श्री भगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।11.47।।
।।11.47।।श्रीभगवान् बोले -- हे अर्जुन मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामर्थ्यसे यह अत्यन्त श्रेष्ठ? तेजोमय? सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है? जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसीने नहीं देखा है।
।।11.47।। हे अर्जुन तुम पर प्रसन्न होकर मैंने अपनी योगशक्ति (आत्मयोगात्) के प्रभाव से यह अपना परम तेजोमय? सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दर्शाया है? जिसे तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।।
।।11.47।। व्याख्या -- मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं दर्शितम् -- हे अर्जुन तू बारबार यह कह रहा है कि आप प्रसन्न हो जाओ (11। 25? 31? 45)? तो प्यारे भैया मैंने जो यह विराट्रूप तुझे दिखाया है? उसमें विकरालरूपको देखकर तू भयभीत हो गया है? पर यह विकरालरूप मैंने क्रोधमें आकर या तुझे भयभीत करनेके लिये नहीं दिखाया है। मैंने तो अपनी प्रसन्नतासे ही यह विराट्रूप तुझे दिखाया है। इसमें तेरी कोई योग्यता? पात्रता अथवा भक्ति कारण नहीं है। तुमने तो पहले केवल विभूति और योगको ही पूछा था। विभूति और योगका वर्णन करके मैंने अन्तमें कहा था कि तुझे जहाँकहीं जो कुछ विलक्षणता दीखे? वहाँवहाँ मेरी ही विभूति समझ। इस प्रकार तुम्हारे प्रश्नका उत्तर सम्यक् प्रकारसे मैंने दे ही दिया था। परन्तु वहाँ मैंने,(अथवा पदसे) अपनी ही तरफसे यह बात कही कि तुझे बहुत जाननेसे क्या मतलब देखने? सुनने? समझनेमें जो कुछ संसार आता है? उस सम्पूर्ण संसारको मैं अपने किसी अंशमें धारण करके स्थित हूँ। दूसरा भाव यह है कि तुझे मेरी विभूति और योगशक्तिको जाननेकी क्या जरूरत है क्योंकि सब विभूतियाँ मेरी योगशक्तिके आश्रित हैं और उस योगशक्तिका आश्रय मैं स्वयं तेरे सामने बैठा हूँ। यह बात तो मैंने विशेष कृपा करके ही कही थी। इस बातको लेकर ही तेरी विश्वरूपदर्शनकी इच्छा हुई और मैंने दिव्यचक्षु देकर तुझे विश्वरूप दिखाया। यह तो मेरी कोरी प्रसन्नताहीप्रसन्नता है। तात्पर्य है कि इस विश्वरूपको दिखानेमें मेरी कृपाके सिवाय दूसरा कोई हेतु नहीं है। तेरी देखनेकी इच्छा तो निमित्तमात्र है।आत्मयोगात् -- इस विराट्रूपको दिखानेमें मैंने किसीकी सहायता नहीं ली? प्रत्युत केवल अपनी सामर्थ्यसे ही तेरेको यह रूप दिखाया है।परम् -- मेरा यह विराट्रूप अत्यन्त श्रेष्ठ है।तेजोमयम् -- यह मेरा विश्वरूप अत्यन्त तेजोमय है। इसलिये दिव्यदृष्टि मिलनेपर भी तुमने इस रूपको दुर्निरीक्ष्य कहा है (11। 17)।विश्वम् -- इस रूपको तुमने स्वयं विश्वरूप? विश्वमूर्ते आदि नामोंसे सम्बोधित किया है। मेरा यह रूप सर्वव्यापी है।अनन्तमाद्यम् -- मेरे इस विश्वरूपका देश? काल आदिकी दृष्टिसे न तो आदि है और न अन्त ही है। यह सबका आदि है और स्वयं अनादि है।यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् -- तेरे सिवाय मेरे विश्वरूपको पहले किसीने भी नहीं देखा -- यह बात भगवान्ने कैसे कही क्योंकि रामावतारमें माता कौसल्याजीने और कृष्णावतारमें माता यशोदाजीने तथा कौरवसभामें भीष्म? द्रोण? सञ्जय? विदुर और ऋषिमुनियोंने भगवान्का विराट्रूप देखा ही था इसका उत्तर यह है कि भगवान्ने अपने विराट्रूपके लिये एवंरूपः (11। 48) पद देकर कहा है कि इस प्रकारके भयंकर विश्वरूपको? जिसके मुखोंमें बड़ेबड़े योद्धा? सेनापति आदि जा रहे हैं? पहले किसीने नहीं देखा है।दूसरी बात? अर्जुनके सामने युद्धका मौका होनेसे ऐसा भयंकर विश्वरूप दिखानेकी ही आवश्यकता थी और शूरवीर अर्जुन ही ऐसे रूपको देख सकते थे। परन्तु माता कौसल्या आदिके सामने ऐसा रूप दिखानेकी आवश्यकता भी नहीं थी और वे ऐसा रूप देख भी नहीं सकते थे अर्थात् उनमें ऐसा रूप देखनेकी सामर्थ्य भी नहीं थी।भगवान्ने यह तो कहा है कि इस विश्वरूपको पहले किसीने नहीं देखा? पर वर्तमानमें कोई नहीं देख रहा है -- ऐसा नहीं कहा है। कारण कि अर्जुनके साथसाथ सञ्जय भी भगवान्के विश्वरूपको देख रहे हैं। अगर सञ्जय न देखते तो वे गीताके अन्तमें यह कैसे कह सकते थे कि भगवान्के अति अद्भुत विराट्रूपका बारबार स्मरण करके मेरेको बड़ा भारी विस्मय हो रहा है और मैं बारबार हर्षित हो रहा हूँ (18। 77)।विशेष बातभगवान्के द्वारा मैंने अपनी प्रसन्नतासे? कृपासे ही तेरेको यह विश्वरूप दिखाया है -- ऐसा कहनेसे एक विलक्षण भाव निकलता है कि साधक अपनेपर भगवान्की जितनी कृपा मानता है? उससे कई गुना अधिक भगवान्की कृपा होती है। भगवान्की जितनी कृपा होती है? उसको माननेकी सामर्थ्य साधकमें नहीं है। कारण कि भगवान्की कृपा अपारअसीम है और उसको माननेकी सामर्थ्य सीमित है।साधक प्रायः अनुकूल वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदिमें ही भगवान्की कृपा मान लेता है अर्थात् सत्सङ्ग मिलता है? साधन ठीक चलता है? वृत्तियाँ ठीक हैं? मन भगवान्में ठीक लग रहा है आदिमें वह भगवान्की कृपा मान लेता है। इस प्रकार केवल अनुकूलतामें ही कृपा मानना कृपाको सीमामें बाँधना है? जिससे असीम कृपाका अनुभव नहीं होता। उस कृपामें ही राजी होना कृपाका भोग है। साधकको चाहिये कि वह न तो कृपाको सीमामें बाँधे और न कृपाका भोग ही करे।साधन ठीक चलनेमें जो सुख होता है? उस सुखमें सुखी होना? राजी होना भी भोग है? जिससे बन्धन होता है -- सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ (गीता 14। 6) सुख होना अथवा सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत उसके साथ सङ्ग करना? उससे सुखी होना? प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगनेसे गुणातीत होनेमें बाधा लगती है। अतः साधकको बड़ी सावधानीसे इस सुखसे असङ्ग होना चाहिये। जो साधक इस सुखसे असङ्ग नहीं होता अर्थात् इसमें प्रसन्नतापूर्वक सुख लेता रहता है? वह भी यदि अपनी साधनामें तत्परतापूर्वक लगा रहे? तो समय पाकर उसकी उस सुखसे स्वतः अरुचि हो जायगी। परन्तु जो उस सुखसे सावधानीपूर्वक असङ्ग रहता है? उसे शीघ्र ही वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध -- विश्वरूपदर्शनके लिये भगवान्की कृपाके सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है -- इस बातका आगेके श्लोकमें विशेषतासे वर्णन करते हैं।
।।11.47।। स्वयं भगवान् यहाँ स्वीकार करते हैं कि उनके विश्वरूप का दर्शन कर पाना कोई सभी भक्तों का विशेषाधिकार नहीं है। असीम कृपा के सागर भगवान् श्रीकृष्ण के विशेष अनुग्रह के रूप में अर्जुन इस विरले लाभ का आनन्द अनुभव कर सका है। वे यह भी विशेष रूप से कहते हैं कि? यह मेरा तेजोमय अनन्त विश्वरूप तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि गीता के रचियता महर्षि व्यास? यहाँ किसी नये दर्शन की स्थापना और व्याख्या कर रहे हैं? जिसकी सत्यता वे भगवान् से प्रमाणित कराना चाहते है। इस कथन का अभिप्राय केवल इतना ही है कि सार्वभौमिक एकता का यह बौद्धिक परिचय या अनुभव किसी व्यक्ति को उन परिस्थितियों में नहीं हुआ? जैसे कि अर्जुन को युद्धभूमि पर हुआ था। बिखरा हुआ मन? थका हुआ शरीर और मानसिक रूप से पूर्णतया विचलित यह थी अर्जुन की विषादपूर्ण दयनीय दशा। विविध नामरूपमय सृष्टि की अनेकता में एकता को देख समझ सकने के लिए बुद्धि की एकाग्रता की जो अनुकूल स्थिति आवश्यक होती है? उससे अर्जुन मीलों दूर था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने अलौकिक योगशक्ति के प्रभाव से उसे आवश्यक दिव्यचक्षु प्रदान करके? संयोग के एक शान्त क्षण में? उसे विश्वरूप का दर्शन करा दिया।भगवान् अपने अभिप्राय को अगले श्लोक में स्पष्ट करते हैं
11.47 The Blessed Lord said Out of grace, O Arjuna, this supreme, radiant, Cosmic, infinite, primeval form-which (form) of Mine has not been seen before by anyone other than you, has been shown to you by Me through the power of My own Yoga.
11.47 The Blessed Lord said O Arjuna, this Cosmic Form has graciously been shown to thee by Me by My own Yogic power; full of splendour, primeval, and infinite, this Cosmic Form of Mine has never been seen before by anyone other than thyself.
11.47. The Bhagavat said Being gracious towards you, I have shown you, O Arjuna, this supreme form, as a result of [Your] concentration on the Self; this form of Mine full of splendour universal , unending and primal, has been never seen before by anybody other than your-self.
11.47 मया by Me? प्रसन्नेन gracious? तव to thee? अर्जुन O Arjuna? इदम् this? रूपम् form? परम् supreme? दर्शितम् has been shown? आत्मयोगात् by My own Yogic power? तेजोमयम् full of splendour? विश्वम् universal? अनन्तम् endless? आद्यम् primeval? यत् which? मे of Me? त्वत् from thee? अन्येन by another? न not? दृष्टपूर्वम् seen before.Commentary Lord Krishna eulogises the Cosmic Form because Arjuna should be regarded to have achieved all his ends by seeing this Cosmic Form.It is also an inducement to all spiritual aspirants to strive to attain this sublime vision. What they should do is explained by the Lord in verse 53 to 55.
11.47 Prasannena, out of grace-grace means the intention of favouring you; O Arjuna, idam, this; param, supreme; tejomayam, abundantly radiant; visvam, Cosmic, all-comprehensive; anantam, infinite, limitless; adyam, primeval-that which existed in the beginning; rupam, form, the Cosmic form; yat which form; me, of Mine; na drsta-purvam, has not been seen before; tvat-anyena, by anyone other than you; daristam, has been shown; tava, to you; maya, by Me-who am racious, being possessed of that (intention of favouring you); atma-yogat, through the power of My own Yoga, through the power of My own Godhood. You have certainly got all your ends accomplished by the vision of the form of Mine who am the Self [The word atmanah (who am the Self) does not occur in some editions.-Tr.] . Saying so, He eulogizes that (vision):
11.47 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.47 The Lord said The luminous form of Mine is a mass of luminosity. It is universal i.e., constitutes the Self of the universe. It is infinite, endless. This is illustrated by describing it as having no beginning, middle or end. It is primeval, namely, it constitutes the foundation of all beings other than Myself. It has nevr been seen before by any one other than you. Such a form is now revealed to you, who are My devotee, by Me who am gracious, by My own Yoga, namely, by the power of willing the truth associated with Me. Sri Krsna proceeds to say, It is not possible that I can be realised as I am, through any means except exclusive Bhakti.
“O Arjuna, you have said that you desired to see my majestic form (verse 3) and by your request, I have shown the form of the universe which is one of my parts. Why has your mind become disturbed on seeing it? Is it not astonishing that you plead with me, wanting now to see my human form?” Thus the Lord speaks this verse. Being pleased with you, I have shown this form to you (tava) alone, and not to anyone else, since it has not been seen previously by anyone. In spite of that, do you not want to see that form?
Being thus humbly entreated, Lord Krishna consoles Arjuna and cheers him up with the word prasannena which means being pleased and explains to him in this verse and the next two that there is no need for him to be fearful when out of His grace he has been shown the resplendent, supreme, unlimited, all pervading and powerful visvarupa or divine universal form by virtue of His phenomenal internal potency known as Yogamaya which was never before seen by anyone else previously.
The Padma Purana states that the Supreme Lord Krishna is known as visvam or all pervasive because of the maximum fullness and completeness of His attributes. The visvarupa or divine universal form had not been seen before on Earth previous to Arjuna, the son of Indra seeing it. This does not preclude that it had never been seen anywhere else in earlier ages but at no other time did His visvarupa exhibit unlimitedly as much as Arjuna had witnessed. The Brahmanda Purana states that in previous ages in various planetary systems the visvarupa had been seen by Brahma and then after by Siva and later it had been seen by Indra. Therefore others had witnessed the visvarupa in special situations but Arjuna was the first to see it on Earth.
Lord Krishna magnanimously expressed because He was prasannena tavarjunadam meaning very pleased by Arjuna and thus exhibited His visvarupa or divine universal form. The word tejo-mayam means resplendent and glorious, visvam means all pervasive, anantam means infinite without beginning, middle or end. The word adyam means first, the original, He who was before and prior to all else and the words atma-yogat means by His own infallible free will which manifests as His sakti or internal energy known as Yogamaya. Arjuna was the Supreme Lords devotee who by His grace bequeathed upon him the vision to see the visvarupa which had never been revealed on Earth before. Next will be explained that except by bhakti or exclusive loving devotion it is not possible by any means whatsoever to realise the Supreme Lord Krishna and attain communion with Him.
Lord Krishna magnanimously expressed because He was prasannena tavarjunadam meaning very pleased by Arjuna and thus exhibited His visvarupa or divine universal form. The word tejo-mayam means resplendent and glorious, visvam means all pervasive, anantam means infinite without beginning, middle or end. The word adyam means first, the original, He who was before and prior to all else and the words atma-yogat means by His own infallible free will which manifests as His sakti or internal energy known as Yogamaya. Arjuna was the Supreme Lords devotee who by His grace bequeathed upon him the vision to see the visvarupa which had never been revealed on Earth before. Next will be explained that except by bhakti or exclusive loving devotion it is not possible by any means whatsoever to realise the Supreme Lord Krishna and attain communion with Him.
Sri Bhagavaan Uvaacha: Mayaa prasannena tavaarjunedamRoopam param darshitamaatmayogaat; Tejomayam vishwamanantamaadyamYanme twadanyena na drishtapoorvam.
śhrī-bhagavān uvācha—the Blessed Lord said; mayā—by me; prasannena—being pleased; tava—with you; arjuna—Arjun; idam—this; rūpam—form; param—divine; darśhitam—shown; ātma-yogāt—by my Yogmaya power; tejaḥ-mayam—resplendent; viśhwam—cosmic; anantam—unlimited; ādyam—primeval; yat—which; me—my; tvat anyena—other than you; na dṛiṣhṭa-pūrvam—no one has ever seen