न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।11.48।।
।।11.48।। हे कुरुप्रवीर तुम्हारे अतिरिक्त इस मनुष्य लोक में किसी अन्य के द्वारा मैं इस रूप में? न वेदाध्ययन और न यज्ञ? न दान और न (धार्मिक) क्रियायों के द्वारा और न उग्र तपों के द्वारा ही देखा जा सकता हूँ।।
Here it is explained that not by study of the Vedas, nor by charity, rituals or extreme penance can the visvarupa or divine universal form be seen by anyone who does not possess bhakti or exclusive loving devotion unto the Supreme Lord Krishna.