अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।12.11।।
।।12.11।। और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो? तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर? तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो।।
।।12.11।। पूर्व श्लोक में? हमें अहंकार का सर्वथा त्याग करके जगत् में कर्म करने का उपदेश दिया गया था। अत्यन्त अहंकारी और मानी पुरुष के लिए यह कार्य़ इतना सरल नहीं है। ऐसा पुरुष रजोगुण के कारण अत्यन्त क्षुब्ध रहता है तथा तमोगुण की निम्नस्तरीय प्रवृत्तियों के कारण उसका व्यक्तित्व विषाक्त रहता है। ऐसे निम्न स्तर के व्यक्ति के लिए भी गीता में साधन मार्ग बताया गया है। प्राय ऐसा पुरुष सभी धर्मों के लिए निराशा का ही विषय बन जाता है। परन्तु? गीता में ऐसे दीर्घस्थायी रोग से पीड़ित रोगियों के लिये भी विचारपूर्वक उपचार बताया गया है। वह उपचार सरल किन्तु ऐसा प्रभावी है कि उसके द्वारा उस रोगी को रोग से सर्वथा मुक्त कर उस्ो सर्वोच्च व्यक्तित्व की आभा तथा कार्यकुशलता प्रदान की जा सकती है।यदि समस्त कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर पाना असंभव है? तो उस साधक के लिए उतना ही प्रभावी अन्य उपाय यहाँ बताया गया है कि? आत्मसंयम से युक्त होकर? मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर? तुम समस्त कर्मों के फलों का त्याग करो।ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण को वे लोग अप्रिय हैं? जो केवल वेतनार्थी होते हैं। परन्तु उनका यह द्वेष मध्यमवर्गीय अथवा उच्चवर्गीय लोगों के मन में पसीना बहाने वाले मजदूरों के प्रति तिरस्कार नहीं समझना चाहिए। समाजवाद की प्रणाली वाले राष्ट्र में प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति के मन में श्रीकृष्ण की यह अधीरता उठती है। वे अपने राष्ट्र में ऐसे लोगों को सहन नहीं कर सकते? जो केवल वेतन या व्यक्तिगत लाभ के लिए ही कर्म करते हैं। ऐसे समादवादी राष्ट्र में ऐसा प्रत्येक कर्मचारी दण्ड के योग्य अपराधी माना जायेगा जो अधिकतम अकुशलता से किये गये? न्यूनतम समय के कार्य के लिए उच्चतम वेतन की मांग करता है। इस प्रकार के वेतनार्थियों के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण की अप्रियता उनके उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है।वर्तमान क्षण में किया गया कर्म ही परिपक्व होकर भविष्य के क्षण में फल बनकर प्रकट होता है। आज? यदि कोई कृषक भूमि को जोतकर बीज बोता है? तो उसे वह फसल दोतीन महीनों के पश्चात् ही प्राप्त होगी। और यदि वह कृषक वर्तमान में करने योग्य कार्य को त्यागकर भविष्य में आने वाले फल की ही चिन्ता करने में समय का अपव्यय करे? तो निश्चय ही उसे कभी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। यद्यपि यह एक सुविदित तथ्य है? तथापि बहुसंख्यक लोग वर्तमान में प्राप्त अवसरों को केवल भविष्य की चिन्ता करने में ही खो देते हैं। भविष्य की चिन्ता एवं भय के कारण हमारी समस्त क्षमताएं नष्ट हो जाती हैं? और वह मनकल्पित अन्धकारमय भविष्य तो अभी आया ही नहीं हैं? और सम्भवत कभी आये भी नहीं यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण केवल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम भविष्य विषयक इन व्यर्थ कल्पनाओं को त्याग दें और वर्तमान काल में ही सजग परिपूर्ण और प्रभावी जीवन जियें। इस प्रकार का जीवन जीने से भी हमारा व्यक्तित्व सुगठित और मन एकाग्र और समर्थ बन सकता है।उपर्युक्त तीन श्लोकों में तीन प्रकार के साधकों के लिए तीन भिन्नभिन्न साधनाएं बतायी गयी हैं। सभी मनुष्य किसी सीमा तक बहिर्मुखी होते ही हैं। दो मनुष्यों के बीच जो अन्तर होता है? वह उन दोनों के अन्तकरण में स्थित वासनाओं की परतों की मोटाई के कारण होता है। यदि एक पीतल का पात्र हल्कासा मैला हुआ हो? तो उसे चमकाने के लिए केवल राख से मांजना ही पर्याप्त होता है यदि वह मैल अधिक घना हो तो उसकी स्वच्छता के लिए कुछ अम्ल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार? यदि मन में वासनाओं की पतली परत ही है तो उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों को अभ्यासयोग के द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। परन्तु वासनाधिक्य होने पर कर्मयोग की आवश्यकता होगी? जिसमें साधक को समस्त कर्म ईश्वर को अर्पण करने का उपदेश दिया गया है। यदि किसी पुरुष के अन्तकरण में वासनाओं की परतें और भी घनी हों? तो उसे कर्मफल का त्याग करने को कहा जाता है। यहाँ कर्मफल त्याग का अर्थ यह है कि भविष्य में आने वाले फलों की व्यर्थ की चिन्ताओं और कल्पनाओं का सर्वथा त्याग कर देना और वर्तमान में कर्म करते रहना। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है? विश्व के किसी भी आध्यात्मिक ग्रन्थ में आत्मविकास के लिए इतने विविध और विस्तृत मार्गों का विवेचन नहीं किया गया है? जितना भगवद्गीता में हैं।उपर्य़ुक्त तीन साधनों का अभ्यास एक साथ नहीं हो सकता है। उन्हें क्रमवार करना है। इस बात को दर्शाते हुए? अगले श्लोक में? भगवान् सर्वकर्मफल त्याग की प्रशंसा करते हैं