अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।12.10।।
।।12.10।।अगर तू अभ्यास(योग) में भी असमर्थ है? तो मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो जा। मेरे लिये कर्मोंको करता हुआ भी तू सिद्धिको प्राप्त हो जायगा।
।।12.10।। व्याख्या -- अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव -- यहाँ अभ्यासे पदका अभिप्राय पीछेके (नवें) श्लोकमें वर्णित अभ्यासयोग से है। गीताकी यह शैली है कि पहले कहे हुए विषयका आगे संक्षेपमें वर्णन किया जाता है। आठवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेमें मनबुद्धि लगानेके साधनको नवें श्लोकमें पुनः चित्तं समाधातुम् पदोंसे कहा अर्थात् चित्तम् पदके अन्तर्गत मनबुद्धि दोनोंका समावेश कर लिया। इसी प्रकार नवें श्लोकमें आये हुए अभ्यासयोगके लिये यहाँ (दसवें श्लोकमें) अभ्यासे पद आया है।भगवान् कहते हैं कि अगर तू पूर्वश्लोकमें वर्णित अभ्यासयोगमें भी असमर्थ है? तो केवल मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेके परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों(वर्णाश्रमधर्मानुसार) शरीरनिर्वाह और आजीविकासम्बन्धी लौकिक एवं भजन? ध्यान? नामजप आदि पारमार्थिक कर्मों) का उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। जो कर्म भगवत्प्राप्तिके लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं? उनको मत्कर्म कहते हैं। जो साधक इस प्रकार कर्मोंके परायण हैं? वे मत्कर्मपरम कहे जाते हैं। साधकका अपना सम्बन्ध भी भगवान्से हो और कर्मोंका सम्बन्ध भी भगवान्के साथ रहे? तभी मत्कर्मपरायणता सिद्ध होगी।साधकका ध्येय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा? तब निषिद्ध क्रियाएँ सर्वथा छूट जायँगी क्योंकि निषिद्ध क्रियाओंके अनुष्ठानमें संसारकी कामना ही हेतु है (गीता 3। 37)। अतः भगवत्प्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधककी सम्पूर्ण क्रियाएँ शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी।मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि -- भगवान्ने जिस साधनकी बात इसी श्लोकके पूर्वार्धमें मत्कर्मपरमो,भव पदोंसे कही है? वही बात इन पदोंमें पुनः कही गयी है। भाव यह है कि केवल परमात्माका उद्देश्य होनेसे उस साधककी और जगह स्थिति हो ही कैसे सकती हैजिस प्रकार भगवान्ने आठवें श्लोकमें मनबुद्धि अपनेमें अर्पण करनेके साधनको तथा नवें श्लोकमें अभ्यासयोगके साधनको अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताया? उसी प्रकार यहाँ भगवान् मत्कर्मपरमो भव (केवल मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो) -- इस साधनको भी अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बता रहे हैं।जैसे धनप्राप्तिके लिये व्यापार आदि कर्म करनेवाले मनुष्यको ज्योंज्यों धन प्राप्त होता है? त्योंत्यों उसके मनमें धनका लोभ और कर्म करनेका उत्साह बढ़ता है? ऐसे ही साधक जब भगवान्के लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है? तब उसके मनमें भी भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा और साधन करनेका उत्साह बढ़ता रहता है। उत्कण्ठा तीव्र होनेपर जब उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाता है? तब सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् उससे छिपे नहीं रहते। भगवान् अपनी कृपासे उसको अपनी प्राप्ति करा ही देते हैं। यदि साधकका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है और सम्पूर्ण क्रियाएँ वह भगवान्के लिये ही करता है? तो इसका अभिप्राय यह है कि उसने अपनी सारी समझ? सामग्री? सामर्थ्य और समय भगवत्प्राप्तिके लिये ही लगा दिया। इसके सिवाय वह और कर भी क्या सकता है भगवान् उस साधकसे इससे अधिक अपेक्षा भी नहीं रखते। अतः उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। इसका कारण यह है कि भगवान् किसी साधनविशेषसे खरीदे नहीं जा सकते। भगवान्के महत्त्वके सामने सृष्टिमात्रका महत्त्व भी कुछ नहीं है? फिर एक व्यक्तिके द्वारा अर्पित सीमित सामग्री और साधनसे उनका मूल्य चुकाया ही कैसे जा सकता है अतः अपनी प्राप्तिके लिये भगवान् साधकसे इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी योग्यता? सामर्थ्य आदिको मेरी प्राप्तिमें लगा दे अर्थात् अपने पास बचाकर कुछ न रखे और इन योग्यता? सामर्थ्य आदिको अपना भी न समझे।