कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।10.17।।
।।10.17।।हे योगिन् हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ और हे भगवन् किनकिन भावोंमें आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किनकिन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ
।।10.17।। व्याख्या -- कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् -- सातवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जानता है? वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इसलिये अर्जुन भगवान्से पूछते हैं कि हरदम चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया -- आठवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो अनन्यचित्त होकर नित्यनिरन्तर मेरा स्मरण करता है? उस योगीको मैं सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ। फिर नवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा कि जो अनन्य भक्त निरन्तर मेरा चिन्तन करते रहते हैं? उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। इस प्रकार चिन्तनकी महिमा सुनकर अर्जुन कहते हैं कि जिस चिन्तनसे मैं आपको तत्त्वसे जान जाऊँ? वह चिन्तन मैं कहाँकहाँ करूँ किस वस्तु? व्यक्ति? देश? काल? घटना? परिस्थिति आदिमें मैं आपका चिन्तन करूँ [यहाँ चिन्तन करना साधन है और भगवान्को तत्त्वसे जानना साध्य है।]यहाँ अर्जुनने तो पूछा है कि मैं कहाँकहाँ? किसकिस वस्तु? व्यक्ति? स्थान आदिमें आपका चिन्तन करूँ? पर,भगवान्ने आगे उत्तर यह दिया है कि जहाँजहाँ भी तू चिन्तन करता है? वहाँवहाँ ही तू मेरेको समझ। तात्पर्य यह है कि मैं तो सब वस्तु? देश? काल आदिमें परिपूर्ण हूँ। इसलिये किसी विशेषता? महत्ता? सुन्दरता आदिको लेकर जहाँजहाँ तेरा मन जाता है? वहाँवहाँ मेरा ही चिन्तन कर अर्थात् वहाँ उस विशेषता आदिको मेरी ही समझ। कारण कि संसारकी विशेषताको माननेसे संसारका चिन्तन होगा? पर मेरी विशेषताको माननेसे मेरा ही चिन्तन होगा। इस प्रकार संसारका चिन्तन मेरे चिन्तनमें परिणत होना चाहिये।