रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।10.23।।
।।10.23।। मैं (ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनपति कुबेर (वित्तेश) हूँ (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ तथा शिखर वाले पर्वतों में मेरु हूँ।।
।।10.23।। मैं रुद्रों में शंकर हूँ जीवन का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को नाश के अधिष्ठाता देवता के रूप में रुद्र की कल्पना को भलीभाँति समझना चाहिये। प्रत्येक परवर्ती (आगामी) रचना के पूर्व नाश होना आवश्यक है। फल को स्थान देने के लिए फूल को नष्ट होना पड़ता है और बीज को प्राप्त करने के लिए फल का विनाश आवश्यक है। ये बीज पुन नष्ट होकर पौधे को जन्म देते हैं। इस प्रकार? प्रत्येक प्रगति और विकास के पूर्व रचनात्मक विनाश की एक अखण्ड शृंखला बनी रहती है। इस तथ्य को सूक्ष्मदर्शी तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने पहचाना? और ज्ञान की परिपक्वता में निर्भय होकर उन्होंने रचनात्मक विनाश के सुखदायक देवता शंकर को सम्मान दिया और उनका पूजार्चन किया।मैं यक्ष और राक्षसों में कुबेर हूँ स्वर्ग के धन के कोषाध्यक्ष कुबेर कहे जाते हैं। कुबेर शब्द का अर्थ है कुत्सित शरीर वाला। पुराणों में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है कुबेर अत्यन्त कुत्सित राक्षसी प्राणी है? स्थूल एवं ह्रस्व काय? (त्रिपाद) तीन पैरों वाले? विशाल उदर के? लघु मस्तक वाले और जिसके आठ दांत बाहर निकले हुये हैं। स्वर्ग के इस कोषाध्यक्ष की सहायता के लिए उसी के समान कुरूप? भोगवादी और क्रूरचिन्तक यक्ष और राक्षसों की नियुक्ति होती है? जो कोष रक्षा में कुबेर की सहायता करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय ऋषिगण पूँजीवाद के कितने विरोधी थे कि उन्होंने धनपति कुबेर को अत्यन्त हास्यास्पद और विकृत आकृति वाला इतना कुरूप चित्रित किया है कि हमें हँसी भी नहीं आ सकती।मैं वसुओं में अग्नि हूँ वेदों में आठ वसुओं का वर्णन किया गया है? जो ऋतुओं के अधिष्ठाता देवता हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि इन वसुओं का मुख अग्नि है। वहाँ? मुख से तात्पर्य अनुभव और भोग के साधन से है। अत? आत्मा ही वह स्रोत है? जहाँ से हमें समस्त ऋतुओं के अनुभव प्राप्त होते हैं।बाह्य प्रकृति में छ ऋतुएँ हैं? तथा दो ऋतुएँ मन की हैं सुख और दुख। इस प्रकार यहाँ आठ ऋतुओं का निर्देश है। बसन्त ऋतु में यदि वियोग के कारण हम दुखी हों? तो उस ऋतु के फूल भी हमारे लिए अश्रुधार बहाते हुए प्रतीत होते हैं जबकि मन में सफलता का पूर्ण आनन्द उमड़ रहा हो तो शरद ऋतु के पर्णहीन वृक्ष भी हमें आनन्द का नृत्य करते प्रतीत होते हैं इस कारण ये दो आन्तरिक ऋतुएँ हैं। इन सबका अनुभव आत्मचैतन्य की उपस्थिति में ही हो सकता है? अन्यथा नहीं।मैं समस्त पर्वतों में मेरु पर्वत हूँ मेरु एक पौराणिक पर्वत है? जिसका प्राचीन हिन्दू भूगोल शास्त्र में विश्व के मध्य बिन्दु के रूप में वर्णन किया गया है। इस पर्वत के ऊपर देवता वास करते हैं और इसके नीचे सप्तद्वीप फैले हुए हैं? जिनसे यह जगत् बना है। मेरु पर्वत की ऊँचाई सात से आठ हजार मील मानी गई है? जिसके शिखर से गंगा सभी दिशाओं में बहती है। इस वर्णन से अनेक विद्वानों का यह मत बना कि यह हिमालय का वर्णन है? जो? निसन्देह ही? अस्वीकार्य नहीं हो सकता। परन्तु हम उसे वस्तुत गूढ़ सांकेतिक भाषा में किया गया तत्त्व का वर्णन मानेंगे। मेरु पर्वत ऐसे प्रभावी स्थान का सूचक है जिसका आधार जम्बू द्वीप में है। जिसके उच्च शिखर से अध्यात्म ज्ञान की गंगा समस्त द्वीपों का कल्याण करने के लिए प्रवाहित होती है।परिचित जगत् की वस्तुओं में आत्मा की प्रतिष्ठा को बताते हुए आगे कहते हैं