अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।11.16।।
।।11.16।। हे विश्वेश्वर मैं आपकी अनेक बाहु? उदर? मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि को।।
।।11.16।। विश्वरूप के अनन्त वैभव को एक ही दृष्टिक्षेप में देख पाने के लिए मानव की परिच्छिन्न बुद्धि उपयुक्त साधन नहीं है। इस रूप के परिमाण की विशालता और उसके गूढ़ अभिप्राय से ही मनुष्य की? बुद्धि निश्चय ही? लड़खड़ाकर रह जाती है। भगवान् ही वह एकमेव सत्य तत्त्व हैं जो सभी प्राणियों की कर्मेन्द्रियों के पीछे चैतन्य रूप से विद्यमान हैं। अर्जुन इसे इन शब्दों में सूचित करता है कि मैं आपको अनेक बाहु? उदर? मुख और नेत्रों से युक्त सर्वत्र अनन्तरूप में देखता हूँ। इसे सत्य का व्यंग्यचित्र नहीं समझ लेना चाहिये। सावधानी की सूचना उन शीघ्रता में काम आने वाले चित्रकारों के लिए आवश्यक है? जो इस विषयवस्तु से स्फूर्ति और प्रेरणा पाकर इस विराट् रूप को अपने रंगों और तूलिका के द्वारा चित्रित करना चाहते हैं और अपने प्रयत्न में अत्यन्त दयनीय रूप से असफल होते हैं।विश्व की एकता कोई दृष्टिगोचर वस्तु नहीं है यह साक्षात्कार के योग्य एक सत्य तथ्य है। इस तथ्य की पुष्टि अर्जुन के इन शब्दों से होती है कि मैं न आपके अन्त को देखता हूँ? और न मध्य को और न आदि को। विराट् पुरुष का वर्णन इससे और अधिक अच्छे प्रकार से नहीं किया जा सकता था।उपर्युक्त ये श्लोक सभी परिच्छिन्न वस्तुओं के और मरणशील प्राणियों में सूत्र रूप से व्याप्त उस एकत्व का दर्शन कराते हैं? जिसने उन्हें इस विश्वरूपी माला के रूप मे धारण किया हुआ हैअर्जुन आगे कहता है