न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।
।।11.8।।तू अपनी इस आँखसे अर्थात् चर्मचक्षुसे मेरेको देख ही नहीं सकता। इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ? जिससे तू मेरी ईश्वरसम्बन्धी सामर्थ्यको देख।
।।11.8।। व्याख्या -- न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा -- तुम्हारे जो चर्मचक्षु हैं? इनकी शक्ति बहुत अल्प और सीमित है। प्राकृत होनेके कारण ये चर्मचक्षु केवल प्रकृतिके तुच्छ कार्यको ही देख सकते हैं अर्थात् प्राकृत मनुष्य? पशु? पक्षी आदिके रूपोंको? उनके भेदोंको तथा धूपछाया आदिके रूपोंको ही देख सकते हैं। परन्तु वे मनबुद्धिइन्द्रियोंसे अतीत मेरे रूपको नहीं देख सकते।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् -- मैं तुझे अतीन्द्रिय? अलौकिक रूपको देखनेकी सामर्थ्यवाले दिव्यचक्षु देता हूँ अर्थात् तेरे इन चर्मचक्षुओंमें ही दिव्य शक्ति प्रदान करता हूँ? जिससे तू अतीन्द्रिय? अलौकिक पदार्थ भी देख सके और साथसाथ उनकी दिव्यताको भी देश सके।यद्यपि दिव्यता देखना नेत्रका विषय नहीं है? प्रत्युत बुद्धिका विषय है? तथापि भगवान् कहते हैं मेरे दिये हुए दिव्यचक्षुओंसे तू दिव्यताको अर्थात् मेरे ईश्वरसम्बन्धी अलौकिक प्रभावको भी देख सकेगा। तात्पर्य है कि मेरा विराट्रूप देखनेके लिये दिव्यचक्षुओंकी आवश्यकता है।पश्य क्रियाके दो अर्थ होते हैं -- बुद्धि(विवेक) से देखना और नेत्रोंसे देखना। नवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने पश्य मे योगमैश्वरम् कहकर बुद्धिके द्वारा देखने(जानने) की बात कही थी। अब यहाँ पश्य मे योगमैश्वरम् कहकर नेत्रोंके द्वारा देखनेकी बात कहते हैं।विशेष बातजैसे किसी जगह श्रीमद्भगवद्गीता -- ऐसा लिखा हुआ है। जिनको वर्णमालाका बिलकुल ज्ञान नहीं है? उनको तो इसमें केवल कालीकाली लकीरें दीखती हैं और जिनको वर्णमालाका ज्ञान है? उनको इसमें अक्षर दीखते हैं। परन्तु जो पढ़ालिखा है और जिसको गीताका गहरा मनन है? उसको श्रीमद्भगवद्गीता -- ऐसा लिखा हुआ दीखते ही गीताके अध्यायोंकी? श्लोकोंकी? भावोंकी सब बातें दीखने लग जाती हैं। ऐसे ही अर्जुनको जब भगवान्ने दिव्यचक्षु दिये? तब उनको अलौकिक विश्वरूप तथा उसकी दिव्यता भी दीखने लगी? जो कि साधारण बुद्धिका विषय नहीं है। यह सब सामर्थ्य भगवत्प्रदत्त दिव्यचक्षुकी ही थी। अब यहाँ एक शङ्का होती है कि जब अर्जुनने चौथे श्लोकमें कहा कि अगर मैं आपके विश्वरूपको देख सकता हूँ तो आप अपने विश्वरूपको दिखा दीजिये? तब उसके उत्तरमें भगवान्को यह आठवाँ श्लोक कहना चाहिये था कि तू अपने इन चर्मचक्षुओंसे मेरे विश्वरूपको नहीं देख सकता? इसलिये मैं तेरेको दिव्यचक्षु देता हूँ। परन्तु भगवान्ने वहाँ ऐसा नहीं कहा? प्रत्युत दिव्यचक्षु देनेसे पहले ही पश्यपश्य कहकर बारबार देखनेकी आज्ञा दी। जब अर्जुनको दीखा नहीं? तब उनको न दीखनेका कारण बताया और फिर दिव्यचक्षु देकर उसका निराकरण किया। अतः इतनी झंझट भगवान्ने की ही क्योंसाधकपर भगवान्की कृपाका क्रमशः कैसे विस्तार होता है? यह बतानेके लिये ही भगवान्ने ऐसा किया है क्योंकि भगवान्का ऐसा ही स्वभाव है। भगवान् अत्यधिक कृपालु हैं। उन कृपासागरकी कृपाका कभी अन्त नहीं आता। भक्तोंपर कृपा करनेके उनके विचित्रविचित्र ढंग हैं। जैसे? पहले तो भगवान्ने अर्जुनको उपदेश दिया। उपदेशके द्वारा अर्जुनके भीतरके भावोंका परिवर्तन कराकर उनको अपनी विभूतियोंका ज्ञान कराया। उन विभूतियोंको जाननेसे अर्जुनमें एक विलक्षणता आ गयी? जिससे उन्होंने भगवान्से कहा कि आपके अमृतमय वचन सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। विभूतियोंका वर्णन करके अन्तमें भगवान्ने कहा कि ऐसे (तरहतरहकी विभूतियोंवाले) अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे एक अंशमें पड़े हुए हैं। जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड,हैं? उस विराट्रूपको देखनेके लिये अर्जुनकी इच्छा हुई और इसके लिये उन्होंने प्रार्थना की। इसपर भगवान्ने अपना विराट्रूप दिखाया और उसको देखनेके लिये बारबार आज्ञा दी। परन्तु अर्जुनको विराट्रूप दीखा नहीं। तब उनको भगवान्ने दिव्यचक्षु प्रदान किये। सारांश यह हुआ कि भगवान्ने ही विराट्रूप देखनेकी जिज्ञासा प्रकट की। जिज्ञासा प्रकट करके विराट्रूप दिखानेकी इच्छा प्रकट की। इच्छा प्रकट करनेपर विराट्रूप दिखाया। अर्जुनको नहीं दीखा तो दिव्यचक्षु देकर इसकी पूर्ति की। तात्पर्य यह निकला कि भगवान्के शरण होनेपर शरणागतका सब काम करनेकी जिम्मेवारी भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं। सम्बन्ध -- दिव्यचक्षु प्राप्त करके अर्जुनने भगवान्का कैसा रूप देखा? यह बात सञ्जय धृतराष्ट्रसे आगेके श्लोकमें कहते हैं।