मा ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।11.49।।
।।11.49।। इस प्रकार मेरे इस घोर रूप को देखकर तुम व्यथा और मूढ़भाव को मत प्राप्त हो। निर्भय और प्रसन्नचित्त होकर तुम पुन मेरे उसी (पूर्व के) रूप को देखो।।
।।11.49।। जब कभी अवसर प्राप्त होता है? व्यासजी की नाट्यप्रतिभा अपनी पूर्णता को पाने में कभी विफल नहीं होती। यहाँ ऐसे ही एक कलात्मक चित्र का उदाहरण प्रस्तुत है? जो गीतारूपी पटल पर व्यासजी ने शब्दों के द्वारा चित्रित किया है। अर्जुन के मानसिक विक्षेपों को यहाँ नाटकीय ढंग से भगवान् के इन शब्दों में दर्शाते हैं कि? तुम मेरे इस घोर रूप को देखकर भय और मोह को मत प्राप्त हो।भगवान् अपने मधुर वचनों एवं व्यवहार से अर्जुन को सांत्वना देते हुए उसके मन को पुन शान्त और प्रसन्न करते हैं। भगवान् पुन अपने मूलरूप को धारण करते हैं? जिसकी सूचना देते हुए वे कहते हैं कि? पुन मेरे उसी रूप को देखो।यह खण्ड जो भगवान् का अपने पूर्व के सौम्य और शान्त रूप में पुनर्प्रवेश का वर्णन करता है? उससे वेदान्त के विद्यार्थियों को किसी एक महावाक्य का तो स्मरण होना ही चाहिए। समष्टि के घोर विश्वरूप तथा श्रीकृष्ण के सौम्य दिव्य व्यष्टि रूप का एकत्व इस वाक्य द्वारा कि मेरा वही यह रूप,हैअत्यन्त सुन्दर प्रकार से दर्शाया गया है। वस्तुत जो परम सत्य श्रीकृष्ण की व्यष्टि उपाधि में व्यक्त हो रहा है? वही सत्य विराटरूप में भी है? जहाँ वह समस्त नामरूपों के अधिष्ठान के रूप में स्थित है। तरंगों का अधिष्ठान समुद्र है। यदि समुद्र शक्तिशाली? भयंकर घोर और विशाल है तो स्वयं तरंग लज्जालु और सौम्य? प्रिय तथा आकर्षक होती है।एक बार फिर दृश्य है हस्तिनापुर का? जहाँ राजभवन में अन्ध वृद्ध धृतराष्ट्र को संजय बताता है कि