एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।10.7।।
।।10.7।।जो मनुष्य मेरी इस विभूतिको और योगको तत्त्वसे जानता अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानता है? वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
।।10.7।। व्याख्या -- एतां विभूतिं योगं च मम -- एताम् सर्वनाम अत्यन्त समीपका लक्ष्य कराता है। यहाँ यह शब्द चौथेसे छठे श्लोकतक कही हुई विभूति और योगका लक्ष्य कराता है।विभूति नाम भगवान्के ऐश्वर्यका है और योग नाम भगवान्की अलौकिक विलक्षण शक्ति? अनन्त सामर्थ्यका है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्की शक्तिका नाम योग है और उस योगसे प्रकट होनेवाली विशेषताओंका नाम विभूति है। चौथेसे छठे श्लोकतक कही हुई भाव और व्यक्तिके रूपमें जितनी विभूतियाँ हैं? वे तो भगवान्के सामर्थ्यसे? प्रभावसे प्रकट हुई विशेषताएँ हैं? और मेरेसे पैदा होते हैं,(मत्तः मानसा जाताः) -- यह भगवान्का योग है? प्रभाव है। इसीको नवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें,पश्य मे योगमैश्वरम् (मेरे इस ईश्वरीय योगको देख) पदोंसे कहा गया है। ऐसे ही आगे ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें अर्जुनको विश्वरूप दिखाते समय भगवान्ने पश्य मे योगमैश्वरम् पदोंसे अपना ऐश्वर्यम् योग देखनेके लिये कहा है।विशेष बातजब मनुष्य भोगबुद्धिसे भोग भोगता है? भोगोंसे सुख लेता है? तब अपनी शक्तिका ह्रास और भोग्य वस्तुका विनाश होता है। इस प्रकार दोनों तरफसे हानि होती है। परन्तु जब वह भोगोंको भोगबुद्धिसे नहीं भोगता अर्थात् उसके भीतर भोग भोगनेकी किञ्चिन्मात्र भी लालसा उत्पन्न नहीं होती? तब उसकी शक्तिका ह्रास नहीं होता। उसकी शक्ति? सामर्थ्य निरन्तर बनी रहती है।वास्तवमें भोगोंके भोगनेमें सुख नहीं है। सुख है -- भोगोंके संयममें। यह संयम दो तरहका होता है -- (1) दूसरोंपर शासनरूप संयम और (2) अपनेपर शासनरूप संयम। दूसरोंपर शासनरूप संयमका तात्पर्य है -- दूसरोंका दुःख मिट जाय और वे सुखी हो जायँ -- इस भावसे दूसरोंको उन्मार्गसे बचाकर सन्मार्गपर लगाना। अपनेपर शासनरूप संयमका तात्पर्य है -- अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग करना और स्वयं किञ्चिन्मात्र भी सुख न भोगना। इन्हीं दोनों संयमोंका नाम योग अथवा प्रभाव है। ऐसा योग अथवा प्रभाव सर्वोपरि परमात्मामें स्वतःस्वाभाविक होता है। दूसरोंमें यह साधनसाध्य होता है।स्वार्थ और अभिमानपूर्वक दूसरोंपर शासन करनेसे? अपना हुक्म चलानेसे दूसरा वशमें हो जाता है तो शासन करनेवालेको एक सुख होता है। इस सुखमें शासककी शक्ति? सामर्थ्य क्षीण हो जाती है और जिसपर वह शासन करता है? वह पराधीन हो जाता है। इसलिये स्वार्थ और अभिमानपूर्वक दूसरोंपर शासन करनेकी अपेक्षा स्वार्थ और अभिमानका सर्वथा त्याग करके दूसरोंका हित हो? मनुष्य नश्वर भोगोंमें न फँसें? मनुष्य अनादिकालसे अनन्त दुःखोंको भोगते आये हैं अतः वे सदाके लिये इन दुःखोंसे छूटकर महान् आनन्दको प्राप्त हो जायँ -- ऐसी बुद्धिसे दूसरोंपर शासन करना बहुत श्रेष्ठ और विलक्षण शासन (संयम) है। इस शासनकी आखिरी हद है -- भगवान्का शासन अर्थात् संयमन। इसीका नाम योग है।योग नाम समता? सम्बन्ध और सामर्थ्यका है। जो स्थिर परमात्मतत्त्व है? उसीसे अपार सामर्थ्य आती है। कारण कि वह निर्विकार परमात्मतत्त्व महान् सामर्थ्यशाली है। उसके समान सामर्थ्य किसीमें हुई नहीं? होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। मनुष्यमें आंशिकरूपसे वह सामर्थ्य निष्काम होनेसे आती है। कारण कि कामना होनेसे शक्तिका क्षय होता है और निष्काम होनेसे शक्तिका संचय होता है।आदमी काम करतेकरते थक जाता है तो विश्राम करनेसे फिर काम करनेकी शक्ति आ जाती है? बोलतेबोलते थक जाता है तो चुप होनेसे फिर बोलनेकी शक्ति आ जाती है। जीतेजीते आदमी मर जाता है तो फिर जीनेकी शक्ति आ जाती है। सर्गमें शक्ति क्षीण होती है और प्रलयमें शक्तिका संचय होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृतिके सम्बन्धसे शक्ति क्षीण होती है और उससे सम्बन्धविच्छेद होनेपर महान् शक्ति आ जाती है।यो वेत्ति तत्त्वतः -- विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेका तात्पर्य है कि संसारमें कारणरूपसे मेरा जो कुछ प्रभाव? सामर्थ्य है और उससे कार्यरूपमें प्रकट होनेवाली जितनी विशेषताएँ हैं अर्थात् वस्तु? व्यक्ति आदिमें जो कुछ विशेषता दीखनेमें आती है? प्राणियोंके अन्तःकरणमें प्रकट होनेवाले जितने भाव हैं और प्रभावशाली व्यक्तियोंमें ज्ञानदृष्टिसे? विवेकदृष्टिसे तथा संसारकी उत्पत्ति और संचालनकी दृष्टिसे जो कुछ विलक्षणता है? उन सबके मूलमें मैं ही हूँ और मैं ही सबका आदि हूँ। इस प्रकार जो मेरेको समझ लेता है? तत्त्वसे ठीक मान लेता है? तो फिर वह उन सब विलक्षणताओंके मूलमें केवल मेरेको ही देखता है। उसका भाव केवल मेरेमें ही होता है? व्यक्तियों? वस्तुओंकी विशेषताओँमें नहीं। जैसे? सुनारकी दृष्टि गहनोंपर जाती है तो गहनोंके नाम? आकृति? उपयोगपर दृष्टि रहते हुए भी भीतर यह भाव रहता है कि तत्त्वसे यह सब सोना ही है। ऐसे ही जहाँकहीं जो कुछ भी विशेषता दीखे? उसमें दृष्टि भगवान्पर ही जानी चाहिये कि उसमें जो कुछ विशेषता है? वह भगवान्की ही है वस्तु? व्यक्ति? क्रिया आदिकी नहीं।,संसारमें क्रिया और पदार्थ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। इनमें जो कुछ विशेषता दीखती है? वह स्थायीरूपसे व्यापक परमात्माकी ही है। जहाँजहाँ विलक्षणता? अलौकिकता आदि दीखे? वहाँवहाँ वस्तु? व्यक्ति आदिकी ही विलक्षणता माननेसे मनुष्य उसीमें उलझ जाता है और मिलता कुछ नहीं। कारण कि वस्तुओंमें जो विलक्षणता दीखती है? वह उस अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्वकी ही झलक है? परिवर्तनशील वस्तुकी नहीं। इस प्रकार उस मूल तत्त्वकी तरफ दृष्टि जाना ही उसे तत्त्वसे जानना अर्थात् श्रद्धासे दृढ़तापूर्वक मानना है।यहाँ जो विभूतियोंका वर्णन किया गया है? इसका तात्पर्य इनमें परिपूर्णरूपसे व्यापक परमात्माके ऐश्वर्यसे है। विभूतियोंके रूपमें प्रकट होनेवाला मात्र ऐश्वर्य परमात्माका है। वह ऐश्वर्य प्रकट हुआ है परमात्माकी योगशक्तिसे। इसलिये जिसकिसीमें जहाँकहीं विलक्षणता दिखायी दे? वह विलक्षणता भगवान्की योगशक्तिसे प्रकट हुए ऐश्वर्य(विभूति) की ही है? न कि उस वस्तुकी। इस प्रकार योग और विभूति परमात्माकी हुई तथा उस योग और विभूतिको तत्त्वसे जाननेका तात्पर्य यह हुआ कि उसमें विलक्षणता परमात्माकी है। अतः द्रष्टाकी दृष्टि केवल उस परमात्माकी तरफ ही जानी चाहिये। यही इनको तत्त्वसे जानना अर्थात् मानना है (टिप्पणी प0 542)।सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते -- उसकी मेरेमें दृढ़ भक्ति हो जाती है। दृढ़ कहनेका तात्पर्य है कि उसकी मेरे सिवाय कहीं भी किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। अतः उसका आकर्षण दूसरेमें न होकर एक मेरेमें ही होता है।नात्र संशयः -- इसमें कोई संदेहकी बात नहीं -- ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि अगर उसको कहीं भी किञ्चिन्मात्र भी संदेह होता है तो उसने मेरेको तत्त्वसे नहीं माना है। कारण कि उसने मेरे योगको अर्थात् विलक्षण प्रभावको और उससे उत्पन्न होनेवाली विभूतियोंको (ऐश्वर्यको) मेरेसे अलग मानकर महत्त्व दिया है।मेरेको तत्त्वसे जान लेनेके बाद उसके सामने लौकिक दृष्टिसे किसी तरहकी विलक्षणता आ जाय? तो वह उसपर प्रभाव नहीं डाल सकेगी। उसकी दृष्टि उस विलक्षणताकी तरफ न जाकर मेरी तरफ ही जायगी। अतः उसकी मेरेमें स्वाभाविक ही दृढ़ भक्ति होती है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेवाला अविचल भक्तिसे युक्त हो जाता है। अतः विभूति और योगको तत्त्वसे जानना क्या है इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।