यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।10.41।।
।।10.41।। जो कोई भी विभूतियुक्त? कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त वस्तु (या प्राणी) है? उसको तुम मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जानो।।
।।10.41।। इस अध्याय में कथित उदाहरणों के द्वारा भगवान् की विभूतियों को दर्शाने का अल्पसा प्रयत्न किया गया है? परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सत्य को पूर्णतया परिभाषित किया है। हमें यह बताया गया है कि हम विवेक के द्वारा इसी अनित्य जगत् में नित्य और दिव्य तत्त्व को पहचान सकते हैं। उपर्युक्त दृष्टान्तों से यह स्पष्ट होता है कि जगत् की चराचर वस्तुओं में स्वयं भगवान् अपने को ऐश्वर्ययुक्त? कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त रूप में अभिव्यक्त करते हैं। वे समस्त नाम और रूपों में विद्यमान हैं।यहाँ श्रीकृष्ण अत्यन्त स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि बहुविध जगत् में दिव्य उपस्थिति क्या है? तथा उसे पहचानने की परीक्षा क्या है। जहाँ कहीं भी महानता? कान्ति या शक्ति की अभिव्यक्ति है? वह परमात्मा के असीम तेज की एक रश्मि ही है। इस में कोई सन्देह नहीं कि उपर्युक्त विस्तृत विवेचन का यह सारांश अपूर्व है। इन समस्त उदाहरणों में भगवान् का या तो ऐश्वर्य झलकता है? या कान्ति या फिर शक्ति।सर्वत्र परमात्मदर्शन करने के लिए अर्जुन को दिये गये इस संकेतक का उपयोग गीता के सभी विद्यार्थियों के लिए समान रूप से लाभप्रद होगा।अब अन्त में भगवान् कहते हैं