श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।12.12।।
।।12.12।। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है त्याग से तत्काल ही शान्ति मिलती है।।
।।12.12।। भ्रमित शिष्य को उपदेश देते समय गुरु के लिए यह पर्याप्त नहीं है कि वह केवल दार्शनिक सत्यों का नाम निर्देश कर उनकी गणना करें। आवश्यकता होती है उन विचारों के एक ऐसी सुन्दर संयोजना की? जिससे विद्यार्थी को सभी विचार पुष्पगुच्छ के समान एक ही स्थान पर प्राप्त हो जायें। इससे तत्त्व को समझने में सहायता मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण के प्रवचन का विचाराधीन श्लोक एक ऐसा ही उदाहरण विशेष है? जिसमें अब तक किये सैद्धांतिक विवेचन को एक सुसंयोजित विचार पद्धति से प्रस्तुत किया गया है।इस श्लोक में सैद्धांतिक विचारों को उनके महत्त्व की दृष्टि से उतरते क्रम में रखा गया है। एक बार यदि साधना के इस सोपान को साधक भली भाँति समझ लेता है और इस सोपान पर आरोहण व अवरोहण की कला भी सीख लेता है? तो यह माना जा सकता है कि उसने इस अध्याय के विवेचित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों को पूर्णरूप से समझ लिया है।अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है आध्यात्मिक साधनाएं केवल शारीरिक क्रियायें नहीं हैं? वरन् उनका प्रय़ोजन हमारे मन और बुद्धि को अर्थात् हमारे आन्तरिक व्यक्तित्व को सुगठित करना है। शरीर से की जाने वाली भक्ति साधना को अन्तकरण का सहयोग तब तक नहीं मिलेगा? जब तक कि साधक को उसके द्वारा की जा रही साधना का सम्यक् ज्ञान नहीं होता। शारीरिक क्रियाओं को मन का भक्तिभावनापूर्ण सहयोग प्राप्त कराने के पूर्व बुद्धि का परिवर्तन अत्यावश्यक होता है। हम जिसका अभ्यास कर रहे हैं और उसका प्रयोजन क्या है? इसका पूर्ण ज्ञान होना योग को सफल बनाने के लिए अपरिहार्य है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि केवल यन्त्रवत् साधनाभ्यास करने की अपेक्षा उसके मनोवैज्ञानिक? बौद्धिक और आध्यात्मिक आशयों का ज्ञान होना अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है।ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है श्रवणादि साधनों से प्राप्त किये गये ज्ञान पर ध्यान करना उस ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक साधनाओं की प्रक्रिया और प्रय़ोजन के शास्त्रीय ज्ञान को समझने की अपेक्षा उन्हें सीखना अधिक सरल होता है। श्रवण से प्राप्त ज्ञान को आत्मसात् करने के लिए उस पर विचारपूर्वक मनन और ध्यान की आवश्यकता होती है। शास्त्रवाक्यों के केवल शाब्दिक अर्थ को जानने से यह कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इसलिए मनन और निदिध्यासन अनिवार्य़ होते हैं। केवल श्रवण से किये गये ज्ञान से आत्मसात् किया हुआ ज्ञान निश्चित ही अधिक श्रेष्ठ होता है उसे आत्मसात् करने का साधन ध्यान है? इसलिए महत्व के अनुक्रम में ध्यान को ज्ञान की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ कहा गया है।ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है वर्तमान में प्राप्त ज्ञान की परिसीमा के परे सुदूर स्थित श्रेष्ठतर ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उड़ान भरने का बुद्धि का प्रयत्न ही ध्यान कहलाता है। इस उड़ान के लिए बुद्धि के पास शक्ति और सन्तुलन का होना आवश्यक है। उस व्यक्ति के लिए ध्यान का अभ्यास असंभव है? जिसके मन की शक्ति और स्थिरता? भावी फलों की चिन्ता व कल्पना के कारण छिन्नभिन्न हो गयी होती हैं। पूर्व श्लोक की व्याख्या में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार भविष्य के प्रति हमारी चिन्ता और व्याकुलता? वर्तमान में कार्य करने की हमारी क्षमता को नष्ट कर देती हैं। सभी कर्मफल भविष्य में ही आते हैं और इनकी चिन्ता करने का अर्थ है? असंख्य म्ाानसिक विक्षेपों को आमन्त्रित करना। इस प्रकार विक्षुब्ध अन्तकरण से कोई भी साधक शास्त्र प्रतिपादित सत्य पर न मनन कर सकता है और न ध्यान। इसलिए यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्मफल त्याग को श्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हैं।अपने कथन पर टिप्पणी को जोड़ते हुए भगवान् कहते हैं कि? त्याग से तत्काल शान्ति मिलती है। हिन्दू धर्म में संन्यास का वास्तविक अर्थ यह है कि इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होने से उत्पन्न होने वाले सुख भोग की बन्धनकारक आसक्तियों को त्याग देना।इस त्याग के परिणामस्वरूप साधक को अन्तकरण की प्रभावशाली शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती है। ऐसे शान्त वातावरण में बुद्धि शास्त्र के ज्ञान पर मनन करके उसमें वर्णित आत्मविकास के साधनों को सम्यक् प्रकार से समझ पाती है और इस प्रकार ज्ञानपूर्वक ध्यान का अभ्यास करने पर साधक को निश्चित ही सफलता मिलती है।अब? अक्षर और अव्यक्त की उपासना करने वाले ज्ञानी भक्तजनों के आंतरिक लक्षण? अगले श्लोक में बताये जा रहे हैं? जो साधकों के लिए पूर्णत्व प्राप्ति के उपायभूत साक्षात् साधन हैं