नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।।11.24।।
।।11.24।। हे विष्णो आकाश के साथ स्पर्श किये हुए देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा विस्तरित मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत हुआ मैं धैर्य और शान्ति को नहीं प्राप्त हो रहा हूँ।।
।।11.24।। अर्जुन द्वारा अनुभव किया गया यह आसाधारण अद्भुत और उग्र दृश्य किसी एक स्थान पर केन्द्रित नहीं किया जा सकता था। वस्तुत? वह सर्वव्यापकता की सीमा तक फैला हुआ था। परन्तु? अर्जुन ने अपनी आन्तरिक दृष्टि में उसे एक परिच्छिन्न रूप और निश्चित आकार में देखा। अरूप गुणों (जैसे स्वतन्त्रता? प्रेम? राष्ट्रीयता इत्यादि) को जब भी हम बौद्धिक दृष्टि से समझते हैं? तब हम उसे एक निश्चित आकार प्रदान करते हैं? जो स्वयं के ज्ञान के लिए ही होता है? परन्तु कदापि इन्द्रियगोचर नहीं होता। इसी प्रकार? यद्यपि विराट् रूप तो विश्वव्यापी है? परन्तु अर्जुन को ऐसा अनुभव होता है? मानो? उसका कोई आकार विशेष है। किन्तु? पुन जब वह इस अनुभूत दृश्य का वर्णन करने का प्रयत्न करता है? तो उसके वचन उसकी ही भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते और उसका अपना प्रयोजन ही सिद्ध नहीं हो पाता है।अर्जुन देखता है कि समस्त लोक उस विराट् पुरुष को देखकर भयभीत हो रहे हैं? जिसमें? बहुत मुख? नेत्र? बहुत बाहु? उरु और पैरों वाले? बहुत उदरों वाले आदि रूप हैं और वह कहता है? मैं भी भयभीत हो रहा हूँ। यह भी सबने अनुभव किया होगा कि यदि हम किसी उत्तेजित जनसमुदाय के मध्य अथवा सत्संग में होते हैं? तब वहाँ के वातावरण का हमारे मन पर भी उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है। सब लोक भयभीत हुये हैं? और अर्जुन स्वीकार करता है कि? मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।अपनी ही स्वीकारोक्ति के बाद उसे यह भय लगना एक क्षत्रिय पुरुष के लिए अपमानजनक और कायरता का लक्षण जान पड़ा। इसलिए? अपने भय को उचित सिद्ध करने के लिए वह उस भयंकर रूप को अनन्तरूप अर्थात् रूपविहीन बताते हुए कहता है कि विश्वरूप अपने में सबको समेटे हुए है। यह विराट् रूप आकाश को स्पर्श कर रहा है। असंख्य वर्णों से वह दीप्तमान हो रहा है। उसके विशाल आग्नेय नेत्र चमक रहे हैं। उसका मुख सबका भक्षण कर रहा है। यह सब सम्मिलित रूप में देवताओं के साहस को भी डगमगा देने वाला है। अर्जुन यह भी स्वीकार करता है कि इस रूप के दर्शन से मैं भयभीत हूँ मुझे न धैर्य प्राप्त हो रहा है और न शान्ति। यहाँ ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार के संवेदनाशून्य भय की स्थिति में वह विश्वरूप को? हे विष्णो कहकर सम्बोधित करता है।जैसा कि मैनें प्रारम्भ में कहा है अर्जुन की अर्न्तदृष्टि में अत्यन्त स्पष्ट अनुभव हो रहा विराट् रूप? वस्तुत अनन्त परमात्मा का इस विश्व के नाम और रूपों के असीम विस्तार की दृष्टि से किया गया वर्णन है। गीता के विद्यार्थियों को इन सूक्ष्म विचारधाराओं का विस्मरण नहीं होने देना चाहिए जिन्हें व्यासजी ने परिश्रमी और लगनशील साधकों के लाभ के लिए गुप्त रख छोड़ा है अपने भय का कारण बताते हुए अर्जुन कहता है