मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।
।।10.9।।।(टिप्पणी प0 544) मेरेमें चित्तवाले? मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण? प्रभाव आदिको जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम करते हैं।
।।10.9।। मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन? सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए? मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।।
।।10.9।। व्याख्या -- [भगवान्से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान्से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा है -- यह बात जिनको दृढ़तासे और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है? उनके लिये कुछ भी करना? जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस? उनका एक ही काम रहता है -- सब प्रकारसे भगवान्में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोकमें बतायी गयी है।]मच्चिताः -- वे मेरेमें चित्तवाले हैं। एक स्वयंका भगवान्में लगना होता है और एक चित्तको भगवान्में लगाना होता है। जहाँ मैं भगवान्का हूँ ऐसे स्वयं भगवान्में लग जाता है? वहाँ चित्त? बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान्में लग जाते हैं। कारण कि कर्ता(स्वयं) के लगनेपर करण (मन? बुद्धि आदि) अलग थोड़े ही रहेंगे वे भी लग जायँगे। करणोंके लगनेपर तो कर्ता अलग रह सकता है? पर कर्ताके लगनेपर करण अलग नहीं रह सकते। जहाँ कर्ता रहेगा? वहीं करण भी रहेंगे। कारण कि करण कर्ताके ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है? करण भी वहीँ लगते हैं। जैसे? कोई मनुष्य परमात्मप्राप्तिके लिये सच्चे हृदयसे साधक बन जाता है? तो साधनमें उसका मन स्वतः लगता है। उसका मन साधनके सिवाय अन्य किसी कार्यमें नहीं लगता और जिस कार्यमें लगता है? वह कार्य भगवान्का ही होता है। कारण कि स्वयं कर्ताके विपरीत मनबुद्धि आदि नहीं चलते। परन्तु जहाँ स्वयं भगवान्में नहीं लगता? प्रत्युत मैं तो संसारी हूँ? मैं तो गृहस्थ हूँ -- इस प्रकार स्वयंको संसारमें लगाकर चित्तको भगवान्में लगाना चाहता है? उसका चित्त भगवान्में निरन्तर नहीं लगता। तात्पर्य है कि स्वयं तो संसारी बना रहे और चित्तको भगवान्में लगाना चाहे? तो भगवान्में चित्त लगना असम्भवसा है।दूसरी बात? चित्त वहीं लगता है? जहाँ प्रियता होती है। प्रियता वहीं होती है? जहाँ अपनापन होता है? आत्मीयता होती है। अपनापन होता है -- भगवान्के साथ स्वयंका सम्बन्ध जोड़नेसे। मैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं? शरीरसंसार मेरा नहीं है। मेरेपर प्रभुका पूरा अधिकार है? इसलिये वे मेरे प्रति चाहे जैसा बर्ताव या विधान कर सकते हैं। परन्तु मेरा प्रभुपर कोई अधिकार नहीं है अर्थात् वे मेरे हैं तो मैं जैसा चाहूँ? वे वैसा ही करें -- ऐसा कोई अधिकार नहीं है -- इस प्रकार जो स्वयंको भगवान्का मान लेता है? अपनेआपको भगवान्के अर्पित कर देता है? उसका चित्त स्वतः भगवान्में लग जाता है। ऐसे भक्तोंको ही यहाँ मच्चित्ताः कहा गया है।यहाँ मच्चित्ताः पदमें चित्तके अन्तर्गत ही मन है अर्थात् मनोवृत्ति अलग नहीं है। गीतामें चित्त और मनको एक भी कहा है और अलगअलग भी जैसे भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च (7। 4) -- यहाँ मनके अन्तर्गत ही चित्त है और मनः संयम्य मच्चितः (6। 14) -- यहाँ मन और चित्त अलगअलग हैं। परन्तु इस श्लोकमें आये मच्चित्ताः पदमें मन और चित्त एक ही हैं? दो नहीं।मद्गतप्राणाः -- उनके प्राण मेरे ही अर्पण हो गये हैं। प्राणोंमें दो बाते हैं -- जीना और चेष्टा। उन भक्तोंका जीना भी भगवान्के ही लिये है और शरीरकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ (क्रियाएँ) भी भगवान्के लिये ही हैं। शरीरकी जितनी क्रियाएँ होती हैं? उनमें प्राणोंकी ही मुख्यता होती है। अतः उन भक्तोंकी यज्ञ? अनुष्ठान आदि शास्त्रीय भजनध्यान? कथाकीर्तन आदि भगवत्सम्बन्धी खानापीना आदि शारीरिक खेती? व्यापार आदि जीविकासम्बन्धी सेवा आदि सामाजिक आदिआदि जितनी क्रियाएँ होती हैं? वे सब भगवान्के लिये ही होती हैं। उनकी क्रियाओँमें क्रियाभेद तो होता है? पर उद्देश्यभेद नहीं होता। उनकी मात्र क्रियाएँ एक भगवान्के उद्देश्यसे ही होती हैं। इसलिये वे भगवद्गतप्राण होते हैं।जैसे गोपिकाओंने गोपीगीत में भगवान्से कहा है कि हमने अपने प्राणोंको आपमें अर्पण कर दिया है -- त्वयि धृतासवः (श्रीमद्भा0 10। 31। 1)? ऐसे ही भक्तोंके प्राण केवल भगवान्में रहते हैं। उनका जितना भगवान्से अपनापन है? उतना अपने प्राणोंसे नहीं। हरेक प्राणीमें किसी भी अवस्थामें मेरे प्राण न छूटें इस तरह जीनेकी इच्छा रहती है। यह प्राणोंका मोह है? स्नेह है। परन्तु भगवान्के भक्तोंका प्राणोंमें मोह नहीं रहता। उनमें हम जीते रहें यह इच्छा नहीं होती और मरनेका भय भी नहीं होता। उनको न जीनेसे मतलब रहता है और न मरनेसे। उनको तो केवल भगवान्से मतलब रहता है। कारण कि वे इस बातको अच्छी तरहसे जान जाते हैं कि मरनेसे तो प्राणोंका वियोग होता है? भगवान्से तो कभी वियोग होता ही नहीं। प्राणोंके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है? पर भगवान्के साथ हमारा स्वतःसिद्ध घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राण प्रकृतिके कार्य हैं और हम स्वयं भगवान्के अंश हैं।ऐसे मद्गतप्राणाः होनेके लिये साधकको सबसे पहले यह उद्देश्य बनाना चाहिये कि हमें तो भगवत्प्राप्ति ही करनी है। सांसारिक चीजें प्राप्त हों या न हों? हम स्वस्थ रहें या बीमार? हमारा आदर हो या निरादर? हमें सुख मिले या दुःख -- इनसे हमारा कोई मतलब नहीं है। हमारा मतलब तो केवल भगवान्से है। ऐसा दृढ़ उद्देश्य बननेपर साधक भगवद्गतप्राण हो जायगा।बोधयन्तः परस्परम् -- उन भक्तोंको भगवद्भाववाले? भगवद्रुचिवाले मिल जाते हैं तो उनके बीच भगवान्की बात छिड़ जाती है। फिर वे आपसमें एकदूसरेको भगवान्के तत्त्व? रहस्य? गुण? प्रभाव आदि जनाते हैं तो एक विलक्षण सत्सङ्ग होता है (टिप्पणी प0 546.1)। जब वे आपसमें भावपूर्वक बातें करते हैं? तब उनके भीतर भगवत्सम्बन्धी विलक्षणविलक्षण बातें स्वतः आने लगती हैं। जैसे दीपकके नीचे अँधेरा रहता है? पर दो दीपक एकदूसरेके सामने रख दें तो दोनों दीपकोंके नीचेका अँधेरा दूर हो जाता है। ऐसे ही जब दो भगवद्भक्त एक साथ मिलते हैं और आपसमें भगवत्सम्बन्धी बातें चल पड़ती हैं? तब किसीके मनमें किसी,तरहका भगवत्सम्बन्धी विलक्षण पैदा होता है तो वह उसे प्रकट कर देता है तथा दूसरेके मनमें और तरहका भाव पैदा होता है तो वह भी उसे प्रकट कर देता है। इस प्रकार आदानप्रदान होनेसे उनमें नयेनये भाव प्रकट होते रहते हैं। परन्तु अकेलेमें भगवान्का चिन्तन करनेसे उतने भाव प्रकट नहीं होते। अगर भाव प्रकट हो भी जायँ तो अकेले अपने पास ही रहते हैं? उनका आदानप्रदान नहीं होता।कथयन्तश्च माम् -- उनको भगवान्की कथालीला सुननेवाला कोई भगवद्भक्त मिल जाता है? तो वे भगवान्की कथालीला कहना शुरू कर देते हैं। जैसे सनकादि चारों भगवान्की कथा कहते हैं और सुनते हैं। उनमें कोई एक वक्ता बन जाता है और तीन श्रोता बन जाते हैं। ऐसे ही भगवान्के प्रेमी भक्तोंको कोई सुननेवाला मिल जाता है तो वे उसको भगवान्की कथा? गुण? प्रभाव? रहस्य आदि सुनाते हैं और कोई सुनानेवाला मिल जाता है तो स्वयं सुनने लग जाते हैं। परन्तु उनमें सुनाते समय वक्ता बननेका अभिमान नहीं होता और सुनते समय श्रोता बननेकी लज्जा नहीं होती।नित्यं तुष्यन्ति च -- इस तरह भगवान्की कथा? लीला? गुण? प्रभाव? रहस्य आदिको आपसमें एकदूसरेको जनाते हुए और उनका ही कथन तथा चिन्तन करते हुए वे भक्त नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं। तात्पर्य है कि उनकी सन्तुष्टिका कारण भगवान्के सिवाय दूसरा कोई नहीं रहता? केवल भगवान् ही रहते हैं।रमन्ति च -- वे भगवान्में ही रमण अर्थात् प्रेम करते हैं। इस प्रेममें उनमें और भगवान्में भेद नहीं रहता -- तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् (नारदभक्तिसूत्र 41)। कभी भक्त भगवान्का भक्त हो जाता है? तो कभी भगवान् अपने भक्तके भक्त बन जाते हैं (टिप्पणी प0 546.2)। इस तरह भगवान् और भक्तमें परस्पर प्रेमकी लीला अनन्तकालतक चलती ही रहती है? और प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है।इस वर्णनसे साधकको इस बातकी तरफ ध्यान देना चाहिये कि उसकी हरेक क्रिया? भाव आदिका प्रवाह केवल भगवान्की तरफ ही हो। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भक्तोंके द्वारा होनेवाले भजनका प्रकार बताकर अब आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् उनपर विशेष कृपा करनेकी बात बताते हैं।
।।10.9।। जब मन सुगठित और एकाग्र होता है? तभी साधक उस मन के द्वारा परमात्मा का ध्यान सफलतापूर्वक कर सकता है। ध्येय से भिन्न विषय का विचार उठने पर यह एकाग्रता भंग हो जाती है। विद्युत् के सभी उपकरणों में विद्युत् शक्ति देखने? अथवा मिट्टी से बने घटों में मिट्टी को पहचानने में हमें कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती अथवा कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता? क्योंकि उनका हमें दृढ़ ज्ञान होता है। इसी प्रकार? एक बार निश्चयात्मक रूप से यह जान लेने पर कि ईश्वर और जीव का वास्तविक स्वरूप एक चैतन्य आत्मा ही है? मन में किसी भी प्रकार की वृत्ति उठने पर भी सत्य के साधक को इस आत्मा का भान बनाये रखने में कोई कठिनाई नहीं होती। इस्ा आशय को यहाँ मच्चिता इस शब्द से स्पष्ट किया गया है।समस्त प्राणों अर्थात् इन्द्रियों को मुझमें अर्पित करके (मद्गतप्राणा) प्राण शब्द से केवल प्राणवायु से ही तात्पर्य नहीं समझना चाहिए। प्राणियों के शरीर में होने वाली पाचनादि क्रियाओं को प्राण शब्द से दर्शाया जाता है। किन्तु यहाँ इस शब्द का प्रयोग मुख्यत पाँच ज्ञानेन्द्रियों को सूचित करने के लिए किया गया है। ये इन्द्रियाँ ही वे पाँच द्वार या वातायन हैं? जिनके द्वारा मन बाह्य विषयों में विचरण करता है और इनके माध्यम से ही जगत् के विषय मन में प्रवेश करते हैं। वेदान्त कभी भी इन विषयों से पलायन का उपदेश नहीं देता। इस जगत् में जीते हुए विषयों से पलायन कदापि सम्भव नहीं हो सकता। ज्ञानमार्ग विवेकपूर्ण विचार का मार्ग है। इसमें विवेक के द्वारा मन को इस प्रकार संयमित और प्रशिक्षित किया जाता है कि जब कभीभी बाह्य विषय मन पर अपना प्रभाव डालते हैं? तत्काल ही साधक को अपने उस आत्मस्वरूप का स्मरण हो जाता है? जिसके बिना वे विषय कभी प्रकाशित नहीं हो सकते थे।परस्पर चर्चा करते हुए किसी एक विषय में समान बौद्धिक रुचि के विद्यार्थीगण जब आपस में उस विषय की चर्चा करते हैं? तब न केवल वे अपने ज्ञान को स्पष्टत व्यक्त करते हैं? वरन् इस प्रक्रिया में उनका ज्ञान दृ88ढ़ निश्चयात्मक रूप भी ले लेता है जो प्रारम्भ में केवल पुस्तकीय ज्ञान ही था। परिसंवाद की इस सर्वविदित पद्धति का वेदान्त में अथक रूप से अनुमोदन एवं उपदेश दिया गया है। वेदान्त में इसका नाम है ब्रह्माभ्यास जो साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।अध्यात्म का सच्चा साधक वही है? जो अपने मन और इन्द्रियों की सभी प्रकार की क्रियाओं में आत्मा का स्मरण बनाये रखता है। इसका एक उपाय है आत्म विषय में अन्य साधकजनों के साथ चर्चा एवं निदिध्यासन। ऐसे साधक साधना के फलस्वरूप उस परम आनन्द को प्राप्त करते हैं? जो उनके जीवन रथ के चक्रों के लिए पथरीले मार्ग पर सरलता से अग्रसर होने के लिए चिकने तेल का काम करता है और यात्रा को सुगम बना देता है। तुष्यन्ति और रमन्ति के भाव को ही उपनिषदों में सुन्दर प्रकार से क्रीडन्ति और रमन्ति शब्दों के द्वारा इंगित किया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं कि पूर्णत्व का साधक जब विचार मार्ग पर अग्रसर होता है तब उसी समय उसे सन्तोष और रमण का अनुभव होता है। सन्तोष और आनन्द से मन में ऐसा सुन्दर वातावरण निर्मित होता है? जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यन्त अनुकूल बनकर साधक की सफलता निश्चित कर देता है। सदैव असन्तुष्ट? शोक मनाने वाले मानसिक स्तब्धता और बौद्धिक दरिद्रता का चित्र प्रस्तुत करने वाले साधक कदापि अपने इस परम आनन्दस्वरूप में प्रवेश नहीं कर सकते हैं।प्रगति की इस सीमा तक पहुँचने पर साधकों को कहाँ से मार्गदर्शन और बल मिलता है जिससे वे अपनी यात्रा के लक्ष्य तक पहुँचते हैं इसका उत्तर है --
10.9 With minds fixed on Me, with lives dedicated to Me, enlightening each other, and always speaking of Me, they derive satisfaction and rejoice.
10.9 With their mind and their life wholly absorbed in Me, enlightening each other and ever speaking of Me, they are satisfied and delighted.
10.9. Having their mind fixed on Me, their life gone into Me, enlightening each other, and constantly talking of Me, they are pleased and are delighted.
10.9 मच्चित्ताः with their minds wholly in Me? मद्गतप्राणाः with their life absorbed in Me? बोधयन्तः,enlightening? परस्परम् mutually? कथयन्तः speaking of? च and? माम् Me? नित्यम् always? तुष्यन्ति are satisfied? च and? रमन्ति (they) are delighted? च and.Commentary The characteristics of a devotee who has attained the realisation of oneness are described in this verse. The devotee constantly thinks of the Lord. His very life is absorbed in Him. He has consecrated his whole life to the Lord. According to another interpretation? all his senses (which function because of the Prana)? such as the eye are absorbed in Him. He takes immense delight in talking about Him? about His supreme wisdom? power? might and other attributes. He has completely dedicated himself to the Lord.He feels intense satisfaction and is delighted as if he is in the company of his Beloved (God). The Purana says? The sum total of the sensual pleasures of this world and also all the great pleasures of the divine regions (heavens) are not worth a sixteenth part of that bliss which proceeds from the eradication of desires and cravings. (Cf.XII.8)
10.9 Maccittah, with minds fixed on Me; mad-gata-pranah, with lives (pranas) dedicated to Me, or having their organs, eyes etc. absorbed in Me, i.e. having their organs withdrawn into Me; bodhayantah, enlightening; parasparam, each other; and nityam, always; kathayantah, speaking of; mam, Me, as possessed of alities like knowledge, strength, valour, etc; tusyanti, they derive satisfaction; and ramanti, rejoice, get happiness, as by coming in contact with a dear one.
10.9 See Comment under 10.11
10.9 They live with their minds focussed on Me, namely, with their minds fixed on Me; with their Pranas, i.e., life, centred on Me - the meaning is that they are unable to sustain themselves without Me. They inspire one another by speaking about My attributes which have been experienced by them and narrating My divine and adorable deeds. They live in contentment and bliss at all times. The speakers are delighted by their own speech, because it is spontaneous, without any ulterior motive; the listeners too feel the speech to be unsurpassingly and incomparably dear to them. They thus live in bliss.
Such ananya bhaktas, who have attained buddhi yoga by my mercy, attain that knowledge of me mentioned previously, which is hard to understand. Their minds are greedy for my form, name, qualities pastimes and the taste of sweetness (mac cittah). They are unable to maintain their life without me (mad gata pranah), just as men are completely dedicated to food (anna gata prana nara), since they depend on it to live. They explain to each other with friendliness about the types of bhakti and the real nature of bhakti (bodhayantah). They talk about me, a great ocean of very sweet form, qualities and pastimes (kathayantah). They glorify me by narrating about my form, qualities and pastimes. Since smarana (mac cittah), sravana (bodhayantah) and kirtana (kathayantah) are best among all types of bhakti, they have been specifically mentioned. Thus these bhaktas are satisfied and enjoy. This is private or internal experience. Or the meaning of “satisfaction and enjoyment” can be as follows. They are satisfied even at the stage of sadhana, by continual performance of their worship brought about by good fortune, and they take pleasure in thinking of their future attainment of prema, and enjoy with their Lord through the mind. This indicates raganuga bhakti.
The worship being explained here is bhakti or exclusive loving devotion. The words mac-citta means those who hearts are dedicated unto the Supreme Lord alone. Whose mind and senses are also totally directed to Him solely. The word mad-gatah-pranah means those who have dedicated their lives to the Supreme Lord Krishna. Such spiritually intelligent beings reflect upon His phenomenal glories, incessantly relishing His lilas or divine pastimes and enlightening each other of their reflections and experiences in their internal mood of loving devotion to Him and enjoy sublime, transcendental bliss.
The words mad-gata-prana means that one surrenders their very life to Lord Krishna, meaning that all their thoughts and actions are directed for His satisfaction exclusively.
The words mac-citta means those who devote their hearts on Lord Krishna. The words mad-gata-prana means those whose lives cannot exist without Lord Krishna. Such great beings constantly enlighten each other about His transcendental attributes and extraordinary lilas or divine pastimes and exchange bliss by relating the realisations they have experienced from such. The sense of satisfaction from the mere conversation about Lord Krishna makes them so blissful that there contentment is permanent and needs nothing else to complete it. Furthermore simply hearing about Lord Krishnas lilas causes these devotees to become ecstatic, exhibiting a rapturous and exultant glow of love.
The words mac-citta means those who devote their hearts on Lord Krishna. The words mad-gata-prana means those whose lives cannot exist without Lord Krishna. Such great beings constantly enlighten each other about His transcendental attributes and extraordinary lilas or divine pastimes and exchange bliss by relating the realisations they have experienced from such. The sense of satisfaction from the mere conversation about Lord Krishna makes them so blissful that there contentment is permanent and needs nothing else to complete it. Furthermore simply hearing about Lord Krishnas lilas causes these devotees to become ecstatic, exhibiting a rapturous and exultant glow of love.
Macchittaa madgatapraanaa bodhayantah parasparam; Kathayantashcha maam nityam tushyanti cha ramanti cha.
mat-chittāḥ—those with minds fixed on me; mat-gata-prāṇāḥ—those who have surrendered their lives to me; bodhayantaḥ—enlightening (with divine knowledge of God); parasparam—one another; kathayantaḥ—speaking; cha—and; mām—about me; nityam—continously; tuṣhyanti—satisfaction; cha—and; ramanti—(they) delight; cha—also