अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.45।।
।।11.45।।मैंने ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा। इस रूपको देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और (साथहीसाथ) भयसे मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। अतः आप मुझे अपने उसी देवरूपको (सौम्य विष्णुरूपको) दिखाइये। हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये।
।।11.45।। मैं आपके इस अदृष्टपूर्व रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अतिव्याकुल भी हो रहा हैं। इसलिए हे देव आप उस पूर्वकाल को ही मुझे दिखाइये। हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये।।
।।11.45।। व्याख्या -- [जैसे विराट्रूप दिखानेके लिये मैंने भगवान्से प्रार्थना की तो भगवान्ने मुझे विराट्रूप दिखा दिया? ऐसे ही देवरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करनेपर भगवान् देवरूप दिखायेंगे ही -- ऐसी आशा होनेसे अर्जुन भगवान्से देवरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं।]अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे -- आपका ऐसा अलौकिक आश्चर्यमय विशालरूप मैंने पहले कभी नहीं देखा। आपका ऐसा भी रूप है -- ऐसी मेरे मनमें सम्भावना भी नहीं थी। ऐसा रूप देखनेकी मेरेमें कोई योग्यता भी नहीं थी। यह तो केवल आपने अपनी तरफसे ही कृपा करके दिखाया है। इससे मैं अपनेआपको बड़ा सौभाग्यशाली मानकर हर्षित हो रहा हूँ? आपकी कृपाको देखकर गद्गद हो रहा हूँ। परन्तु साथहीसाथ आपके स्वरूपकी उग्रताको देखकर मेरा मन भयके कारण अत्यन्त व्यथित हो रहा है? व्याकुल हो रहा है? घबरा रहा है।तदेव मे दर्शय देवरूपम् -- तत् (वह) शब्द परोक्षवाची है अतः तदेव (तत् एव) कहनेसे ऐसा मालूम देता है कि अर्जुनने देवरूप (विष्णुरूप) पहले कभी देखा है? जो अभी सामने नहीं है। विश्वरूप देखनेपर जहाँ अर्जुनकी पहले दृष्टि पड़ी? वहाँ उन्होंने कमलासनपर विराजमान ब्रह्माजीको देखा -- पश्यामि देवांस्तव देव देहे ৷৷. ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम् (11। 15)। इससे सिद्ध होता है कि वह कमल जिसकी नाभिसे निकला है? उस शेषशायी चतुर्भुज विष्णुरूपको भी अर्जुनने देखा है। फिर सत्रहवें श्लोकमें अर्जुनने कहा है कि मैं आपको किरीट? गदा? चक्र (और च पदसे शङ्ख और पद्म) धारण किये हुए देख रहा हूँ -- किरीटनं गदिनं चक्रिणं च -- इन दोनों बातोंसे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनने विश्वरूपके अन्तर्गत भगवान्के जिस विष्णुरूपको देखा था? उसीके लिये अर्जुन यहाँ वही देवरूप मेरेको दिखाइये ऐसा कह रहे हैं (टिप्पणी प0 606)।देवरूपम् कहनेका तात्पर्य है कि मैंने विराट्रूपमें आपके विष्णुरूपको भी देखा था? पर अब आप मेरेको केवल विष्णुरूप ही दिखाइये। दूसरी बात? पंद्रहवें श्लोकमें भी अर्जुनने भगवान्के लिये देव कहा है --,पश्यामि देवांस्तव देव देहे और यहाँ भी देवरूप दिखानेके लिये? कहते हैं इसका तात्पर्य है कि विराट्रूप भी नहीं और मनुष्यरूप भी नहीं? केवल देवरूप दिखाइये। आगेके (छियालीसवें) श्लोकमें भी तेनैव पदसे विराट्रूप और मनुष्यरूपका निषेध करके भगवान्से चतुर्भुज विष्णुरूप बन जानेके लिये प्रार्थना करते हैं।प्रसीद देवेश जगन्निवास -- यहाँ जगन्निवास सम्बोधन विश्वरूपका और देवेश सम्बोधन चतुर्भुजरूपका संकेत कर रहा है। अर्जुन ये दो सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि सम्पूर्ण संसारका निवास आपमें है -- ऐसा विश्वरूप तो मैंने देख लिया है और देख ही रहा हूँ। अब आप देवेश -- देवताओंके मालिक विष्णुरूपसे हो जाइये।विशेष बातभगवान्का विश्वरूप दिव्य है? अविनाशी है? अक्षय है। इस विश्वरूपमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं तथा उन ब्रह्माण्डोंकी उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मा? विष्णु और शिव भी अनन्त हैं। इस नित्य विश्वरूपसे अनन्त विश्व (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न होहोकर उसमें लीन होते रहते हैं? पर यह विश्वरूप अव्यय होनेसे ज्योंकात्यों ही रहता है। यह विश्वरूप इतना दिव्य? अलौकिक है कि हजारों भौतिक सूर्योंका प्रकाश भी इसके प्रकाशका उपमेय नहीं हो सकता (11। 12)। इसलिये इस विश्वरूपको दिव्यचक्षुके बिना कोई भी देख नहीं सकता।,ज्ञानचक्षुके द्वारा संसारके मूलमें सत्तारूपमें जो परमात्मतत्त्व है? उसका बोध होता है और भावचक्षुसे संसार भगवत्स्वरूप दीखता है? पर इन दोनों ही चक्षुओंसे विश्वरूपका दर्शन नहीं होता। चर्मचक्षुसे न तो तत्त्वका बोध होता है? न संसार भगवत्स्वरूप दीखता है और न विश्वरूपका दर्शन ही होता है क्योंकि चर्मचक्षु प्रकृतिका कार्य है। इसलिये चर्मचक्षुसे प्रकृतिके स्थूल कार्यको ही देखा जा सकता है।वास्तवमें भगवान्के द्विभुज? चतुर्भुज? सहस्रभुज आदि जितने भी रूप हैं? वे सबकेसब दिव्य और अव्यय हैं। इसी तरह भगवान्के सगुणनिराकार? निर्गुणनिराकार? सगुणसाकार आदि जितने रूप हैं? वे सबकेसब भी दिव्य और अव्यय हैं।माधुर्यलीलामें तो भगवान् द्विभुजरूप ही रहते हैं परन्तु जहाँ अपना कुछ ऐश्वर्य दिखलानेकी आवश्यकता होती है? वहाँ भगवान् पात्र? अधिकार? भाव आदिके भेदसे अपना विराट्रूप भी दिखा देते हैं। जैसे? भगवान्ने अर्जुनको मनुष्यरूपसे प्रकट हुए अपने द्विभुजरूप -- शरीरके किसी अंशमें विराट्रूप दिखाया है।भगवान्में अनन्तअसीम ऐश्वर्य? माधुर्य? सौन्दर्य? औदार्य आदि दिव्य गुण हैं। उन अनन्त दिव्य गुणोंके सहित भगवान्का विश्वरूप है। भगवान् जिसकिसीको ऐसा विश्वरूप दिखाते हैं? उसे पहले दिव्यदृष्टि देते हैं। दिव्यदृष्टि देनेपर भी वह जैसा पात्र होता है? जैसी योग्यता और रुचिवाला होता है? उसीके अनुसार भगवान् उसको अपने विश्वरूपके स्तरोंका दर्शन कराते हैं। यहाँ ग्यारहवें अध्यायके पंद्रहवेंसे तीसवें श्लोकतक भगवान् विश्वरूपसे अनेक स्तरोंसे प्रकट होते गये? जिसमें पहले देवरूपकी (11। 15 -- 18)? फिर उग्ररूपकी (11। 19 -- 22) और उसके बाद अत्युग्ररूपकी (11। 23 -- 30) प्रधानता रही। अत्युग्ररूपको देखकर जब अर्जुन भयभीत हो गये? तब भगवान्ने अपने दिव्यातिदिव्य विश्वरूपके स्तरोंको दिखाना बंद कर दिया अर्थात् अर्जुनके भयभीत होनेके कारण भगवान्ने अगले रूपोंके दर्शन नहीं कराये। तात्पर्य है कि भगवान्ने दिव्य विराट्रूपके अनन्त स्तरोंमेंसे उतने ही स्तर अर्जुनको दिखाये? जितने स्तरोंको दिखानेकी आवश्यकता थी और जितने स्तर देखनेकी अर्जुनमें योग्यता थी।
।।11.45।। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता के रूप में भगवान् से प्रेम करता है। जब उस आकार के द्वारा वह भगवान् के अनन्त? परात्पर? निराकार स्वरूप का साक्षात्कार करता है? तब निसन्देह वह परमानन्द का अनुभव करता है? किन्तु उसी क्षण वह भय से भी अभिभूत हो जाता है। अध्यात्म साधना करने वाले साधकों का प्रारम्भिक अवस्था में यही अनुभव होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि? साधना के फलस्वरूप प्राप्त आन्तरिक शान्ति परमानन्द दायक होती है? परन्तु अचानक साधक के मन में विचित्र भय समा जाता है? जो उसे पुन देहभाव को प्राप्त कराकर मन के विक्षेपों का कारण बनता है।आत्मानुभव के उदय पर यह परिच्छिन्न जीव अपने बन्धनों से मुक्त होकर? अदृष्टपूर्व आनन्दलोक में प्रवेश करता है? जहाँ वह अपनी ही विशालता और प्रभाव का अनुभव कर प्रसन्न हो जाता है। इसी बात को अर्जुन दर्शाता है कि ऐसे रूप को देखकर? जो मैंने पूर्व कभी देखा नहीं था? मैं हर्षित हो रहा हूँ। परन्तु प्रारम्भिक प्रयत्नों में एक साधक में यह सार्मथ्य नहीं होती कि वह अपने मन को दीर्घकाल तक वृत्तिशून्य स्थिति में रख सके। ध्यान में निश्चल प्रतीत हो रहा उसका मन पुन जाग्रत होकर क्रियाशील हो जाता है। साधकों का यह अनुभव है कि ऐसे समय मन में सर्वप्रथम जो वृत्ति उठती है वह भय की ही होती है। निराकार अनुभव से भयभ्ाीत होकर मन पुन शरीर भाव में स्थित हो जाता है। ऐसे अवसरों पर भक्तजन प्रेम और भक्ति के साथ अपने साकार इष्टदेव को अपने चंचल मन्दस्मित के रूप में व्यक्त होने के लिए प्रार्थना करते हैं। वे अपने इष्टदेव को पुन सस्मित और कोमल तथा प्रेमपूर्ण दृष्टि और संगीतमय शब्दों के साथ देखना चाहते हैं।अर्जुन श्रीकृष्ण को जिस रूप में देखना चाहता था? उसका वर्णन अगले श्लोक में करता है
11.45 I am delighted by seeing something not seen heretofore, and my mind is stricken with fear. O Lord, show me that very form; O supreme God, O Abode of the Universe, be gracious!
11.45 I am delighted, having seen what has never been seen before; and yet my mind is distressed with fear. Show me that (previous) form only, O God; have mercy, O God of gods, O Abode of the universe.
11.45. I am thrilled by seeing what has not been seen earlier; and my mind is very much distressed with fear; show me the same (usual) form of Yours; kindly be appeased O God ! Lord of gods ! O Abode of the worlds !
11.45 अदृष्टपूर्वम् what was never seen before? हृषितः delighted? अस्मि (I) am? दृष्ट्वा having seen? भयेन with fear? च and? प्रव्यथितम् is distressed? मनः mind? मे my? तत् that? एव only? मे to me? दर्शय show? देव O God? रूपम् form? प्रसीद have mercy? देवेश O Lord of the gods? जगन्निवास O Aboe of the universe.Commentary For an ordinary man the Cosmic Form (Vision) is overwhelming and terrifying but for a Yogi it is encouraging? strengthening and soulelevating.Arjuna says The Cosmic Form was never before seen by me. Show me only that form which Thou wearest as my friend.
11.45 Asmi, I am; hrsitah, delighted; drstva, by seeing; adrsta-purvam, something not seen heretofore-by seeing this Cosmic form of Yours which has never been seen before by me or others. And me, my; manah, mind; is pravyathitam, stricken; bhayena, with fear. Therefore, deva, O Lord; darsaya, show; me, to me; tat eva, that very; rupam, form, which is of my friend. Devesa, O supreme God; jagan-nivasa, Abode of the Universe; prasida, be gracious!
11.45 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.45 Seeing Your form, never seen before, extremely marvellous and awe-inspiring, I am delighted, transported with love. But my mind is also troubled with awe. Hence reveal to me only Your most gracious form. Be gracious, O Lord of all gods! O Abode of the universe! Show me that form, O gracious Lord of all the gods headed by Brahma, and the foundation of the entire universe!
Though I am delighted, having seen your body composed of the form of the universe which has not been previously seen, my mind is distressed with fear because of its ferocity. Therefore, show me that form (tad eva rupa), the form of the son of Vasudeva, the form of sweetness, which is millions of times dearer to my life. Show favor to me—do not display to me that form of great power any longer. I have now seen you as the Lord of the devatas (devesa), the resting place of the universe (jagan nivasah). It should be understood that Arjuna did not see the body of Krishna in human form which was the origin of all the forms seen by Arjuna, when Krishna displayed the universal form, because his vision was covered by yoga maya.
Having humbly beseeched Lord Krishna for full forgiveness, Arjuna now reveals his heart in this verse and the next explaining that by seeing the visvarupa or divine universal form, that had never been seen before and which possesses unlimited grandeur and power he was ovejoyed and thrilled but at the same time his mind was agitated and disturbed by the fearful aspect of it. Feeling trepidation Arjuna requests Lord Krishna to please revert back to the human looking form of his friend that he is accustomed to always seeing.
Beholding the phenomenal but terrifying form of Lord Krishnas visvarupa or divine universal form, fully satisfied the curiosity of Arjuna but his mind was filled with fear. So he humbly requests Lord Krishna with salutary exclamations of devasa jagan-nivasa meaning O Lord of lords, O refuge of creation. The word prasida means to please be magnanimous and transform Himself back into that benign form he was accustomed to see.
Beholding the phenomenal but terrifying form of Lord Krishnas visvarupa or divine universal form, fully satisfied the curiosity of Arjuna but his mind was filled with fear. So he humbly requests Lord Krishna with salutary exclamations of devasa jagan-nivasa meaning O Lord of lords, O refuge of creation. The word prasida means to please be magnanimous and transform Himself back into that benign form he was accustomed to see.
Adrishtapoorvam hrishito’smi drishtwaaBhayena cha pravyathitam mano me; Tadeva me darshaya deva roopamPraseeda devesha jagannivaasa.
adṛiṣhṭa-pūrvam—that which has not been seen before; hṛiṣhitaḥ—great joy; asmi—I am; dṛiṣhṭvā—having seen; bhayena—with fear; cha—yet; pravyathitam—trembles; manaḥ—mind; me—my; tat—that; eva—certainly; me—to me; darśhaya—show; deva—Lord; rūpam—form; prasīda—please have mercy; deva-īśha—God of gods; jagat-nivāsa—abode of the universe