नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।।11.24।।
।।11.24।।हे विष्णो आपके अनेक देदीप्यमान वर्ण हैं? आप आकाशको स्पर्श कर रहे हैं? आपका मुख फैला हुआ है? आपके नेत्र प्रदीप्त और विशाल हैं। ऐसे आपको देखकर भयभीत अन्तःकरणवाला मैं धैर्य और शान्तिको भी प्राप्त नहीं हो रहा हूँ।
।।11.24।। व्याख्या -- [बीसवें श्लोकमें तो अर्जुनने विराट्रूपकी लम्बाईचौड़ाईका वर्णन किया? अब यहाँ केवल लम्बाईका वर्णन करते हैं।]विष्णो -- आप साक्षात् सर्वव्यापक विष्णु हैं? जिन्होंने पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये कृष्णरूपसे अवतार लिया है।दीप्तमनेकवर्णम् -- आपके काले? पीले? श्याम? गौर आदि अनेक वर्ण हैं? जो बड़े ही देदीप्यमान हैं।नभः स्पृशम् -- आपका स्वरूप इतना लम्बा है कि वह आकाशको स्पर्श कर रहा है।वायुका गुण होनेसे स्पर्श वायुका ही होता है? आकाशका नहीं। फिर यहाँ आकाशको स्पर्श करनेका तात्पर्य क्या है मनुष्यकी दृष्टि जहाँतक जाती है? वहाँतक तो उसको आकाश दीखता है? पर उसके आगे कालापन दिखायी देता है। कारण कि जब दृष्टि आगे नहीं जाती? थक जाती है? तब वह वहाँसे लौटती है? जिससे आगे कालापन दीखता है। यही दृष्टिका आकाशको स्पर्श करना है। ऐसे ही अर्जुनकी दृष्टि जहाँतक जाती है? वहाँतक उनको भगवान्का विराट्रूप दिखायी देता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्का विराट्रूप असीम है? जिसके सामने दिव्यदृष्टि भी सीमित ही है।व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् -- जैसे कोई भयानक जन्तु किसी जन्तुको खानेके लिये अपना मुख फैलाता है? ऐसे ही मात्र विश्वको चट करनेके लिये आपका मुख फैला हुआ दीख रहा है।आपके नेत्र बड़े ही देदीप्यमान और विशाल दीख रहे हैं।दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो -- इस तरह आपको देखकर मैं भीतरसे बहुत व्यथित हो रहा हूँ। मेरेको कहींसे भी धैर्य नहीं मिल रहा है और शान्ति भी नहीं मिल रही है।यहाँ एक शङ्का होती है कि अर्जुनमें एक तो खुदकी सामर्थ्य है और दूसरी? भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य (दिव्यदृष्टि) है। फिर भी अर्जुन तो विश्वरूपको देखकर डर गये? पर सञ्जय नहीं डरे। इसमें क्या कारण है सन्तोंसे ऐसा सुना है कि भीष्म? विदुर? स़ञ्जय और कुन्ती -- ये चारों भगवान् श्रीकृष्णके तत्त्वको विशेषतासे जाननेवाले थे। इसलिये सञ्जय पहलेसे ही भगवान्के तत्त्वको? उनके प्रभावको जानते थे? जब कि अर्जुन भगवान्के तत्त्वको उतना नहीं जानते थे। अर्जुनका विमूढ़भाव (भाव) अभी सर्वथा दूर नहीं हुआ था (गीता 11। 49)। इस विमूढ़भावके कारण अर्जुन भयभीत हुए। परन्तु सञ्जय भगवान्के तत्त्वको जानते थे अर्थात् उनमें विमूढ़भाव नहीं था अतः वे भयभीत नहीं हुए।उपर्युक्त विवेचनसे एक बात सिद्ध होती है कि भगवान् और महापुरुषोंकी कृपा विशेषरूपसे अयोग्य मनुष्योंपर होती है? पर उस कृपाको विशेषरूपसे योग्य मनुष्य ही जानते हैं। जैसे छोटे बच्चेपर माँका अधिक स्नेह होता है? पर बड़ा लड़का माँको जितना जानता है? उतना छोटा बच्चा नहीं जानता। ऐसे ही भोलेभाले? सीधेसादे व्रजवासी? ग्वालबाल? गोपगोपी और गाय -- इनपर भगवान् जितना अधिक स्नेह करते हैं? उतना स्नेह जीवन्मुक्त महापुरुषोंपर नहीं करते। परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुष ग्वालबाल आदिकी अपेक्षा भगवान्को विशेषरूपसे जानते हैं। सञ्जयने विश्वरूपके लिये प्रार्थना भी नहीं की और विश्वरूपको देख लिया। परन्तु विश्वरूप देखनेके लिये अर्जुनको स्वयं भगवान्ने ही उत्कण्ठित किया और अपना विश्वरूप भी दिखाया क्योंकि सञ्जयकी अपेक्षा भगवान्के तत्त्वको जाननेमें अर्जुन छोटे थे और भगवान्के साथ सखाभाव रखते थे। इसलिये अर्जुनपर भगवान्की कृपा अधिक थी। इस कृपाके कारण अन्तमें अर्जुनका मोह नष्ट हो गया -- नष्टो मोहः ৷৷. त्वत्प्रसादात् (गीता 18। 73)। इससे सिद्ध होता है कि कृपापात्रका मोह अन्तमें नष्ट हो ही जाता है।