मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।।
।।11.55।।हे पाण्डव जो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला? मेरे ही परायण और मेरा ही भक्त है तथा सर्वथा आसक्तिरहित और प्राणिमात्रके साथ निर्वैर है? वह भक्त मेरेको प्राप्त हो जाता है।
।।11.55।। हे पाण्डव जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है? और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है? जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है? जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है? वह मुझे प्राप्त होता है।।
।।11.55।। व्याख्या -- [इस श्लोकमें पाँच बातें आयी हैं। इन पाँचोंको साधनपञ्चक भी कहते हैं। इन पाँचों बातोंके दो विभाग हैं। (1) भगवान्के साथ घनिष्ठता और (2) संसारके साथ सम्बन्धविच्छेद। पहले विभागमें मत्कर्मकृत्? मत्परमः और मद्भक्तः -- ये तीन बातें हैं और दूसरे विभागमें सङ्गवर्जितः औरनिर्वैरः सर्वभूतेषू -- ये दो बातें हैं।मत्कर्मकृत् -- जो जप? कीर्तन? ध्यान? सत्सङ्ग? स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्मोंको और वर्ण? आश्रम? देश? काल? परिस्थिति आदिके अनुसार प्राप्त लौकिक कर्मोंको केवल मेरे लिये ही अर्थात् मेरी प्रसन्नताके लिये ही करता है? वह मत्कर्मकृत् है।वास्तवमें देखा जाय तो कर्मके पारमार्थिक और लौकिक -- ये दो बाह्यरूप होते हैं? पर भीतरमें सब कर्म केवल भगवान्के लिये ही करने हैं -- ऐसा एक ही भाव रहता है? एक ही उद्देश्य रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्त शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसे जो कुछ भी कर्म करता है? वह सब भगवान्के लिये ही करता है। कारण कि उसके पास शरीर? मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? योग्यता? करनेकी सामर्थ्य? समझ आदि जो कुछ है? वह सबकीसब भगवान्की ही दी हुई है और भगवान्की ही है? तथा वह स्वयं भी भगवान्का ही है। वह तो केवल भगवान्की प्रसन्नताके लिये? भगवान्की आज्ञाके अनुसार? भगवान्की दी हुई शक्तिसे निमित्तमात्र बनकर कार्य करता है। यही उसका मत्कर्मकृत् होना है।मत्परमः -- जो मेरेको ही परमोत्कृष्ट समझकर केवल मेरे ही परायण रहता है अर्थात् जिसका परम प्रापणीय? परम ध्येय? परम आश्रय केवल मैं ही हूँ? ऐसा भक्त मत्परमः है।मद्भक्तः -- जो केवल मेरा ही भक्त है अर्थात् जिसने मेरे साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया है कि मैं केवल भगवान्का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं? तथा मैं अन्य किसीका भी नहीं हूँ और अन्य कोई भी मेरा नहीं है। ऐसा होनेसे भगवान्में अतिशय प्रेम हो जाता है क्योंकि जो अपना होता है? वह स्वतः प्रिय लगता है। प्रेमकी जागृतिमें अपनापन ही मुख्य है।वह भक्त सब देशमें? सब कालमें? सम्पूर्ण वस्तुव्यक्तियोंमें और अपनेआपमें सदासर्वदा प्रभुको ही परिपूर्ण देखता है। इस दृष्टिसे प्रभु सब देशमें होनेसे यहाँ भी हैं? सब कालमें होनेसे अभी भी हैं? सम्पूर्ण वस्तुव्यक्तियोंमें होनेसे मेरेमें भी हैं और सबके होनेसे मेरे भी हैं -- ऐसा भाव रखनेवाला ही मद्भक्तः है।सङ्गवर्जितः निर्वैरः सर्वभूतेषु यः -- केवल भगवान्के लिये ही कर्म करनेसे? केवल भगवान्के ही परायण रहनेसे और केवल भगवान्का ही भक्त बननेसे क्या होता है इसका उपर्युक्त पदोंसे वर्णन करते हैं कि वह,सङ्गवर्जितः हो जाता है अर्थात् उसकी संसारमें आसक्ति? ममता और कामना नहीं रहती। आसक्ति? ममता और कामनासे ही संसारके साथ सम्बन्ध होता है। भगवान्में अनन्य प्रेम होते ही आसक्ति आदिका अत्यन्त अभाव हो जाता है।दूसरी बात? जब भक्तको मैं भगवान्का ही अंश हूँ -- इस वास्तविकताका अनुभव हो जाता है? तब उसका भगवान्में प्रेम जाग्रत् हो जाता है। प्रेम जाग्रत् होनेपर रागका अत्यन्त अभाव हो जाता है। रागका अत्यन्त अभाव होनेसे और सर्वत्र भगवद्भाव होनेसे उसके शरीरके साथ कोई कितना ही दुर्व्यवहार करे? उसको मारेपीटे? उसका अनिष्ट करे? तो भी उसके हृदयमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति किञ्चिन्मात्र भी वैरभाव उत्पन्न नहीं होता। वह उसमें भगवान्की ही मरजी? कृपा मानता है। ऐसे भक्तको भगवान्ने निर्वैरः सर्वभूतेषु कहा है।सङ्गवर्जितः और निर्वैरः सर्वभूतेषु -- इन दोनोंका वर्णन करनेका तात्पर्य उसका संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है यह बतानेमें है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर स्वतःसिद्ध परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।स मामेति -- ऐसा वह मेरा भक्त मेरेको ही प्राप्त हो जाता है। स मामेति में तत्त्वसे जानना? दर्शन करना और प्राप्त होना -- ये तीनों ही बातें आ जाती हैं? जो कि पीछेके (चौवनवें) श्लोकमें बतायी गयी हैं। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्यसे मनुष्यजन्म हुआ है? वह उद्देश्य सर्वथा पूर्ण हो जाता है।विशेष बातश्रीभगवान्ने नवें अध्यायके अन्तमें कहा था -- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।(9। 34)। ऐसा कहनेपर भी भगवान्के मनमें यह बात रह गयी कि मैं अपने रहस्यकी सब बात किस तरहसे? किस रीतिसे समझाऊँ इसीको समझानेके लिये भगवान्ने दसवाँ और ग्यारहवाँ अध्याय कहा है।जीवने उत्पत्तिविनाशशील और नित्य परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरसंसारका सहारा ले रखा है? जिससे यह अविनाशी और नित्य अपरिवर्तनशील भगवान्से विमुख हो रहा है। इस विमुखताको मिटाकर जीवको भगवान्के सम्मुख करनेमें ही इन दोनों -- दसवें और ग्यारहवें अध्यायका तात्पर्य है।इस मनुष्यके पास दो शक्तियाँ हैं -- चिन्तन करनेकी और देखनेकी। इनमेंसे जो चिन्तन करनेकी शक्ति है? उसको भगवान्की विभूतियोंमें लगाना चाहिये। तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु? व्यक्ति आदिमें जो कुछ विशेषता? महत्ता? विलक्षणता? अलौकिकता दीखे और उसमें मन चला जाय? उस विशेषता आदिको भगवान्की ही मानकर वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये। इसके लिये भगवान्ने दसवाँ अध्याय कहा है।दूसरी जो देखनेकी शक्ति है? उसको भगवान्में लगाना चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे भगवान्के दिव्य अविनाशी विराट्रूपमें अनेक रूप हैं? अनेक आकृतियाँ हैं? अनेक तरहके दृश्य हैं? ऐसे ही यह संसार भी उस विराट्रूपका ही एक अङ्ग है और इसमें अनेक नाम? रूप? आकृति आदिके रूपमें परमात्माहीपरमात्मा परिपूर्ण हैं। इस दृष्टिसे सबको परमात्मस्वरूप देखे। इसके लिये भगवान्ने ग्यारहवाँ अध्याय कहा है।अर्जुनने भी इन दोनों दृष्टियोंके लिये दो बार प्रार्थना की है। दसवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें अर्जुनने कहा कि हे भगवन् मैं किनकिन भावोंमें आपका चिन्तन करूँ तो भगवान्ने चिन्तनशक्तिको लगानेके लिये अपनी विभूतियोंका वर्णन किया। ग्यारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने कहा कि मैं आपके रूपको देखना चाहता हूँ तो भगवान्ने अपना विश्वरूप दिखाया और उसको देखनेके लिये अर्जुनको दिव्यचक्षु दिये।तात्पर्य यह हुआ कि साधकको अपनी चिन्तन और दर्शनशक्तिको भगवान्के सिवाय दूसरी किसी भी जगह खर्च नहीं करनी चाहिये अर्थात् साधक चिन्तन करे तो परमात्माका ही चिन्तन करे और जिस किसीको देखे तो उसको परमात्मस्वरूप ही देखे।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें विश्वरूपदर्शनयोग नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।11।।
।।11.55।। अर्जुन ने यह सुना कि अनन्यभक्ति के द्वारा कोई भी भक्त? भगवान् के समष्टि वैभव को न केवल पहचान ही सकता है? वरन् स्वयं में ही उसका साक्षात् अनुभव भी कर सकता है। तब पाण्डव राजपुत्र के मुख पर उस अनुभव या पद को प्राप्त करने की उत्सुकता दिखाई दी। यद्यपि उसने स्पष्ट प्रश्न नहीं किया तथापि उसके मुख के भाव से ही उसे समझकर भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ वर्णन करते हैं कि कोई साधक जीवन में इस पूर्णत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है।किसी जीव को ईश्वरत्व प्राप्त करने का श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योजना के पांच अंग हैं। उन पांच अंगों या आवश्यक गुणों को इस श्लोक में बताया गया है। वे गुण हैं (1) जो ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करता है? (2) जिसका परम लक्ष्य ईश्वर ही है? (3) जो ईश्वर का भक्त है? (4) जो आसक्तियों से रहित है? तथा (5) जो भूतमात्र के प्रति वैरभाव से रहित है।इन पांच आवश्यक गुणों में आत्मसंयम की सम्पूर्ण साधना का सारांश दिया गया है। ईश्वर के अखण्ड स्मरण से ही समस्त उपाधियों के कर्मों में अनासक्ति का भाव दृढ़ होता है। किसी व्यक्ति के प्रति वैरभाव तभी होता है? जब हम उसे पराया समझते हैं। मेरे ही दोनों हाथों के मध्य कोई वैरभाव नहीं हो सकता। आत्मैकत्व के बोध से जब सर्वत्र एकता का दर्शन और अनुभव होता है? केवल तभी समस्त भूतों के प्रति पूर्ण निर्वैरभाव प्राप्त हो सकता है।मन और बुद्धि के स्तर पर सर्वथा अनासक्ति होना असंभव है। मन और बुद्धि किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति के बिना नहीं रह सकते हैं। इसलिए एक साधक? सर्वप्रथम? ईश्वरार्पण की भावना के द्वारा विषयासक्ति को त्यागना सीखता है? और तत्पश्चात् अपने मन को भक्ति के साथ ईश्वर में स्थित कर देता है। इस अंग की पूर्णता के लिए पूर्व कथित गुण निश्चय ही सहायक होते हैं।इस प्रकार? सम्पूर्ण योजना का पुनरावलोकन करने पर ज्ञात होगा कि वह पूर्ण मनोवैज्ञानिक होने के कारण सर्वथा स्वीकार्य है। प्रत्येक उत्तर अंग अपने पूर्व अंग से पोषित होता है। इस श्लोक से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि अध्यात्म के साधक की महान् पवित्र तीर्थयात्रा ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने से प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् स्वयं ईश्वर ही उसके जीवन का परम लक्ष्य बन जाता है। इसका परिणाम होगा ईश्वर के प्रति परम प्रेम। स्वाभाविक है कि जगत् की अनित्य? परिच्छिन्न वस्तुओं के साथ उसकी आसक्ति समाप्त हो जायेगी और वह आत्मा का दर्शन कर सकेगा। जब स्वयं आत्मस्वरूप ही बनकर वह स्वयं को सर्वत्र? सब भूतों में पहचानेगा? तब उसका किसी भी प्राणी से किसी प्रकार का वैर नहीं होगा।गीता के अनुसार साधना के द्वारा प्राप्त आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता की कसौटी है सबसे प्रेम और किसी से द्वेष नहीं होना।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का विश्वरूप दर्शनयोग नामक ग्यारहवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय का विश्वरूपदर्शनयोग यह नाम सार्थक है। वेदान्तशास्त्र की परिभाषिक शब्दावली के अनुसार यहाँ प्रयुक्त विश्वरूप शब्द का वास्तविक अर्थ विराट्रूप है। आत्मा एक व्यष्टि स्थूल देह के साथ तादात्म्य को प्राप्त होकर जाग्रत् अवस्था की घटनाओं का अनुभव करता है। इस अवस्था में स्थित आत्मा को वेदान्त में विश्व कहा जाता है। वही आत्मा समष्टि स्थूल देह अर्थात् ब्रह्माण्ड के साथ तादात्म्य प्राप्त कर विराट् कहलाता है। यद्यपि यहाँ भगवान् ने अपना विराट्रूप दिखाया है? तथापि इस अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शनयोग है। इससे विश्व और विराट् के पारमार्थिक एकत्व का बोध होता है।
11.55 O son of Pandu, he who works for Me, accepts Me as the supreme Goal, is devoted to Me, is devoid of attachment and free from enmity towards all beings-he attains Me.
11.55 He who does all actions for Me, who looks upon Me as the Supreme, who is devoted to Me, who is free from attachment, who bears enmity towards no creature, he comes to Me, O Arjuna.
11.55. He, who performs actions for [attaining] Me; who regards Me as his supreme goal; who is devoted to Me; who is free from attachment; and who is free from hatred towards all beings-he attains me, O son of Pandu !
11.55 मत्कर्मकृत् does actions for Me? मत्परमः looks on Me as the Supreme? मद्भक्तः is devoted to Me? सङ्गवर्जितः is freed from attachment? निर्वैरः without enmity? सर्वभूतेषु towards all creatures? यः who? सः he? माम् to Me? एति goes? पाण्डव O Arjuna.Commentary This is the essence of the whole teaching of the Gita. He who practises this teaching will attain Supreme Bliss and Immortality. This verse contains the summary of the entire philosophy of the Gita.He who performs actions (duties) for the sake of the Lord? who consecrates all his actions to Him? who serves the Lord with his heart and soul? who regards the Lord as his supreme goal? who lives for Him alone? who works for Him alone? who sees the Lord in everything? who sees the whole world as the Cosmic Form of the Lord and therefore cherishes no feeling of hatred or enmity towards any creature even when great injury has been done by others to him? who has no attachment or love to wealth? children? wife? friends and relatives? and who seeks nothing else but the Lord? realises Him and enters into His Being. He becomes one with Him.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eleventh discourse entitledThe Yoga of the Vision of the Cosmic Form.,
11.55 Pandava, O son of Pandu; yah, he who; mat-karma-krt, works for Me: work for Me is mat-karma; one who does it is mat-karma-krt-. Mat-paramah, who accepts Me as the supreme Goal: A servant does work for his master, but does not accept the master as his own supreme Goal to be attained after death; his one, however, who does work for Me, accepts Me alone as the supreme Goal. Thus he is matparamah-one to whom I am the supreme Goal-. So also he who is madbhaktah, devoted to me: He adores Me alone in all ways, with his whole being and full enthusiasm. Thus he is madbhaktah-. Sanga-varjitah, who is devoid of attachment for wealth, sons, friends, wife and relatives, Sanga means fondness, love; devoid of them-. Nirvairah, who is free from enmity; sarva-bhutesu, towards all beings-berefit of the idea of enmity even towards those engaged in doing unmost harm to him-. Sah, he who is such a devotee of Mine; eti, attains; mam, Me. I alone am his supreme Goal; he does not attain any other goal. This is the advice for you, given by Me as desired by you.
11.54-55 Bhaktya etc. Mat-karma etc. Those, whose devotion, charming by the absence of any other object in it, bursts forth-to the field of realisation of those persons descends the Vasudea - tattva, the Absolute being, without any effort (on their part) just on account of their appreciation of the advice given earlier as Having the realisation that Vasudeva is all, one takes refuge in Me. etc.
11.55 Whosoever performs all acts like the study of the Vedas described above, considering them as several modes of worship, he works for Me. He who looks upon Me as the highest, namely, one to whom I alone am the highest purpose in all his enterprises, has Me as the highest end. He who is devoted to me, i.e., is greatly devoted to me and hence unable to sustain himself without reciting My names, praising Me, meditating upon Me, worshipping Me, saluting Me etc., he who performs these always considering Me as the supreme end - he is My devotee. He is free from attachments, as he is attached to me alone, and is therefore unable to have attachment to any other entity. He who is without hatred towards any being, is one who fulfils all the following conditions: his nature is to feel pleasure or pain solely on account of his union or separation from Me; he considers his own sins to be the cause of his sufferings (and not the work of others); he is confirmed in his faith that all beings are dependent on the Parama-purusa. For all these reasons he has no hatred for any one.
In order to summarize the subject of bhakti, in this verse the Lord speaks about the general characteristics of different types of devotees which were described starting in the seventh chapter. Sanga varjitah means devoid of material attachment. Arjuna understood that his victory on the battle field was dependant on the great power of Krishna alone. This is the meaning of this chapter.
In this verse the Supreme Lord Krishna reveals the ultimate secret which is the essence of the Vedic scripture and all spiritual scriptures. The spiritually motivated being who performs actions for Lord Krishna, who has Lord Krishna as their only goal, who are devoted to Him exclusively, who bears and commits no malice to any living entity such a being is able to attain the Supreme Lord and no other. Thus the Supreme Lord Krishna showed His visvarupa or divine universal form to His devotee which is extremely rarely seen even by the demigods after millions of penances and austerities.
The conclusion of all Vedic scriptures and goal of all Vedic teachings is now being revealed by Lord Krishna. The words mad-bhaktah mean exclusive loving devotion. The study of the Vedas, performing rituals, giving in charity, practicing austerities etc as given in verse 48 was in reference to seeing the thousand armed visvarupa or divine universal form. The same instructions were given in verse 53 in reference to seeing Lord Krishnas transcendental saccidananda form of eternal existence, unlimited cognisance and endless bliss. Here Lord Krishna specifies that by bhakti in dedicating all ones actions to Him, performing devotion to Him, making Him the ultimate goal of ones life without emnity towards any living entity is the method by which one can ultimately attain Him and all other activities Vedic activities must be accompanied by exclusive loving devotion unto Him.
The words mat-karma-krt means those who dedicate their lives to Lord Krishna. They study the Vedas, engage in meditation, carry out rituals of propitiation, perform penance and other spiritual activities of this nature; but all their activities are exclusively for the satisfaction of the Supreme Lord. The words mat-paramah means those who make Lord Krishna their ultimate shelter and goal of attainment towards which every effort they make is directed. The words mad-bhaktah means Lord Krishnas loving devotee to whom everything revolves around out of so much love for Him that one is unable to exist without always reflecting, remembering, meditating, serving, worshipping and praising Him etc. in one continuous flow without cessation. The words sanga-varjitah means weaned from worldly attachments due to one having total attachment to the Supreme Lord. The words nirvairah sarva-bhutesu means bearing no enmity towards any living being and successfully arises from three-fold considerations. Lord Krishnas devotees only happiness is being in communion with Him and His devotees only misery is when they are not in communion with Him. Hence they are unattached to all other living beings. Lord Krishnas devotees attribute all their difficulties and afflictions simply as a reaction to their own past actions. Hence they have no reason to hate any being for it. Lord Krishnas devotees have implicit faith that all living entities are subject to His sovereign rule and are under His complete control. Hence whatever comes on its own according to providence is independently occurring and not subject to anyones motive. Thinking in this enlightened way Lord Krishnas devotees are exempt from all enmity and possessing all these attributes are able to qualify themselves to come to Him. The words mam eti mean comes unto me which denotes that one will realise Lord Krishna as He is and join in communion with Him in their perfected spiritual body which is the actual goal resulting from developing ones spiritual qualities.
The words mat-karma-krt means those who dedicate their lives to Lord Krishna. They study the Vedas, engage in meditation, carry out rituals of propitiation, perform penance and other spiritual activities of this nature; but all their activities are exclusively for the satisfaction of the Supreme Lord. The words mat-paramah means those who make Lord Krishna their ultimate shelter and goal of attainment towards which every effort they make is directed. The words mad-bhaktah means Lord Krishnas loving devotee to whom everything revolves around out of so much love for Him that one is unable to exist without always reflecting, remembering, meditating, serving, worshipping and praising Him etc. in one continuous flow without cessation. The words sanga-varjitah means weaned from worldly attachments due to one having total attachment to the Supreme Lord. The words nirvairah sarva-bhutesu means bearing no enmity towards any living being and successfully arises from three-fold considerations. Lord Krishnas devotees only happiness is being in communion with Him and His devotees only misery is when they are not in communion with Him. Hence they are unattached to all other living beings. Lord Krishnas devotees attribute all their difficulties and afflictions simply as a reaction to their own past actions. Hence they have no reason to hate any being for it. Lord Krishnas devotees have implicit faith that all living entities are subject to His sovereign rule and are under His complete control. Hence whatever comes on its own according to providence is independently occurring and not subject to anyones motive. Thinking in this enlightened way Lord Krishnas devotees are exempt from all enmity and possessing all these attributes are able to qualify themselves to come to Him. The words mam eti mean comes unto me which denotes that one will realise Lord Krishna as He is and join in communion with Him in their perfected spiritual body which is the actual goal resulting from developing ones spiritual qualities.
Matkarmakrinmatparamo madbhaktah sangavarjitah; Nirvairah sarvabhooteshu yah sa maameti paandava.
mat-karma-kṛit—perform duties for my sake; mat-paramaḥ—considering me the Supreme; mat-bhaktaḥ—devoted to me; saṅga-varjitaḥ—free from attachment; nirvairaḥ—without malice; sarva-bhūteṣhu—toward all entities; yaḥ—who; saḥ—he; mām—to me; eti—comes; pāṇḍava—Arjun, the son of Pandu