वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।10.37।।
।।10.37।।वृष्णिवंशियोंमें वासुदेव और पाण्डवोंमें धनञ्जय मैं हूँ। मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
।।10.37।। व्याख्या -- वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि -- यहाँ भगवान् श्रीकृष्णके अवतारका वर्णन नहीं है? प्रत्युत वृष्णिवंशियोंमें अपनी जो विशेषता है? उस विशेषताको लेकर भगवान्ने अपना विभूतिरूपसे वर्णन किया है।यहाँ भगवान्का अपनेको विभूतिरूपसे कहना तो संसारकी दृष्टिसे है? स्वरूपकी दृष्टिसे तो वे साक्षात् भगवान् ही हैं। इस अध्यायमें जितनी विभूतियाँ आयी हैं? वे सब संसारकी दृष्टिसे ही हैं। तत्त्वतः तो वे,परमात्मस्वरूप ही हैं।पाण्डवानां धनञ्जयः -- पाण्डवोंमें अर्जुनकी जो विशेषता है? वह विशेषता भगवान्की ही है। इसलिये भगवान्ने अर्जुनको अपनी विभूति बताया है।मुनीनामप्यहं व्यासः -- वेदका चार भागोंमें विभाग? पुराण? उपपुराण? महाभारत आदि जो कुछ संस्कृत वाङ्मय है? वह सबकासब व्यासजीकी कृपाका ही फल है। आज भी कोई नयी रचना करता है तो उसे भी व्यासजीका ही उच्छिष्ट माना जाता है। कहा भी है -- व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्। इस तरह सब मुनियोंमें व्यासजी मुख्य हैं। इसलिये भगवान्ने व्यासजीको अपनी विभूति बताया है। तात्पर्य है कि व्यासजीमें विशेषता दीखते ही भगवान्की याद आनी चाहिये कि यह सब विशेषता भगवान्की है और भगवान्से ही आयी है।कवीनामुशना कविः -- शास्त्रीय सिद्धान्तोंको ठीक तरहसे जाननेवाले जितने भी पण्डित हैं? वे सभी कवि कहलाते हैं। उन सब कवियोंमें शुक्राचार्यजी मुख्य हैं। शुक्राचार्यजी संजीवनी विद्याके ज्ञाता हैं। इनकी शुक्रनीति प्रसिद्ध है। इस प्रकार अनेक गुणोंके कारण भगवान्ने इन्हें अपनी विभूति बताया है।इन विभूतियोंकी महत्ता देखकर कहीं भी बुद्धि अटके? तो उस महत्ताको भगवान्की माननी चाहिये क्योंकि वह महत्ता एक क्षण भी स्थायीरूपसे न टिकनेवाले संसारकी नहीं हो सकती।