यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुद्रमेवाभिमुखाः द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।11.28।।
।।11.28।।जैसे नदियोंके बहुतसे जलके प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्रके सम्मुख दौड़ते हैं? ऐसे ही वे संसारके महान् शूरवीर आपके प्रज्वलित मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।
।।11.28।। जैसे नदियों के बहुत से जलप्रवाह समुद्र की ओर वेग से बहते हैं? वैसे ही मनुष्यलोक के ये वीर योद्धागण आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश करते हैं।।
।।11.28।। व्याख्या -- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति -- मूलमें जलमात्र समुद्रका है। वही जल बादलोंके द्वारा वर्षारूपमें पृथ्वीपर बरसकर झरने? नाले आदिको लेकर नदियोंका रूप धारण करता है। उन नदियोंके जितने वेग हैं? प्रवाह हैं? वे सभी स्वाभाविक ही समुद्रकी तरफ दौड़ते हैं। कारण कि जलका उद्गम स्थान समुद्र ही है। वे सभी जलप्रवाह समुद्रमें जाकर अपने नाम और रूपको छोड़कर अर्थात् गङ्गा? यमुना? सरस्वती आदि नामोंको और प्रवाहके रूपको छोड़कर समुद्ररूप ही हो जाते हैं। फिर वे जलप्रवाह समुद्रके सिवाय अपना कोई अलग? स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। वास्तवमें तो उनका स्वतन्त्र अस्तित्व पहले भी नहीं था? केवल नदियोंके प्रवाहरूपमें होनेके कारण वे अलग दीखते थे। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति -- नदियोंकी तरह मात्र जीव नित्य सुखकी अभिलाषाको लेकर परमात्माके सम्मुख ही दौड़ते हैं। परन्तु भूलसे असत्? नाशवान् शरीरके साथ सम्बन्ध मान लेनेसे वे सांसारिक संग्रह और संयोगजन्य सुखमें लग जाते हैं तथा अपना अलग अस्तित्व मानने लगते हैं। उन जीवोंमें वे ही वास्तविक शूरवीर हैं? जो सांसारिक संग्रह और सुखभोगोंमें न लगकर? जिसके लिये शरीर मिला है? उस परमात्मप्राप्तिके मार्गमें ही तत्परतासे लगे हुए हैं। ऐसे युद्धमें आये हुए भीष्म? द्रोण आदि नरलोकवीर आपके प्रकाशमय (ज्ञानस्वरूप) मुखोंमें प्रविष्ट हो रहे हैं।सामने दीखनेवाले लोगोंमें परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले लोग विलक्षण हैं और बहुत थोड़े हैं। अतः उनके लिये परोक्षवाचक अमी (वे) पद दिया गया है। सम्बन्ध -- जो राज्य और प्रशंसाके लोभसे युद्धमें आये हैं और जो सांसारिक संग्रह और भोगोंकी प्राप्तिमें लगे हुए हैं -- ऐसे पुरुषोंका विराट्रूपमें पंतगोंके दृष्टान्तसे प्रवेश करनेका वर्णन अर्जुन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।11.28।। समुद्र से मिलन के लिए आतुर? उसकी ओर वेग से बहने वाली नदियों की उपमा इस श्लोक में दी गई है। जिस स्रोत से नदी का उद्गम होता है? वहीं से उसे अपना विशेष व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है। किसी भी एक बिन्दु पर वह नदी न रुकती है और न आगे बढ़ने से कतराती ही है। अल्पमति का पुरुष यह कह सकता है कि नदी की प्रत्येक बूँद समीप ही किसी स्थान विशेष की ओर बढ़ रही है। परन्तु यथार्थवादी पुरुष जानता है कि सभी नदियां समुद्र की ओर ही बहती जाती हैं? और वे जब तक समुद्र से मिल नहीं जाती तब तक मार्ग के मध्य न कहीं रुक सकती हैं और न रुकेंगी। समुद्र के साथ एकरूप हो जाने पर विभिन्न नदियों के समस्त भेद समाप्त हाे जाते हैं।नदी के जल की प्रत्येक बूंद समुद्र से ही आयी है। प्रथम मेघ के रूप में वह ऊपर पर्वतशिखरों तक पहुंची और वहाँ वर्षा के रूप में प्रकट हुईनदी तट के क्षेत्रों को जल प्रदान करके खेतों को जीवन और पोषण देकर वे बूंदें वेगयुक्त प्रवाह के साथ अपने उस प्रभव स्थान में मिल जाती हैं? जहाँ से उन्होंने यह करुणा की उड़ान भरी थी। इसी प्रकार अपने समाज की सेवा और संस्कृति का पोषण करने तथा विश्व के सौन्दर्य की वृद्धि में अपना योगदान देने के लिए समष्टि से ही सभी व्यष्टि जीव प्रकट हुए हैं? परन्तु उनमें से कोई भी व्यक्ति अपनी इस तीर्थयात्रा के मध्य नहीं रुक सकता है। सभी को अपने मूल स्रोत की ओर शीघ्रता से बढ़ना होगा। सम्ाुद्र को प्राप्त होने से नदी की कोई हानि नहीं होती है। यद्यपि मार्ग में उसे कुछ विशेष गुण प्राप्त होते हैं? जिनके कारण उसे एक विशेष नाम और आकार प्राप्त हो जाता है? तथपि उसका यह स्वरूप क्षणिक है। यह समुद्र के जल द्वारा शुष्क भूमि को बहुलता से समृद्ध करने के लिए लिया गया सुविधाजनक रूप है।इस श्लोक पर जितना अधिक हम विचार करेंगे उतना अधिक उसमें निहित आनन्द हमें प्राप्त होगा।किसलिये वे प्रवेश करते हैं अर्जुन बताता है कि
11.28 As the numerous currents of the waters of rivers rush towards the sea alone so also do those heroes of the human world enter into Your blazing mouths.
11.28 Verily, just as many torrents of rivers flow towards the ocean, even so these heroes in the world of men enter Thy flaming mouths.
11.28. Just as many water-rapids of the rivers race heading towards the ocean alone, in the same manner these heroes of the world of men do enter into Your mouths flaming all around.
11.28 यथा as? नदीनाम् of rivers? बहवः many? अम्बुवेगाः watercurrents? समुद्रम् to the ocean? एव verily? अभिमुखाः towards? द्रवन्ति flow? तथा so? तव Thy? अमी these? नरलोकवीराः heroes in the world of men? विशन्ति enter? वक्त्राणि mouths? अभिविज्वलन्ति flaming.Commentary Ami These warriors such as Bhishma. Arjuna is now seeing all these warriors,whom he did not wish to kill? rushing to death. His delusion has vanished. He thinks now This battle cannot be avoided. It has the sanction of the Supreme Lord. Why should I worry about the inevitable The Lord has already destroyed these warriors. I am only an instrument in His hands. No sin can touch me even if I kill them. This is a just cause also.Why and how do they enter Arjuna says --
11.28 Yatha, as; the bahavah, numerous; ambu-vegah, currents of the waters, particularly the swift ones; nadinam, of flowing rivers; dravanti abhimukhah, rush towards, enter into; the samudram, sea; eva, alone; tatha, so also; do ami, those; nara-loka-virah, heroes of the human world-Bhisma and others; visanti, enter into; tava, Your; abhi-vijvalanti, blazing, glowing; vaktrani, mouths. Why do they enter, and how? In answer Arjuna says:
11.28 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.28 - 11.29 These innumerable kings rush to their destruction in Your flaming mouths, even as many torrents of rivers flow towards the ocean and moths rush into a blazing fire.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
As unlimited currents of water helplessly flow in innumerable rivers and are propelled from multiple channels into the ocean, the mighty warriors of the Kaurava and Pandava armies are seen to be helplessly propelled into the flaming, gnashing mouths of the visvarupa or divine universal form of Lord Krishna.
Yathaa nadeenaam bahavo’mbuvegaahSamudramevaabhimukhaah dravanti; Tathaa tavaamee naralokaveeraahVishanti vaktraanyabhivijwalanti.
yathā—as; nadīnām—of the rivers; bahavaḥ—many; ambu-vegāḥ—water waves; samudram—the ocean; eva—indeed; abhimukhāḥ—toward; dravanti—flowing rapidly; tathā—similarly; tava—your; amī—these; nara-loka-vīrāḥ—kings of human society; viśhanti—enter; vaktrāṇi—mouths; abhivijvalanti—blazing; yathā—as; pradīptam—blazing; jvalanam—fire; pataṅgāḥ—moths; viśhanti—enter; nāśhāya—to be perished; samṛiddha vegāḥ—with great speed; tathā eva—similarly; nāśhāya—to be perished; viśhanti—enter; lokāḥ—these people; tava—your; api—also; vaktrāṇi—mouths; samṛiddha-vegāḥ—with great speed