भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।11.2।।
।।11.2।।हे कमलनयन सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलय मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुना है और आपका अविनाशी माहात्म्य भी सुना है।
।।11.2।। व्याख्या -- भवाप्ययौ हि भूतानां त्वत्तः श्रुतौ विस्तरशो मया -- भगवान्ने पहले कहा था -- मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय हूँ? मेरे सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है (7। 6 7) सात्त्विक? राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (7। 12) प्राणियोंके अलगअलग अनेक तरहके भाव मेरेसे ही होते हैं (10। 4 5) सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही होते हैं और मेरेसे ही सब चेष्टा करते हैं (10। 8) प्राणियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ (10। 20) और सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ (10। 32)। इसीको लेकर अर्जुन यहाँ कहते हैं कि मैंने आपसे प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयका वर्णन विस्तारसे सुना है। इसका तात्पर्य प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाश सुननेसे नहीं है? प्रत्युत इसका तात्पर्य यह सुननेसे है कि सभी प्राणी आपसे ही उत्पन्न होते हैं? आपमें ही रहते हैं और आपमें ही लीन हो जाते हैं अर्थात् सब कुछ आप ही हैं।माहात्म्यमपि चाव्ययम् -- आपने दसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें बताया कि मेरी विभूति और योगको जो,तत्त्वसे जानता है? वह अविकम्प भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इस प्रकार आपकी विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेका माहात्म्य भी मैंने सुना है।माहात्म्यको अव्यय कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्की विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेपर भगवान्में जो भक्ति होती है? प्रेम होता है? भगवान्से अभिन्नता होती है? वह सब अव्यय है। कारण कि भगवान् अव्यय? नित्य हैं तो उनकी भक्ति? प्रेम भी अव्यय ही होगा। सम्बन्ध -- अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन विराट्रूपके दर्शनके लिये भगवान्से प्रार्थना करते हैं।