न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।11.48।।
।।11.48।।हे कुरुप्रवीर मनुष्यलोकमें इस प्रकारके विश्वरूपवाला मैं न वेदोंके पढ़नेसे? न यज्ञोंके अनुष्ठानसे? न दानसे? न उग्र तपोंसे और न मात्र क्रियाओंसे तेरे (कृपापात्रके) सिवाय और किसीके द्वारा देखा जाना शक्य हूँ।
।।11.48।। हे कुरुप्रवीर तुम्हारे अतिरिक्त इस मनुष्य लोक में किसी अन्य के द्वारा मैं इस रूप में? न वेदाध्ययन और न यज्ञ? न दान और न (धार्मिक) क्रियायों के द्वारा और न उग्र तपों के द्वारा ही देखा जा सकता हूँ।।
।।11.48।। व्याख्या -- कुरुप्रवीर -- यहाँ अर्जुनके लिये कुरुप्रवीर सम्बोधन देनेका अभिप्राय है कि सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें मेरेसे उपदेश सुननेकी? मेरे रूपको देखनेकी और जाननेकी तेरी जिज्ञासा हुई? तो यह,कुरुवंशियोंमें तुम्हारी श्रेष्ठता है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्को देखनेकी? जाननेकी इच्छा होना ही वास्तवमें मनुष्यकी श्रेष्ठता है।न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः -- वेदोंका अध्ययन किया जाय? यज्ञोंका विधिविधानसे अनुष्ठान किया जाय? बड़ेबड़े दान किये जायँ? बड़ी उग्र (कठिनसेकठिन) तपस्याएँ की जायँ और तीर्थ? व्रत आदि शुभकर्म किये जायँ -- ये सबकेसब कर्म विश्वरूपदर्शनमें हेतु नहीं बन सकते। कारण कि जितने भी कर्म किये जाते हैं? उन सबका आरम्भ और समाप्ति होती है। अतः उन कर्मोंसे मिलनेवाला फल भी आदि और अन्तवाला ही होता है। अतः ऐसे कर्मोंसे भगवान्के अनन्त? असीम? अव्यय? दिव्य विश्वरूपके दर्शन कैसे हो सकते हैं उसके दर्शन तो केवल भगवान्की कृपासे ही होते हैं। कारण कि भगवान् नित्य हैं और उनकी कृपा भी नित्य है। अतः नित्य कृपासे ही अर्जुनको भगवान्के नित्य? अव्यय? दिव्य विश्वरूपके दर्शन हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि उनमेंसे एकएकमें अथवा सभी साधनोंमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वे विराट्रूपके दर्शन करा सकें। विराट्रूपके दर्शन तो केवल भगवान्की कृपासे? प्रसन्नतासे ही हो सकते हैं।गीतामें प्रायः यज्ञ? दान और तप -- इन तीनोंका ही वर्णन आता है। आठवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें और इसी अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें वेद? यज्ञ? दान और तप -- इन चारोंका वर्णन आया है और यहाँ वेद? यज्ञ? दान? तप और क्रिया -- इन पाँचोंका वर्णन आया है। आठवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें सप्तमी विभक्ति और बहुवचन तथा यहाँके श्लोकमें तृतीया विभक्ति और बहुवचनका प्रयोग हुआ है? जब कि दूसरी जगहः प्रायः प्रथमा विभक्ति और एकवचनका प्रयोग आता है।यहाँ तृतीया विभक्ति और बहुवचन देनेका तात्पर्य यह है कि इन वेद? यज्ञ? दान आदि साधनोंमेंसे एकएक साधन विशेषतासे बहुत बार किया जाय अथवा सभी साधन विशेषतासे बहुत बार किये जायँ? तो भी वे सबकेसब साधन विश्वरूपदर्शनके कारण नहीं बन सकते अर्थात् इनके द्वारा विश्वरूप नहीं देखा जा सकता। कारण कि विश्वरूपका दर्शन करना किसी कर्मका फल नहीं है।जैसे यहाँ वेद? यज्ञ आदि साधनोंसे विश्वरूप नहीं देखा जा सकता -- ऐसा कहकर विश्वरूपदर्शनकी दुर्लभता बतायी है? ऐसे ही आगे तिरपनवें श्लोकमें वेद? यज्ञ आदि साधनोंसे चतुर्भुजरूप नहीं देखा जा सकता -- ऐसा कहकर चतुर्भुजरूप -- दर्शनकी दुर्लभता बतायी है। चतुर्भुजरूपको देखनेमें अनन्यभक्तिको साधन बताया है। (11। 54) क्योंकि वह रूप ऐसा विलक्षण है कि उसका दर्शन देवता भी चाहते हैं। इसलिये उस रूपमें भक्ति हो सकती है। परन्तु विश्वरूपको देखकर तो भय लगता है अतः ऐसे रूपमें भक्ति कैसे होगी? प्रेम कैसे होगा इसलिये इसके दर्शनमें भक्तिको साधन नहीं बताया है। यह तो केवल भगवान्की प्रसन्नतासे? कृपासे ही देखा जा सकता है।एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन -- मनुष्यलोकमें इन साधनोंसे तुम्हारे सिवाय मेरा विश्वरूप कोई देख नहीं सकता -- इसका अर्थ यह नहीं है कि इन साधनोंसे तू देख सकता है। तुम्हारेको तो मैंने अपनी प्रसन्नतासे ही यह रूप दिखाया है।सञ्जयको भी जो विश्वरूपके दर्शन हो रहे थे? वह भी व्यासजीकी कृपासे प्राप्त दिव्यदृष्टिसे ही हो रहे थे? किसी दूसरे साधनसे नहीं। तात्पर्य है कि भगवान् और उनके भक्तों? सन्तोंकी कृपासे जो काम होता है? वह काम साधनोंसे नहीं होता। इनकी कृपा भी अहैतुकी होती है।कई लोग ठीक न समझनेके कारण ऐसा कहते हैं कि भगवान्ने अर्जुनको विश्वरूप दिखाया नहीं था? प्रत्युत यह समझा दिया था कि मेरे शरीरके किसी एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। पर वास्तवमें यह बात है ही नहीं। स्वयं भगवान्ने कहा है कि मेरे इस शरीरमें एक जगह चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को अभी देख ले ( 11 । 7)। जब अर्जुनको दिखायी नहीं दिया? तब भगवान्ने कहा कि तू अपने इन चर्मचक्षुओंसे मेरे विश्वरूपको नहीं देख सकता? इसलिये मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ (11। 8)। फिर भगवान्ने अर्जुनको दिव्यचक्षु देकर साक्षात् अपना विश्वरूप दिखाया। सञ्जयने भी कहा है कि भगवान्के शरीरमें एक जगह स्थित विश्वरूपको अर्जुनने देखा (11। 13)। अर्जुनने भी विश्वरूपका दर्शन करते हुए कहा कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंके समुदायोंको तथा ब्रह्मा? विष्णु? महेश आदि सबको देख रहा हूँ (11। 15) आदिआदि। इससे सिद्ध होता है कि भगवान्ने अर्जुनको प्रत्यक्षमें अपने विश्वरूपके दर्शन कराये थे। दूसरी बात? समझानेके लिये तो ज्ञानचक्षु होते हैं (गीता 13। 34 15। 11)? पर दिव्यचक्षुसे साक्षात् दर्शन ही होते हैं। अतः भगवान्ने केवल कहकर समझा दिया हो? ऐसी बात नहीं है। सम्बन्ध -- अर्जुनका भय दूर करनेके लिये भगवान् आगेके श्लोकमें उनको देवरूप देखनेकी आज्ञा देते हैं।
।।11.48।। यहाँ भगवान् यह स्पष्ट करते हैं कि किस कारण से अर्जुन इस असाधारण अनुभव को प्राप्त करने में विशेष अभिनन्दन का पात्र है। वे कहते हैं कि केवल वेदों का अध्ययन या यज्ञादि के अनुष्ठान से ही किसी में इस विश्वरूप को देख सकते की पात्रता नहीं आती। उसी प्रकार? दान धर्म या तप के आचरण से प्राप्त पुण्य भी इस दर्शन का अधिकार नहीं प्राप्त करता है। संक्षेप में? कठिन? साधनाओं के अभ्यास से भी जिसे पाना दुर्लभ है? उसे अर्जुन ने प्राप्त कर लिया? और इस कारण वह विशेष अभिनन्दन का पात्र है।भगवान् द्वारा यहाँ कहे गये वचनों का विपरीत अर्थ करके कोई यह नहीं समझे कि उन्होंने वेदाध्ययनादि की निन्दा की है अथवा ये समस्त साधन अनुपयोगी होने के कारण त्याज्य हैं। तात्पर्य यह है कि अध्ययन? यज्ञ? दान और तप ये सब अन्तकरण की शुद्धि तथा एकाग्रता प्राप्ति के साधन हैं? जो अनेकता में एकता के दर्शन करने के लिए अत्यावश्यक है। परन्तु कोई यह भी नहीं समझे कि यज्ञदानादि साधन अपने आप में ही पूर्ण हैं या वे ही साध्य हैं। केवल वेदाध्ययन आदि से ही एकत्व का बोध और साक्षात् अनुभव नहीं हो सकता। जब साधन सम्पन्न मन वृत्तिशून्य हो जाता है केवल तभी उसकी उस अन्तर्मुखी स्थिति में यह दर्शन सम्भव होता है। तात्पर्य यह है कि भोजन पाक सिद्धि अपने आप में क्षुधा शान्ति नहीं कर सकती? किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि पाकसिद्धि अनावश्यक है। इस दृष्टि से हमें इस श्लोक का अर्थ समझना चाहिए।भगवान् आगे कहते हैं
11.48 Not by the study of the Vedas and sacrifices, not by gifts, not even by rituals, not by severe austerities can I, in this form, be perceived in the human world by anyone [By anyone who has not received My grace. other than you, O most valiant among the Kurus.
11.48 Neither by the study of the Vedas and sacrifices, nor by gifts nor by rituals nor by severe austerities can I be seen in this form in the world of men by any other than thyself, O great hero of the Kurus (Arjuna).
11.48. Not by the knowledge of the Vedas and sacrifices, nor by making gifts, nor by the rituals, nor by severe austerities, can I be seen in this form in the world of men, by anybody other than yourself, O the great hero of the Kurus !
11.48 न not? वेदयज्ञाध्ययनैः by the study of the Vedas and of Yajnas? न not? दानैः by gifts? न not? च and? क्रियाभिः by rituals? न not? तपोभिः by austerities? उग्रैः severe? एवंरूपः in such form? शक्यः (am) possible? अहम् I? नृलोके in the world of men? द्रष्टुम् to be seen? त्वत् than thee? अन्येन by another? कुरुप्रवीर O great hero of the Kurus.Commentary Mere cramming of the texts of the Vedas without knowing the meaning will not do. A study of the sacrifices also is necessary. One should know the meaning of these? also.Dana Charity such as a Tula Purusha (gift of gold eal in weight of a man) Kanyadana (gift of ones daughther in marriage)? gift of a cow? rice? etc.Kriya Rituals such as Agnihotra.Tapas Such as the Chandrayana Vrata. (This is a kind of Vrata or observance. The daily consumption of food is reduced by one mouthful every day for the dark half of the month beginning with the fullmoon. Then the food is increased by one mouthful every day during the bright fortnight during the increase of the moon. This Vrata (observance) is a great purifier of the mind. It destroys sins.)
11.48 Na veda-yajna-adhyayanaih, not by the study of the Vedas and sacrifices, (i.e.) not by the methodical study of even the four Vedas and the study of the sacrifices-since the study of the sacrifices is achieved by the very study of the Vedas, the separate mention of the study of sacrifices is for suggesting detailed knowledge of sacrifices; [This separate mention of the study of sacrifices is necessary because the ancients understood the study of Vedas to mean learing them by rote.] so also, na danaih, not by gifts-in such forms as distributing wealth eal to the weight of the giver; na ca kriyabhih, not even by rituals-by Vedic and other rituals like Agnihotra etc.; nor even ugraih tapobhih, by severe austerities such a Candrayana [A religious observance or expiatory penance regulated by the moons phases. In it the daily antity of food, which consists of fifteen mouthfuls at the full-moon, is curtailed by one mouthful during the dark fornight till it is reduced to nothing at the new moon; and it is increased in a like manner during the bright fortnight.-V.S.A.] etc. which are frightful; sakyah aham, can I; evam rupam, in this form-possessing the Cosmic form as was shown; drastum, be perceived; nrloke, in the human world; tvad-anyena, by anyone other than you; kuru-pravira, O most valiant among the Kurus.
11.48 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.48 In this form, which represents My real nature, I cannot be realised by such means as study of the Vedas, sacrifices etc., by anyone who is bereft of exclusive Bhakti towards Me or by any one other than yourself who has complete devotion towards Me.
This form which I have shown to you is rarely seen even by those who study the Vedas and follow other processes. I cannot be seen in this form (evam rupah) by anyone except you. The absence of visarga and consequent samdhi to form sakyo’ ham instead of sakya aham in this verse is poetic license. Therefore considering this, that you have attained something which is not attainable, fix your mind on this form, difficult to see for everyone, which is certainly the Lord. Having seen that form, you should forget about the human form you again desire to see.
Having seen Lord Krishnas visvarupa or divine universal form whose vision was first beheld by Arjuna in the material worlds and very difficult to behold. Arjuna was blest as no one else on the battlefield was capable of seeing the visvarupa. The words veda-yajna refers to books on rituals for propitiating the Supreme Lord such as the Kalpa Sutras. Therefore Lord Krishna is declaring that neither study of the Vedas and books on rituals and ceremonies such as Agnihotra or offering ghee daily into the sacred fire, nor by giving profusely in charity or undergoing extreme penances like Chandrayana which is increasing and decreasing the food intake each day according to the bright and dark fortnights of the moon cycle which goes from one mouthful of food a day to 15 mouthfuls of food each day and back down again in one month. By none of these methods singularly or all together can one qualify themselves in order to see His visvarupa. It was only by the grace of Lord Krishna that Arjuna alone was able to see it on the battlefield. Sanjaya who was blest to see everything that transpired on the battlefield by the avatara or incarnation Vedavyasa, saw the visvarupa in his mind at the palace of the blind King Dhritarastra and thus he could describe it to him.
Even by devout and diligent study of the Vedic scriptures and their ancillaries it is not possible to witness Lord Krishnas visvarupa or divine universal form. Only due to Arjunas unflinching devotion and friendship to the Supreme Lord Krishna throughout his life was it possible him to be graced to see this form, those without devotion can never qualify to see it.
Here it is explained that not by study of the Vedas, nor by charity, rituals or extreme penance can the visvarupa or divine universal form be seen by anyone who does not possess bhakti or exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna.
Here it is explained that not by study of the Vedas, nor by charity, rituals or extreme penance can the visvarupa or divine universal form be seen by anyone who does not possess bhakti or exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna.
Na vedayajnaadhyayanairna daanairNa cha kriyaabhirna tapobhirugraih; Evam roopah shakya aham nrilokeDrashtum twadanyena karupraveera.
na—not; veda-yajña—by performance of sacrifice; adhyayanaiḥ—by study of the Vedas; na—nor; dānaiḥ—by charity; na—nor; cha—and; kriyābhiḥ—by rituals; na—not; tapobhiḥ—by austerities; ugraiḥ—severe; evam-rūpaḥ—in this form; śhakyaḥ—possible; aham—I; nṛi-loke—in the world of the mortals; draṣhṭum—to be seen; tvat—than you; anyena—by another; kuru-pravīra—the best of the Kuru warriors