रमाण (ज्ञान का साधन) की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए अर्जुन यहाँ कहता है? आप स्वयं अपने से अपने आप को जानते हैं।सांख्यदर्शन के अनुसार प्रतिदेह में स्थित चैतन्य? पुरुष कहलाता है। यहाँ श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम नाम से सम्बोधित किया गया है? जिसका अर्थ है? वह एकमेव अद्वितीय तत्त्व जो भूतमात्र की आत्मा है। पुरुषोत्तम शब्द का लौकिक अर्थ है पुरुषों में उत्तम तथा अध्यात्मशास्त्र के अनुसार अर्थ है परमात्मा। अब अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण के शुद्ध ब्रह्म के रूप में स्वीकार करके उनका गौरव गान करते हुए उन्हें इन नामों से सम्बोधित करता है? हे भूतभावन (भूतों की उत्पत्ति करने वाले) हे भूतेश हे देवों के देव हे जगत् के शासक स्वामी किसी भी वस्तु का सारतत्त्व उस वस्तु के गुणों का शासक और धारक होता है। स्वर्ण आभूषणों के आकार? आभा आदि गुणों का शासक होता है। परन्तु चैतन्य की नियमन एवं शासन की शक्ति अन्य की अपेक्षा अधिक है? क्योंकि उसके बिना हम न कुछ जान सकते हैं और न कुछ कर्म ही कर सकते हैं। वस्तुओं और घटनाओं का भान या ज्ञान तभी संभव होता है जब इनके द्वारा अन्तकरण में उत्पन्न वृत्तियाँ इस शुद्ध चैतन्यरूप आत्म्ाा से प्रकाशित होती हैं।अपने आश्चर्य? आदर और भक्ति को व्यक्त करने वाले इस कथन के बाद? अब अर्जुन सीधे ही भगवान् के समक्ष अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को प्रकट करता है --