किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।11.46।।
।।11.46।।(टिप्पणी प0 607) मैं आपको वैसे ही किरीटधारी? गदाधारी और हाथमें चक्र लिये हुए देखना चाहता हूँ। इसलिये हे सहस्रबाहो विश्वमूर्ते आप उसी चतुर्भुजरूपसे हो जाइये।
।।11.46।। मैं आपको उसी प्रकार मुकुटधारी? गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। हे विश्वमूर्ते हे सहस्रबाहो आप उस चतुर्भुजरूप के ही बन जाइए।।
।।11.46।। व्याख्या -- किरीटनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव -- जिसमें आपने सिरपर दिव्य मुकुट तथा हाथोंमें गदा और चक्र धारण कर रखे हैं? उसी रूपको मैं देखना चाहता हूँ।तथैव कहनेका तात्पर्य है कि मेरे द्वारा द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम् (11। 3) ऐसी इच्छा प्रकट करनेसे आपने विराट्रूप दिखाया। अब मैं अपनी इच्छा बाकी क्यों रखूँ अतः मैंने आपके विराट्रूपमें जैसा सौम्य चतुर्भुजरूप देखा है? वैसाकावैसा ही रूप मैं अब देखना चाहता हूँ -- इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते -- पंद्रहवें और सत्रहवें श्लोकमें जिस विराट्रूपमें चतुर्भुज विष्णुरूपको देखा था? उस विराट्रूपका निषेध करनेके लिये अर्जुन यहाँ एव पद देते हैं। तात्पर्य यह है कि तेन चतुर्भुजेन रूपेण -- ये पद तो चतुर्भुज रूप दिखानेके लिये आये हैं और एव पद विराट्रूपके साथ नहीं -- ऐसा निषेध करनेके लिये आया है तथा भव पद हो जाइये -- ऐसी प्रार्थनाके लिये आया है।पूर्वश्लोकमें तदेव तथा यहाँ तथैव और तेनैव -- तीनों पदोंका तात्पर्य है कि अर्जुन विश्वरूपसे बहुत डर गये थे। इसलिये तीन बार एव शब्दका प्रयोग करके भगवान्से कहते हैं कि मैं आपका केवल विष्णुरूप ही देखना चाहता हूँ विष्णुरूपके साथ विश्वरूप नहीं। अतः आप केवल चतुर्भुजरूपसे प्रकट हो जाइये।सहस्रबाहो सम्बोधनका यह भाव मालूम देता है कि हे हजारों हाथोंवाले भगवन् आप चार हाथोंवाले हो जाइये और विश्वमूर्ते सम्बोधनका यह भाव मालूम देता है कि हे अनेक रूपोंवाले भगवन् आप एक रूपवाले हो जाइये। तात्पर्य है कि आप विश्वरूपका उपसंहार करके चतुर्भुज विष्णुरूपसे हो जाइये। सम्बन्ध -- इकतीसवें श्लोकमें अर्जुनने पूछा कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं? तो भगवान्ने उत्तर दिया कि मैं काल हूँ और सबका संहार करनेके लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। ऐसा सुनकर तथा अत्यन्त विकराल रूपको देखकर अर्जुनको ऐसा लगा कि भगवान् बड़े क्रोधमें हैं। इसलिये अर्जुन भगवान्से बारबार प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करते हैं। अर्जुनकी इस भावनाको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं --
।।11.46।। यहाँ अर्जुन अपनी इच्छा को स्पष्ट शब्दों में प्रदर्शित करता है कि? मैं आपको पूर्ववत् देखना चाहता हूँ। वह भगवान् के विराट् रूप को देखकर भयभीत हो गया है? जो उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के साथ अपने एकत्व को दर्शाने के लिए धारण किया था।वेदान्त द्वारा प्रतिपादित निर्गुण? निराकार तत्त्व या समष्टि के सिद्धांत का जब प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है? तो विरले लोगों में ही वह बौद्धिक धारणाशक्ति होती है कि वे उस सत्य को उसकी पूर्णता में समझकर उसका ध्यान कर सकते हैं। यदि कभी बुद्धि उसे धारण कर भी पाती है? तो प्राय भक्त का हृदय उसके साथ अधिक काल तक तादात्म्य नहीं बनाये रख पाता है। मन के स्तर पर सत्य को केवल रूपकों के द्वारा ही समझकर उसका आनन्द अनुभव किया जा सकता है? सीधे ही उसके पूर्ण वैभव के द्वारा कभी नहीं।इस श्लोक में अर्जुन भगवान् वासुदेव के सौम्य रूप को बताता है? जो भागवत के भगवान् विष्णु का पारम्परिक रूप है। सब पुराणों में ईश्वर का वर्णन रूपक की भाषा में करते हुए उसे चतुर्भुज के रूप में चितित्र किया गया है। शरीर शास्त्र के विद्यार्थियों को यह कोई प्रकृति की आसाधारण निर्मिति ही प्रतीत हो सकती है। हम भूल जाते हैं कि वास्तव में यह सत्य का केवल एक सांकेतिक रूपक है।भगवान् की ये चार भुजाएं अन्तकरण चतुष्टय अर्थात् मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं।पुराणों में ही चतुर्भुजधारी भगवान् का वर्ण नील कहा गया है तथा वे पीताम्बरधारी हैं अर्थात् वे पीत वस्त्र धरण किये हुए हैं। नीलवर्ण से अभिप्राय उनकी अनन्तता से है असीम वस्तु सदा नीलवर्ण प्रतीत होती है? जैसे ग्रीष्म ऋतु का निरभ्र आकाश अथवा गहरा सागर। पृथ्वी का वर्ण है पीत। इस प्रकार भगवान् विष्णु के रूप का अर्थ यह हुआ कि अनन्त परमात्मा परिच्छिन्नता को धारण कर अन्तकरण चतुष्टय के द्वारा जीवन का खेल खेलता है।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सभी धर्मों में ईश्वर का वर्णन एक ही प्रकार से किया गया है। वह परमेश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है। ईश्वर के बाहुबल से ही मनुष्य सफलता प्राप्त करता है? इसलिए सर्वशक्तिमान् भगवान् का निर्देश चतुर्भुजधारी के रूप में ही किया जा सकता है। भगवान् विष्णु शंखचक्रगदापद्मधारी हैं। शंखनाद के द्वारा भगवान् सब को अपने समीप आने का आह्वान करते हैं। यदि मनुष्य अपने हृदय के श्रेष्ठ भावनारूपी शंखनाद को अनसुना कर देता है? तो दुख के रूप में उस पर गदा का आघात होता है। इतने पर भी यदि मनुष्य अपने में सुधार नहीं लाता है? तो अन्तिम परिणाम है चक्र के द्वारा शिरच्छेद अर्थात् परमपुरुषार्थ की अप्राप्ति रूप नाश। इसके विपरीत? यदि कोई मनुष्य दिव्य जीवन का आह्वान सुनकर उसका पूर्ण अनुकरण करता है? तो उसे पद्म अर्थात् कमल की प्राप्ति होती है। हिन्दू धर्म में कमल पुष्प आध्यात्मिक पूर्णता एव शान्ति का प्रतीत है। भारतीय संस्कृति में यह सुखसमृद्धि का भी प्रतीक है। पाश्चात्य देशों में शान्ति का प्रतीक शुभ्र कपोत माना जाता है।संक्षेप में? अर्जुन चाहता है कि भगवान् अपने सौम्यरूप और शान्तभाव में प्रकट हों। वेदान्त के प्रारम्भिक और नवदीक्षित विद्यार्थियों के लिए सतत सूक्ष्म दार्शनिक विचारों की गति बनाये रख पाना कठिन होता है। बुद्धि की ऐसी थकान भरी अवस्था में? उत्साही साधकों के लिए ऐसे विश्वसनीय विश्रामस्थल की आवश्यकता होती है? जहाँ विश्राम करके वे पुन नवचैतन्य से युक्त हो सकते हों। यह शान्ति की शय्या है भगवान् का सगुण? साकार और सौम्यरूप।अर्जुन को भयभीत देखकर? भगवान् अपने विराट रूप का उपसंहार करके मधुर वचनों में उसे आश्वस्त करते हुए कहते हैं
11.46 I want to see You just as before, wearing a crown, wielding a mace, and holding a disc in hand. O You with thousand arms, O You of Cosmic form, appear with that very form with four hands.
11.46 I desire to see Thee as before, crowned, bearing a mace, with the discus in hand, in Thy former form only, having four arms, O thousand-armed, Cosmic Form (Being).
11.46. I desire to see You in the same manner, wearing crown, holding the club and the discuss in hand; please be with the same form having four hands, O Thousand-armed One ! O Universal Form !
11.46 किरीटिनम् wearing crown? गदिनम् bearing a mace? चक्रहस्तम् with a discus in the hand? इच्छामि (I) desire? त्वाम् Thee? द्रष्टुम् to see? अहम् I? तथैव as before? तेनैव that same? रूपेण of form? चतुर्भुजेन (by) fourarmed? सहस्रबाहो O thousandarmed? भव be? विश्वमूर्ते O Universal Form.Commentary Arjuna says O Lord in the Cosmic Form I do not know where to turn and to whom to address myself. I am frightened. I am longing to see Thee with conch? discus? mace and lotus. Withdraw Thy Cosmic Form. Assume that same fourarmed form as before.Spiritual aspirants are ofen impatient to have the highest spiritual experiences immediately they begin their Sadhana. This is wrong. They will not be able to withstand the great power that will,surge into them. Be patientO thousandarmed refers to the Cosmic Form.
11.46 Aham, I; icchami, want; drastum, to see; tvam, You; kiritinam, wearing a crown; as also gadinam, wielding a mace; and cakra-hastam, holding a disc in hand; i.e., tatha eva, just as before. Since this is so, therefore, sahasra-baho, O You with a thousand arms-in Your present Cosmic form; visva-murte, O you of Cosmic form; bhava, apeear; tena eva rupena, with that very form-with the form of the son of Vasudeva; caturbhujena, with four hands. The idea is: withdrawing the Cosmic form, appear in that very form as the son of Vasudeva. Noticing Arjuna to have become afraid, and withdrawing the Cosmic form, reassuring him with sweet words-
11.46 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.46 I wish to see You thus, as before, with a crown, and with a mace and discus in hand. Hence assume again that four-armed shape, shown to me before, O thousand-armed one of Universal Form! Assume that shape in place of what You have now revealed with thousand arms and a cosmic body. Such is the meaning.
Moreover, when you show your glory, show that glory filled with the highest rasa, which gives joy to the mind and eyes of people like us, which we saw before, in the form of the son of Vasudeva for performing human like pastimes, and not the majestic form which is distasteful to our mind and eye, revealed as the universal form, related to pastimes with the devatas, which was never seen before. With this intention Arjuna speaks. I desire to see that same form with a crown of valuable jewels (tatha eva) which we saw previously sometimes, and which your parents saw when you were born. O form of the universe, now having thousands of hands, withdraw that form and appear (bhava) in that form with four hands.
The very form of the Supreme Lord Krishna desired to be seen as before is now being described. Arjuna was accustomed to seeing Lord Krishna in His catur-bhujena or four armed form with gadinam or mace and cakra-hastam or holding discus while bedecked with kiritinam or jewel ornamented golden crown diadem. Now he is requesting Lord Krishna to withdraw the wondrous but terrifying visvarupa or divine universal form of 1000 arms and unlimited faces and revert back to His human looking four armed form with which he was familiar with. In verse 17 of this chapter Arjuna also refers to kiritinam in describing the visvarupa or divine universal form but then he is seeing unlimited crown diadems upon unlimited heads which was never seen before; so there is no contradiction in Arjuna requesting to see Lord Krishnas more peaceful four-armed form with kiritinam that he was regularly use to seeing before.
Lord Krishna is implored to conceal His visvarupa or divine universal form and show His four armed form with kiritinam or golden crown, gadinam or mace and cakra or discus which Arjuna was accustomed to seeing. The Vaihaya Samhita states: Concealing His inconceivable visvarupa Lord Krishna revealed His human looking form which is to be meditated on. The sense is that the original form of the Supreme Lord is superior and should be meditated upon as all other expansions and forms emanate from Him.
Addressing Lord Krishna as sahasra-baho meaning O thousand-armed one, Arjuna now is specifically requesting to see the catur-bujena or four- armed form of Lord Krishna wearing kiritinam or jewelled studded golden crown and holding gadinam or mace and cakra or discus.
Addressing Lord Krishna as sahasra-baho meaning O thousand-armed one, Arjuna now is specifically requesting to see the catur-bujena or four- armed form of Lord Krishna wearing kiritinam or jewelled studded golden crown and holding gadinam or mace and cakra or discus.
Kireetinam gadinam chakrahastamIcchaami twaam drashtumaham tathaiva; Tenaiva roopena chaturbhujenaSahasrabaaho bhava vishwamoorte.
kirīṭinam—wearing the crown; gadinam—carrying the mace; chakra-hastam—disc in hand; ichchhāmi—I wish; tvām—you; draṣhṭum—to see; aham—I; tathā eva—similarly; tena eva—in that; rūpeṇa—form; chatuḥ-bhujena—four-armed; sahasra-bāho—thousand-armed one; bhava—be; viśhwa-mūrte—universal form