अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20।।
।।10.20।।हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
।।10.20।। हे गुडाकेश (निद्राजित्) मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि? मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।।
।।10.20।। व्याख्या -- [भगवान्का चिन्तन दो तरहसे होता है -- (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है? उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाय तो मनको वहाँसे हटाकर अपने इष्टदेवके चिन्तनमें ही लगा दे और (2) मनमें सांसारिक विशेषताको लेकर चिन्तन हो? तो उस विशेषताको भगवान्की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तनके लिये ही यहाँ विभूतियोंका वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषतोको लेकर जहाँकहीं वृत्ति जाय? वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये? उस वस्तुव्यक्तिका नहीं। इसीके लिये भगवान् विभूतियोंका वर्णन कर रहे हैं।]अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च (टिप्पणी प0 555) -- यहाँ भगवान्ने अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका सार कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्तिविनाशशील होती है? उसके आरम्भ और अन्तमें जो तत्त्व रहता है? वही तत्त्व उसके मध्यमें भी रहता है (चाहे दीखे या न दीखे) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्वसे उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है? उस वस्तुके आदि? मध्य और अन्तमें (सब समयमें) वही तत्त्व रहता है। जैसे? सोनेसे बने गहने पहले सोनारूप होते हैं और अन्तमें (गहनोंके सोनेमें लीन होनेपर) सोनारूप ही रहते हैं तथा बीचमें भी सोनारूप ही रहते हैं। केवल नाम? आकृति? उपयोग? माप? तौल आदि अलगअलग होते हैं और इनके अलगअलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी आदिमें भी परमात्मस्वरूप थे और अन्तमें लीन होनेपर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्यमें नाम? रूप? आकृति? क्रिया? स्वभाव आदि अलगअलग होनेपर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं -- यह बतानेके लिये ही यहाँ भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य और अन्तमें कहा है।भगवान्ने विभूतियोंके इस प्रकरणमें आदि? मध्य और अन्तमें -- तीन जगह साररूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है। पहले इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि? मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ बीचके बत्तीसवें श्लोकमें कहा कि सम्पूर्ण सर्गोंके आदि? मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ और अन्तके उनतालीसवें श्लोकमें कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है? वह मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है। चिन्तन करनेके लिये यही विभूतियोंका सार है। तात्पर्य यह है कि किसी विशेषता आदिको लेकर जो विभूतियाँ कही गयी हैं? उन विभूतियोंके अतिरिक्त भी जो कुछ दिखायी दे? वह भी भगवान्की ही विभूति है -- यह बतानेके लिये भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें विद्यमान कहा है। तत्त्वसे सब कुछ परमात्मा ही है -- वासुदेवः सर्वम् -- इस लक्ष्यको बतानेके लिये ही विभूतियाँ कही गयी हैं।इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने प्राणियोंमें जो आत्मा है? जीवोंका जो स्वरूप है? उसको अपनी विभूति बताया है। फिर बत्तीसवें श्लोकमें भगवान्ने सृष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी कि जो जडचेतन? स्थावरजङ्गम सृष्टि है? उसके आदिमें मैं एक ही बहुत रूपोंमें हो जाऊँ (बहु स्यां प्रजायेयेति छान्दोग्य0 6। 2। 3) -- ऐसा संकल्प करता हूँ और अन्तमें मैं ही शेष रहता हूँ -- शिष्यते शेषसंज्ञः (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। अतः बीचमें भी सब कुछ मैं ही हूँ -- वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) सदसच्चाहमर्जुन (गीता 9। 19 ) क्योंकि जो तत्त्व आदि और अन्तमें होता है? वही तत्त्व बीचमें होता है। अन्तमें उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने बीज(कारण) रूपसे अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सबका बीज हूँ? मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह -- तीन श्लोकोंमें मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकोंमें जो समुदायमें मुख्य हैं? जिनका समुदायपर आधिपत्य है? जिनमें कोई विशेषता है? उनको लेकर विभूतियाँ बतायी गयी हैं। परन्तु साधकको चाहिये कि वह इन विभूतियोंकी महत्ता? विशेषता? सुन्दरता? आधिपत्य आदिकी तरफ खयाल न करे? प्रत्युत ये सब विभूतियाँ भगवान्से ही प्रकट होती हैं? इनमें जो महत्ता आदि है? वह केवल भगवान्की है ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं -- इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुनका प्रश्न भगवान्के चिन्तनके विषयमें है (10। 17)? किसी वस्तु? व्यक्तिके चिन्तनके विषयमें नहीं।अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः -- साधक इन विभूतियोंका उपयोग कैसे करे इसे बताते हैं कि जब साधककी दृष्टि प्राणियोंकी तरफ चली जाय? तब वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे भगवान् ही हैं -- इस तरह भगवान्का चिन्तन करे। जब किसी विचारक साधककी दृष्टि सृष्टिकी तरफ चली जाय? तब वह,उत्पत्तिविनाशशील और हरदम परिवर्तनशील सृष्टिके आदि? मध्य तथा अन्तमें एक भगवान् ही हैं इस तरह भगवान्का चिन्तन करे। कभी प्राणियोंके मूलकी तरफ उसकी दृष्टि चली जाय? तब वह बीजरूपसे भगवान् ही हैं? भगवान्के बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है और हो सकता भी नहीं -- इस तरह भगवान्का चिन्तन करे।
।।10.20।। भूतमात्र के हृदय में स्थित आत्मा मैं ही हूँ इस सामान्य कथन के साथ श्रीकृष्ण इस प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं। वैज्ञानिक विचारपद्धति से शोधकार्य करने का एक सुप्रशिक्षित प्राध्यापक? अनुसंधान के अपने प्रिय विषय की चर्चा का प्रारम्भ एक संक्षिप्त व सारपूर्ण कथन के साथ करता है। तत्पश्चात् वह उस विषय का विस्तार से विचार करके युक्तियुक्त विवेचन के द्वारा अन्त में उसी प्रारम्भिक कथन के निष्कर्ष पर पहुँचता है। यहाँ पर भी हम देखेंगे कि इस अध्याय की समाप्ति पर भगवान् इसी विचार को और अधिक प्रभावशाली ढंग से दोहराते हैं कि मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ।इस श्लोक की पहली पंक्ति में भगवान् अपनी सर्वात्मकता दर्शाते हैं और दूसरी पंक्ति में इसी भाव को प्रकारान्तर से बताते हैं कि मैं समस्त भूतों का आदि? मध्य और अन्त हूँ। वस्तुत बाह्य चराचर जगत् मन की प्रक्षेपित सृष्टि है दूसरे शब्दों में बाह्य जगत् परिच्छिन्न मन के द्वारा किया गया अनन्त का अन्यथा दर्शन है। यह तथ्य आन्तरिक वैचारिक जगत् से सम्बन्धित भी समझा जा सकता है। प्रत्येक बुद्धिवृत्ति चैतन्य में प्रकट होकर उसी में लीन हो जाती है। चैतन्य के अभाव में वृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आगे भी इसी विचार को दोहराया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण इस महान् सत्य को दोहराते कभी नहीं थकते हैं।इस चराचर जगत् में रहते हुए ईश्वरोपासना की साधनाओं को या पद्धति को अब बताते हैं।