दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.25।।
।।11.25।। आपके विकराल दाढ़ों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर? मैं न दिशाओं को जान पा रहा हूँ और न शान्ति को प्राप्त हो रहा हूँ इसलिए हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न हो जाइए।।
।।11.25।। जैसा कि श्लोक में वर्णन किया गया है? अर्जुन ऐसे भयंकर रूप को देखकर अपना धैर्य और सुख खो रहा है। सर्वभक्षी? सबको एक रूपकर देने वाले काल का यह चित्र है। जब दृष्टि के समक्ष ऐसा विशाल दृश्य उपस्थित हो जाता है? और वह भी इतने आकस्मिक रूप से? तो विशालता का उसका परिमाण ही विवेकशक्ति का मानो गला घोंट देता है और क्षणभर के लिए वह व्यक्ति संवेदनाशून्य हो जाता है। भ्रान्तिजन्य दुर्व्यवस्था की दशा को यहाँ इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि? मैं दिशाओं को नहीं जान पा रहा हूँ। बात यहीं पर नहीं समाप्त होती। मैं न धैर्य रख पा रहा हूँ और न शान्ति,को भी।आत्यन्तिक विस्मय की इस स्थिति में आश्चर्यचकित मानव यह अनुभव करता है कि उसकी शारीरिक शक्ति? मानसिक क्षमतायें और बुद्धि की सूक्ष्मदर्शिता अपने भिन्नभिन्न रूप में तथा सामूहिक रूप में भी वस्तुत महत्त्वशून्य साधन हैं। छोटा सा अहंकार अपने मिथ्या अभिमान के आवरण और मिथ्या शक्ति के कवच को त्यागकर पूर्ण विवस्त्र हुआ स्वयं को नम्र भाव से समष्टि की शक्ति के समक्ष समर्पित कर देता है। परम दिव्य? समष्टि शक्ति के सम्मुख जिस व्यक्ति ने पूर्णरूप से अपने खोखले अभिमानों की अर्थशून्यता समझ ली है? उसके लिए केवल एक आश्रय रह जाता है? और वह है प्रार्थना।इस श्लोक के अन्त में अर्जुन प्रार्थना करता है? हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न हो जाइये। इस प्रार्थना के द्वारा व्यासजी यह दर्शाते हैं कि मान और दम्भ से पूर्ण हृदय वाले व्यक्ति के द्वारा कभी भी वास्तविक प्रार्थना नहीं की जा सकती है। जब व्यक्ति इस विशाल समष्टि विश्व में अपनी तुच्छता समझता है? केवल तभी वह सच्चे हृदय से स्वत प्रार्थना करता है।अर्जुन इस युद्ध में अपनी विजय के प्रति सशंक था। 21वें श्लोक से प्रारम्भ किये गये इस प्रकरण का मुख्य उद्देश्य अर्जुन को भावी घटनाओं का कुछ बोध कराना है। उसे युद्ध के परिणाम के प्रति आश्वस्त करते हुए? अब भगवान् सीधे ही सेनाओं के योद्धाओं को काल के मुख में प्रवेश करते हुए दिखाते हैं