द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथाऽन्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।।
।।11.34।।द्रोण? भीष्म? जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो। तुम व्यथा मत करो और युद्ध करो। युद्धमें तुम निःसन्देह वैरियोंको जीतोगे।
।।11.34।। व्याख्या -- द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् मया हतांस्त्वं जहि -- तुम्हारी दृष्टिमें गुरु द्रोणाचार्य? पितामह भीष्म? जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य जितने प्रतिपक्षके नामी शूरवीर हैं? जिनपर विजय करना बड़ा कठिन काम है (टिप्पणी प0 597)? उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् वे सब कालरूप मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिये हे अर्जुन मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मार दो। भगवान्के द्वारा पूर्वश्लोकमें मयैवैते निहताः पूर्वमेव और यहाँ मया हतांस्त्वं जहि कहनेका तात्पर्य यह है कि तुम इनपर विजय करो? पर विजयका अभिमान मत करो क्योंकि ये सबकेसब मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं।मा व्यथिष्ठा युध्यस्व -- अर्जुन पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यको मारनेमें पाप समझते थे? यही अर्जुनके मनमें व्यथा थी। अतः भगवान् कह रहे हैं कि वह व्यथा भी तुम मत करो अर्थात् भीष्म और द्रोण आदिको मारनेसे हिंसा आदि दोषोंका विचार करनेकी तुम्हें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। तुम अपने क्षात्रधर्मका अनुष्ठान करो अर्थात् युद्ध करो। इसका त्याग मत करो।जेतासि रणे सपत्नान् -- इस युद्धमें तुम वैरियोंको जीतोगे। ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि पहले (गीता 2। 6 में) अर्जुनने कहा था कि हम उनको जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे -- इसका हमें पता नहीं। इस प्रकार अर्जुनके मनमें सन्देह था। यहाँ ग्यारहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने अर्जुनको विश्वरूप देखनेकी आज्ञा दी? तो उसमें भगवान्ने कहा कि तुम और भी जो कुछ देखना चाहो? वह देख लो (11। 7) अर्थात् किसकी जय होगी और किसकी पराजय होगी -- यह भी तुम देख लो। फिर भगवान्ने विराट्रूपके अन्तर्गत भीष्म? द्रोण और कर्णके नाशकी बात दिखा दी और इस श्लोकमें वह बात स्पष्टरूपसे कह दी कि युद्धमें निःसन्देह तुम्हारी विजय होगी।विशेष बातसाधकको अपने साधनमें बाधकरूपसे नाशवान् पदार्थोंका? व्यक्तियोंका जो आकर्षण दीखता है? उससे वह घबरा जाता है कि मेरा उद्योग कुछ भी काम नहीं कर रहा है अतः यह आकर्षण कैसे मिटे भगवान्,मयैवैते निहताः पूर्वमेव और मया हतांस्त्वं जहि पदोंसे ढाढ़स बँधाते हुए मानो यह आश्वासन देते हैं कि तुम्हारेको अपने साधनमें जो वस्तुओँ आदिका आकर्षण दिखायी देता है और वृत्तियाँ खराब होती हुई दीखती हैं? ये सबकेसब विघ्न नाशवान् हैं और मेरे द्वारा नष्ट किये हुए हैं। इसलिये साधक इनको महत्त्व न दे।दुर्गुणदुराचार दूर नहीं हो रहे हैं? क्या करूँ -- ऐसी चिन्ता होनेमें तो साधकका अभिमान ही कारण है और ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये -- इसमें भगवान्के विश्वासकी? भरोसेकी? आश्रयकी कमी है। दुर्गुणदुराचार अच्छे नहीं लगते? सुहाते नहीं? इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करनेमें। इसलिये साधकको कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।मेरे द्वारा मारे हुएको तू मार -- इस कथनसे यह शङ्का होती है कि कालरूप भगवान्के द्वारा सबकेसब मारे हुए हैं तो संसारमें कोई किसीको मारता है तो वह भगवान्के द्वारा मारे हुएको ही मारता है। अतः मारनेवालेको पाप नहीं लगना चाहिये। इसका समाधान यह है कि किसीको मारनेका या दुःख देनेका अधिकार मनुष्यको नहीं है। उसका तो सबकी सेवा करनेका? सबको सुख पहुँचानेका ही अधिकार है। अगर मारनेका अधिकार मनुष्यको होता तो विधिनिषेध अर्थात् शुभ कर्म करो? अशुभ कर्म मत करो -- ऐसा शास्त्रोंका? गुरुजनों और सन्तोंका कहना ही व्यर्थ हो जायगा। वह विधिनिषेध किसपर लागू होगा अतः मनुष्य किसीको मारता है या दुःख देता है तो उसको पाप लगेगा ही क्योंकि यह उसकी रागद्वेषपूर्वक अनधिकार चेष्टा है। परन्तु क्षत्रियके लिये शास्त्रविहित युद्ध प्राप्त हो जाय? तो स्वार्थ और अहंकारका त्याग करके कर्तव्यपालन करनेसे पाप नहीं लगता? क्योंकि यह क्षत्रियका स्वधर्म है। सम्बन्ध -- विराट्रूप भगवान्के अत्यन्त उग्ररूपको देखकर अर्जुनने इकतीसवें श्लोकमें पूछा कि आप कौन हैं और यहाँ क्या करने आये हैं बत्तीसवें श्लोकमें भगवान्ने उसका उत्तर दिया कि मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। फिर तैंतीसवेंचौंतीसवें श्लोकोंमें भगवान्ने अर्जुनको आश्वासन दिया कि मेरे द्वारा मारे हुएको ही तू मार दे? तेरी जीत होगी। इसके बाद अर्जुनने क्या किया -- इसको सञ्जय आगेके श्लोकमें बताते हैं।