द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।11.20।।
।।11.20।।हे महात्मन् यह स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका अन्तराल और सम्पूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत और उग्ररूपको देखकर तीनों लोक व्यथित (व्याकुल) हो रहे हैं।
।।11.20।। हे महात्मन् स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं।।
।।11.20।। व्याख्या -- महात्मन् -- इस सम्बोधनका तात्पर्य है कि आपके स्वरूपके समान किसीका स्वरूप हुआ नहीं? है नहीं? होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये आप महात्मा अर्थात् महान् स्वरूपवाले हैं।द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः -- स्वर्ग और पृथ्वीके बीचमें जितना अवकाश है? पोलाहट है? वह सब पोलाहट आपसे परिपूर्ण हो रही है।पूर्व? पश्चिम? उत्तर और दक्षिण पूर्वउत्तरके बीचमें ईशान? उत्तरपश्चिमके बीचमें वायव्य? पश्चिमदक्षिणके बीचमें नैऋर््त्य और दक्षिणपूर्वके बीचमें आग्नेय तथा ऊपर और नीचे -- ये दसों दिशाएँ आपसे व्याप्त हैं अर्थात् इन सबमें आपहीआप विराजमान हैं।दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितम् -- [उन्नीसवें श्लोकमें तथा बीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें उग्ररूपका वर्णन करके अब बीसवें श्लोकके उत्तरार्धसे बाईसवें श्लोकतक अर्जुन उग्ररूपके परिणामका वर्णन करते हैं -- ] आपके इस अद्भुत? विलक्षण? अलौकिक? आश्चर्यजनक? महान् देदीप्यमान और भयंकर उग्ररूपको देखकर स्वर्ग? मृत्यु और पाताललोकमें रहनेवाले सभी प्राणी व्यथित हो रहे हैं? भयभीत हो रहे हैं।यद्यपि इस श्लोकमें स्वर्ग और पृथ्वीकी ही बात आयी है (द्यावापृथिव्योः)? तथापि अर्जुनद्वारा लोकत्रयम् कहनेके अनुसार यहाँ पाताल भी ले सकते हैं। कारण कि अर्जुनकी दृष्टि भगवान्के शरीरके किसी एक देशमें जा रही है और वहाँ अर्जुनको जो दीख रहा है? वह दृश्य कभी पातालका है? कभी मृत्युलोकका है और कभी स्वर्गका है। इस तरह अर्जुनकी दृष्टिके सामने सब दृश्य बिना क्रमके आ रहे हैं (टिप्पणी प0 586.2)।,यहाँपर एक शङ्का होती है कि अगर विराट्रूपको देखकर त्रिलोकी व्यथित हो रही है? तो दिव्यदृष्टिके बिना त्रिलोकीने विराट्रूपको कैसे देखा भगवान्ने तो केवल अर्जुनको दिव्यदृष्टि दी थी। त्रिलोकीको विराट्रूप देखनेके लिये दिव्यदृष्टि किसने दी कारण कि प्राकृत चर्मचक्षुओंसे यह विराट्रूप नहीं देखा जा सकता? जबकि विश्वमिदं तपन्तम् (11। 19) और लोकत्रयं प्रव्यथितम् पदोंसे विराट्रूपको देखकर त्रिलोकीके संतप्त और व्यथित होनेकी बात अर्जुनने कही है।इसका समाधान यह है कि संतप्त और व्यथित होनेवाली त्रिलोकी भी उस विराट्रूपके अन्तर्गत ही है अर्थात् विराट्रूपका ही अङ्ग है। सञ्जयने और भगवान्ने विराट्रूपको एक देशमें देखनेकी बात (एकस्थम्) कही? पर अर्जुनने एक देशमें देखनेकी बात नहीं कही। कारण कि विराट्रूप देखते हुए भगवान्के शरीरकी तरफ अर्जुनका खयाल ही नहीं गया। उनकी दृष्टि केवल विराट्रूपकी तरफ ही बह गयी। जब सारथिरूप भगवान्के शरीरकी तरफ भी अर्जुनकी दृष्टि नहीं गयी? तब संतप्त और व्यथित होनेवाले इस लौकिक संसारकी तरफ अर्जुनकी दृष्टि कैसे जा सकती है इससे सिद्ध होता है कि संतप्त होनेवाला और संतप्त करनेवाला तथा व्यथित होनेवाला और व्यथित करनेवाला -- ये चारों उस विराट्रूपके ही अङ्ग हैं। अर्जुनको ऐसा दीख रहा है कि त्रिलोकी विराट्रूपको देखकर व्यथित? भयभीत हो रही है? पर वास्तवमें (विराट्रूपके अन्तर्गत) भयानक सिंह? व्याघ्र? साँप आदि जन्तुओंको और मृत्युको देखकर त्रिलोकी भयभीत हो रही है।मार्मिक बातदेखने? सुनने और समझनेमें आनेवाला सम्पूर्ण संसार भगवान्के दिव्य विराट्रूपका ही एक छोटासा अङ्ग है। संसारमें जो जडता? परिवर्तनशीलता? अदिव्यता दीखती है? वह वस्तुतः दिव्य विराट्रूपकी ही एक झलक है? एक लीला है। विराट्रूपकी जो दिव्यता है? उसकी तो स्वतन्त्र सत्ता है? पर संसारकी जो अदिव्यता है? उसकी स्ववतन्त्र सत्ता नहीं है। अर्जुनको तो दिव्यदृष्टिसे भगवान्का विराट्रूप दीखा? पर भक्तोंको भावदृष्टिसे यह संसार भगवत्स्वरूप दीखता है -- वासुदेवः सर्वम्। तात्पर्य है कि जैसे बचपनमें बालकका,कंकड़पत्थरोंमें जो भाव रहता है? वैसा भाव बड़े होनेपर नहीं रहता बड़े होनेपर कंकड़पत्थर उसे आकृष्ट नहीं करते? ऐसे ही भोगदृष्टि रहनेपर संसारमें जो भाव रहता है? वह भाव भोगदृष्टिके मिटनेपर नहीं रहता।जिनकी भोगदृष्टि होती है? उनको तो संसार सत्य दीखता है? पर जिनकी भोगदृष्टि नहीं है? ऐसे महापुरुषोंको संसार भगवत्स्वरूप ही दीखता है। जैसे एक ही स्त्री बालकको माँके रूपमें? पिताको पुत्रीके रूपमें? पतिको पत्नीके रूपमें और सिंहको भोजनके रूपमें दीखती है? ऐसे ही यह संसार चर्मदृष्टिसे सच्चा? विवेकदृष्टिसे परिवर्तनशील? भावदृष्टिसे भगवत्स्वरूप और दिव्यदृष्टिसे विराट्रूपका ही एक छोटासा अङ्ग दीखता है। सम्बन्ध -- अब अर्जुनकी दृष्टिके सामने (विराट्रूपमें) स्वर्गादि लोकोंका दृश्य आता है और वे उसका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।11.20।। विराट् पुरुष समस्त जगत् को व्याप्त किये हुए है? और देशकाल का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वे भी इस सत्य पर ही आश्रित हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ वर्णित विषयवस्तु अनन्त है? सनातन है। इसीलिए यहाँ अर्जुन कहता है? अकेले आपके द्वारा स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का आकाश और समस्त दिशाएं व्याप्त हैं।विश्व की एकता को सरलता से ग्रहण नहीं किया जा सकता। जो जितना ही अधिक उसे समझता है? उसका वर्णन करने में उतना ही अधिक वह लड़खड़ाता है। इतने विशाल और भव्य सत्य को देखकर परिच्छिन्न बुद्धि का कम्पित हो जाना स्वाभाविक ही है।अर्जुन कहता है? इस अद्भुत और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक भय कम्पित हो रहे हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जगत् को उसी रूप में देखता है जैसा कि वह स्वयं होता है। यथा दृष्टि तथा सृष्टि। विराट् का दर्शन करके अर्जुन भयभीत हुआ और उस मनस्थिति में जब वह जगत् को देखता है? तो तीनों लोक भी विस्मित और भय कम्पित दिखाई देते हैं। व्यासजी की यह विशेषता है कि विशाल और गम्भीर विषयवस्तु के वर्णन में व्यस्त होते हुए भी वे मनुष्य के मूलभूत आचरण को भूलते नहीं हैं और उनके ये सूक्ष्म निरीक्षण ही इस अतुलनीय सौन्दर्य और अपरिमेय गम्भीर चित्र को वास्तविकता की आभा प्रदान करते हैं।