एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।10.7।।
।।10.7।। जो पुरुष इस मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है? वह पुरुष अविकम्प योग (अर्थात् निश्चल ध्यान योग) से युक्त हो जाता है? इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।
।।10.7।। जो इस मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है? वह ब्रह्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त करता है। इस श्लोक में प्रयुक्त इन दो शब्दों विभूति और योग का जो अर्थ सदैव बताया जाता है वह क्रमश भूतमात्र का विस्तार और ऐश्वर्य सार्मथ्य है।यद्यपि ये अर्थ सही हैं? तथापि वे इतने प्रभावी नहीं हैं कि पूर्व श्लोक में वर्णित सिद्धांत और इस श्लोक के साथ उसकी सूक्ष्म और सुन्दर संगति को व्यक्त कर सकें। सप्तर्षियों के माध्यम से समष्टि विश्व की अभिव्यक्ति ही परमात्मा की विभूति है जबकि चार मानस पुत्रों द्वारा सृष्ट जीव (व्यष्टि) के अनुभव का जगत् आत्मा का दिव्य योग है। व्यष्टि जीव के जगत् का अधिष्ठान आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म) है? जो सम्पूर्ण विश्व का आधार है। अत? यहाँ कहा गया है कि? जो पुरुष विभूति और योग इन दोनों को ही परमात्मा की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में साक्षात् जानता है? वही पुरुष अनन्त ब्रह्म का अपरोक्ष अनुभव करता है।उपर्युक्त विवेचन द्वारा पूर्व श्लोक में कथित सप्तर्षि तथा चार कुमारों की ब्रह्माजी के मन से उत्पत्ति हुई की उपयुक्तता को समझने में कठिनाई नहीं रह जाती। जब परमात्मा व्यष्टि और समष्टि मनों से अपने तादात्म्य को त्याग देता है? तब वह अपनी स्वमहिमा में ही प्रतिष्ठित होकर रमता है। समष्टि उपाधि के साथ तादात्म्य से वह ब्रह्म ईश्वर बन जाता है? और व्यष्टि के साथ संबंध से जीवभाव को प्राप्त हो जाता है। वेदान्त के इस अभिप्राय को समझना और उसी अनुभव में जीना ही अविकम्प योग है। इस योग से ही आत्मानुभूति में दृढ़ और स्थायी निष्ठा प्राप्त होती है। योग शब्द से कुछ ऐसा अर्थ समाज में प्रचलित हो गया था कि लोगों के मन में उसके प्रति भय व्याप्त हो गया था। गीता में? महर्षि व्यास? स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से इस परिचित शब्द योग का अर्थ नए सन्दर्भ में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि उसके प्रति व्याप्त आशंका निर्मूल हो जाती है और वह सबके लिए कल्याणकारक भी सिद्ध होता है। अविकम्प योग उतना ही अपूर्व है जितनी कि योग शब्द की विविध परिभाषायें हैं? जो गीता के पूर्वाध्यायों के विभिन्न श्लोकों में दी गयी हैं। गीता हिन्दूपुनरुत्थान की रचनात्मक क्रांति का वह एकमात्र धर्मग्रन्थ है? जिसका स्थान अन्य कोई ग्रन्थ नहीं ले सकता।आत्मस्वरूप के अखण्ड अनुभव में दृढ़ और स्थायी निष्ठा प्राप्त करने के लिए कौन सा निश्चित साधन है भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोक में बताते हैं --