सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।11.9।।
।।11.9।।सञ्जय बोले -- हे राजन् ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको परम ऐश्वररूप दिखाया। (टिप्पणी प0 580)
।।11.9।। व्याख्या -- एवमुक्त्वा ततो ৷৷. परमं रूपमैश्वरम् -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जो यह कहा था कि तू अपने चर्मचक्षुओंसे मुझे नहीं देख सकता? इसलिये मैं तेरेको दिव्यचक्षु देता हूँ? जिससे तू मेरे ईश्वरसम्बन्धी योगको देख? उसीका संकेत यहाँ सञ्जयने एवमुक्त्वा पदसे किया है।चौथे श्लोकमें अर्जुनने भगवान्को योगेश्वर कहा और यहाँ सञ्जय भगवान्को महायोगेश्वर कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान्ने अर्जुनकी प्रार्थनासे बहुत अधिक अपना विश्वरूप दिखाया। भक्तकी थोड़ीसी भी वास्तविक रुचि भगवान्की तरफ होनेपर भगवान् अपनी अपार शक्तिसे उसकी पूर्ति कर देते हैं।तीसरे श्लोकमें अर्जुनने जिस रूपके लिये रूपमैश्वरम् कहा? उसी रूपके लिये यहाँ सञ्जय परमं रूपमैश्वरम् कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान्का विश्वरूप बहुत ही विलक्षण है। सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा विलक्षण? अलौकिक? अद्भुत विश्वरूप दिखाया? जिसको धैर्यशाली? जितेन्द्रिय? शूरवीर और भगवान्से प्राप्त दिव्यदृष्टिवाले अर्जुनको भी दुर्निरीक्ष्य कहना प़ड़ा (11। 17) और भयभीत होना पड़ा (11। 45)? तथा भगवान्को भी व्यपेतभीः कहकर अर्जुनको आश्वासन देना पड़ा (11। 49)। सम्बन्ध -- अब सञ्जय भगवान्के उस परम ऐश्वररूपका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।