तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।11.44।।
।।11.44।।इसलिये शरीरसे लम्बा पड़कर स्तुति करनेयोग्य आप ईश्वरको मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। जैसे पिता पुत्रके? मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है? ऐसे ही हे देव आप मेरे द्वारा किया गया अपमान सहनेमें समर्थ हैं।
।।11.44।। इसलिये हे भगवन् मैं शरीर के द्वारा साष्टांग प्रणिपात करके स्तुति के योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। हे देव जैसे पिता पुत्र के? मित्र अपने मित्र के और प्रिय अपनी प्रिया के(अपराध को क्षमा करता है)? वैसे ही आप भी मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये।।
।।11.44।। व्याख्या -- तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीषमीड्यम् -- आप अनन्त ब्रह्माण्डोंके ईश्वर हैं। इसलिये सबके द्वारा स्तुति करनेयोग्य आप ही हैं। आपके गुण? प्रभाव? महत्त्व आदि अनन्त हैं अतः ऋषि? महर्षि? देवता? महापुरुष आपकी नित्यनिरन्तर स्तुति करते रहें? तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करनेयोग्य आपकी मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ मेरेमें आपकी स्तुति करनेका बल नहीं है? सामर्थ्य नहीं है। इसलिये मैं तो केवल आपके चरणोंमें लम्बा पड़कर दण्डवत् प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसीसे आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ।पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् -- किसीका अपमान होता है तो उसमें मुख्य तीन कारण होते हैं -- (1) प्रमाद(असावधानी) से? (2) हँसी? दिल्लगी? विनोदमें खयाल न रहनेसे और (3) अपनेपनकी घनिष्ठता होनेपर अपने साथ रहनेवालेका महत्त्व न जाननेसे। जैसे? गोदीमें बैठा हुआ छोटा बच्चा अज्ञानवश पिताकी दाढ़ीमूँछ खींचता है? मुँहपर थप्पड़ लगाता है? कभी कहीं लात मार देता है तो बच्चेकी ऐसी चेष्टा देखकर पिता राजी ही होते हैं? प्रसन्न ही होते हैं। वे अपनेमें यह भाव लाते ही नहीं कि पुत्र मेरा अपमान कर रहा है। मित्र मित्रके साथ चलतेफिरते? उठतेबैठते आदि समय चाहे जैसा व्यवहार करता है? चाहे जैसा बोल देता है? जैसे -- तुम ब़ड़े सत्य बोलते हो जी तुम तो बड़े सत्यप्रतिज्ञ हो अब तो तुम बड़े आदमी हो गये हो तुम तो खूब अभिमान करने लग गये हो आज मानो तुम राजा ही बन गये हो आदि? पर उसका मित्र उसकी इन बातोंका खयाल नहीं करता। वह तो यही समझता है कि हम बराबरीके मित्र हैं? ऐसी हँसीदिल्लगी तो होती ही रहती है। पत्नीके द्वारा आपसके प्रेमके कारण उठनेबैठने? बातचीत करने आदिमें पतिकी जो कुछ अवहेलना होती है? उसे पति सह लेता है। जैसे? पति नीचे बैठा है तो,वह ऊँचे आसनपर बैठ जाती है? कभी किसी बातको लेकर अवहेलना भी कर देती है? पर पति उसे स्वाभाविक ही सह लेता है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे पिता पुत्रके? मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है? ऐसे ही हे भगवन् आप मेरे अपमानको सहनेमें समर्थ हैं अर्थात् इसके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।इकतालीसवेंबयालीसवें श्लोकोंमें अर्जुनने तीन बातें कही थीं -- प्रमादात् (प्रमादसे)? अवहासार्थम् (हँसीदिल्लगीसे) और प्रणयेन (प्रेमसे)। उन्हीं तीन बातोंका संकेत अर्जुनने यहाँ तीन दृष्टान्त देकर किया है अर्थात् प्रमादके लिये पितापुत्रका? हँसीदिल्लगीके लिये मित्रमित्रका और प्रेमके लिये पतिपत्नीका दृष्टान्त दिया है। सम्बन्ध -- अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन चतुर्भुजरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं।
।।11.44।। अर्जुन स्वयं को सर्वशक्तिमान भगवान् के समक्ष पाकर अपने में वाक्कौशल और तर्क करने की सूक्ष्म क्षमता को व्यक्त हुआ पाता है। यद्यपि हिन्दुओं में पूजनीय व्यक्ति का चरणस्पर्श करके अभिवादन किया जाता है? जो कि शारीरिक कर्म है किन्तु उसका जो वास्तविक अभिप्राय है उसे हृदय के आन्तरिक भाव के रूप में प्राप्त करना होता है। अहंकार के समर्पण के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करना ही वास्तविक प्रणाम या साष्टांग प्रणिपात है। अनात्म जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंकार और तत्केन्द्रित मिथ्या कल्पनाओं के कारण अपने ही हृदयस्थ आत्मा का हमें साक्षात् अनुभव नहीं हो पाता है। जिस मात्रा में ये मिथ्या धारणाएं नष्ट हो जाती हैं? उस्ाी मात्रा में निश्चित ही? हम आत्मा के शान्त सौन्दर्य का अनुभव कर सकते हैं जो हमारा शुद्ध स्वरूप ही है। वास्तव में देखा जाये? तो अहंकार के इस समर्पण में हम अपनी अशुद्ध पाशविक वासनाओं की उस गठरी को ही अर्पित कर रहे होते हैं? जो हमारी मूढ़ता और कामुकता के कारण दुर्गन्धित होती हैअत स्वाभाविक है कि? जब कोई भक्त? भक्ति और प्रपत्ति की भावना से भगवान् के चरणों के समीप पहुँचता है? तो अपनी अशुद्धियों के लिए क्षमा याचना करता है।यहाँ अर्जुन भगवान् से अनुरोध करता है कि वे उसके किए अपराधों को ऐसे ही सहन करे? जैसे पिता पुत्र के? मित्र अपने मित्र के? प्रिय अपने प्रिया के अपराधों को सहन करता है। इन तीन उदाहरणों में वे सब घृष्टतापूर्ण अपराध सम्मिलित हो जाते हैं? जो एक मनुष्य अज्ञानवश अपने प्रभु भगवान् के प्रति कर सकता है।अर्जुन भगवान् से सामान्य रूप धारण करने तथा इस सर्वातीत? सार्वभौमिक भयंकर रूप का त्याग करने के लिए प्रार्थना करता है
11.44 Therefore, by bowing down and prostrating the body, I seek to propitate You who are God and are adorable. O Lord, You should [The elision of a (in arhasi of priyayarhasi) is a metrical licence.] forgive (my faults) as would a father (the faults) of a son, as a friend, of a friend, and as a lover of a beloved.
11.44 Therefore, bowing down, prostrating my body, I crave Thy forgiveness, O adorable Lord. As a father forgives his son, a friend his (dear) friend, a lover his beloved, even so shouldst Thou forgive me, O God.
11.44. Hence, paying homage, and prostrating may body, I solicit grace of You, the Lord praisworthy. O God ! Be pleased to bear with me, just as a beloved father with his beloved son and just as a dear friend with his dear friend.
11.44 तस्मात् therefore? प्रणम्य saluting? प्रणिधाय having bent? कायम् body? प्रसादये crave forgiveness? त्वाम् Thee? अहम् I? ईशम् the Lord? ईड्यम् adorable? पिता father? प्रियः beloved? प्रियायाः to the beloved? अर्हसि (Thou) shouldst? देव O God? सोढुम् to bear.Commentary O Lord? take me to Thy bosom as a mother does her child. Forgive me for all tht I have hitherto spoken or done. Forgive my faults. Please overlook my past mistakes. I have done this through ignorance. Now I have come to Thee in submission. I beg Your pardon now.
11.44 Tasmat, therefore; pranamya, by bowing down; and pranidhaya kayam, prostrating, laying, the body completely down; prasadaye, I seek to propitiate; tvam, You; who are isam, God, the Lord; and are idyam, adorable. Deva, O God; You are Your part, arhasi, should; sodhum, bear with, i.e. forgive (my faults); iva, as would; a pita, father; forgive all the faults putrasya, of a son; and as a sakha, friend; the fautls sakhyuh, of a friend; or as a priyah, lover; forgives the faults priyayah, of a beloved.
11.44 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.44 Therefore, bowing down and prostrating, I implore You, O adorable Lord, for Your mercy. Just as, when entreated with salutation, a father will show mercy to his son, or a friend to a friend, even if he has been at fault, even so it is meet that You, most compassionate and dear to me, should bear with me, who is dear to You in all respects.
Pranidhaya means placing the body on the earth like a rod, out of respect. The samdhi in priyayarhasi is poetic license.
Lord Krishna is addressed as isam idyam the most adorable Lord and is humbly entreated to be merciful and compassionate. How is He being entreated? The phrase pranidhaya kayam which means falling flat like a stick when prostrating oneself answers this question. By Arjuna supplicating himself in total surrender warrants Lord Krishna to forgive him and excuse his offenses. In what way should Lord Krishna forgive the offences? As a father forgives the offences made by a son, or as a friend tolerates the mistakes of another friend or as a lover excuses the fault of a beloved. In all these ways Lord Krishna is being earnestly beseeched to forgive as well.
As in reality the Supreme Lord Krishna is the father of all, the best friend of all and the most beloved of all, being the most exalted He possesses most fully the qualities of mercy, compassion, kindness and other virtues. Thinking in this way Arjuna prostrates the full length of his body upon the ground in humble supplication beseeching the Supreme Lord to smile upon him in benevolent grace. Although the son may make an indiscretion the father may condemn, still the father will reconcile himself to him. Although a friend has defects another friend will magnanimously overlook them. Although the beloved is sometimes contrary the lover will not hold this against the beloved when asked to be forgiven. As harmony and benignity is normally established as a result of humble supplication, Arjuna is imploring the Supreme Lord to be merciful, magnanimous and forgiving.
As in reality the Supreme Lord Krishna is the father of all, the best friend of all and the most beloved of all, being the most exalted He possesses most fully the qualities of mercy, compassion, kindness and other virtues. Thinking in this way Arjuna prostrates the full length of his body upon the ground in humble supplication beseeching the Supreme Lord to smile upon him in benevolent grace. Although the son may make an indiscretion the father may condemn, still the father will reconcile himself to him. Although a friend has defects another friend will magnanimously overlook them. Although the beloved is sometimes contrary the lover will not hold this against the beloved when asked to be forgiven. As harmony and benignity is normally established as a result of humble supplication, Arjuna is imploring the Supreme Lord to be merciful, magnanimous and forgiving.
Tasmaatpranamya pranidhaaya kaayamPrasaadaye twaamahameeshameedyam; Piteva putrasya sakheva sakhyuhPriyah priyaayaarhasi deva sodhum.
tasmāt—therefore; praṇamya—bowing down; praṇidhāya—prostrating; kāyam—the body; prasādaye—to implore grace; tvām—your; aham—I; īśham—the Supreme Lord; īḍyam—adorable; pitā—father; iva—as; putrasya—with a son; sakhā—friend; iva—as; sakhyuḥ—with a friend; priyaḥ—a lover; priyāyāḥ—with the beloved; arhasi—you should; deva—Lord; soḍhum—forgive