अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
।।10.33।। मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
।।10.33।। मैं अक्षरों में अकार हूँ यह सर्वविदित तथ्य है कि भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता। सभी भाषाओं में संस्कृत की विशेष मधुरता उसमें किये जाने वाले अकार के प्रयोग की प्रचुरता के कारण है। वस्तुत? प्रत्येक व्यंजन में अ जोड़कर ही उसका उच्चारण किया जाता है। यह अ मानो उसमें स्निग्ध पदार्थ का काम करता है? जिसके कारण नाद की कर्कशता दूर हो जाती है। इस अ के सहज प्रवाह के कारण शब्दों के मध्य एक राग और वाक्यों में एक प्रतिध्वनि सी आ जाती है। किसी सभागृह में संस्कृत मन्त्रों के दीर्घकालीन पाठ के उपरान्त? संवेदनशील लोगों के लिए एक ऐसे संगीतमय वातावरण का अनुभव होता है? जो मानव मन के समस्त विक्षेपों को शान्त कर सकता है।प्रत्येक अक्षर का सारतत्त्व अकार है वह शब्दों और वाक्यों की सीमाओं को लांघकर वातावरण में गूंजता है? और सभी भाषाओं की वर्णमालाओं में वह प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित है। अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।मैं समासों में द्वन्द्व हूँ संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं। समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता? परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद।मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ। वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ?जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है। अत मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। संस्कारों के अनुसार मनुष्य कर्म करता है जिसका नियमानुसार उसे फल प्राप्त होता है।विश्वतोमुख इस शब्द की विस्तृत व्याख्या पहले भी की जा चुकी है? जहाँ यह कहा गया था कि आत्मा न केवल सब में एक है? किन्तु सबसे विलक्षण भी है? और वह प्रत्येक प्राणी में स्थित हुआ? सर्वत्र देखता है। इस सम्पूर्ण भाव को केवल एक शब्द विश्वतोमुख में व्यक्त किया गया है। सभी ऐन्द्रिक मानसिक और बौद्धिक ग्रहणों के लिए चैतन्य आत्मा की कृपा आवश्यक है? और इसलिए? यह शब्द अर्थाभिव्यंजक है।भगवान् कहते हैं