कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।10.17।।
।।10.17।। हे योगेश्वर मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ? और हे भगवन् आप किनकिन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं।।
।।10.17।। किस प्रकार मैं आपका चिन्तन या ध्यान करूँ जिससे कि मैं आपको साक्षात् जान सकूँ साधक का लक्ष्य है एकत्व भाव से आत्मा को साक्षात् जानना। अब तक के अध्यायों में कहीं भी गीता ने ध्यानाभ्यास के लिए किसी नदी के तट पर या एकान्त गुफा में जाकर संन्यास का जीवन व्यतीत करने का समर्थन नहीं किया है। श्रीकृष्ण का मनुष्य को आह्वान कर्त्तव्य कर्म करने के लिए है और अपने इसी व्यावहारिक जीवन में ईश्वरानुभूति में जीने के लिए है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गीताशास्त्र का उद्घोष महाभारत के समरांगण में उस क्षण हुआ था? जब तत्कालीन समस्त राष्ट्र अपने समय की सबसे बड़ी ऐतिहासिक क्रांति वेला का सामना करने के लिए उद्यत थे। यह क्रांति वेला लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही मूल्यों की निर्णायक थी।अर्जुन कर्त्तव्य पालन के गीताधर्म में पूर्णतया परिवर्तित हो गया था। उसका यह परिवर्तन श्रीकृष्ण को सम्बोधित किये योगिन शब्द से विशेष रूप से दर्शाया गया है। श्रीकृष्ण ऐसे सर्वश्रेष्ठ कर्मयोगी थे? जिन्होंने विविध घटनाओं से परिपूर्ण जीवन में अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी कभी अपने शुद्ध दिव्यस्वरूप का विस्मरण नहीं होने दिया।इस श्लोक में अर्जुन अपने अनुरोध का कारण भी बताते हुए कहता है? आप किनकिन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं व्यावहारिक जीवन जीते हुए और उसकी चुनौतियों का सामना करते हुए? यदि सर्वत्र व्याप्त आत्मा का अखण्ड स्मरण बनाये रखना हो? तो साधक को निश्चित रूप से यह जानना आवश्यक होगा कि वह उस तत्त्व को प्रत्येक वस्तु? वस्तुओं के समूह और मनुष्यों के समाज में कहाँ और कैसे देखे।अर्जुन अपनी इच्छा को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहता है कि यदि भगवान् का उत्तर विस्तृत भी हो? तब भी उन्हें सुनने और समझने में वह थकान नहीं अनुभव करेगा