पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।11.43।।
।।11.43।। आप इस चराचर जगत् के पिता? पूजनीय और सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं। हे अप्रितम प्रभाव वाले भगवन् तीनों लोकों में आपके समान भी कोई नहीं हैं? तो फिर आपसे अधिक श्रेष्ठ कैसे होगा।।
।।11.43।। हम यहाँ देखते हैं कि भावावेश के कारण अवरुद्ध कण्ठ से अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति अत्यादर के साथ कहता है कि आप इस चराचर जगत् के पिता हैं। निसन्देह ही? जाग्रत् स्वप्न? और सुषुप्ति अवस्थाओं के अनुभव लोक भी? आत्मतत्त्व की स्थूल? सूक्ष्म और कारण उपाधियों के द्वारा अभिव्यक्ति से ही विद्यमान प्रतीत होते हैं। उन सबका प्रकाशक आत्मचैतन्य सर्वत्र एक ही है।स्वाभाविक है कि अर्जुन के कथन के अनुसार भगवान् अप्रतिम प्रभाव से सम्पन्न हैं और उनके समान भी जब कोई नहीं है? तो उनसे अधिक श्रेष्ठ कौन हो सकता हैक्योंकि वास्तविकता ऐसी है