अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।
।।12.13।।सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित? सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु? ममतारहित? अहंकाररहित? सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम? क्षमाशील? निरन्तर सन्तुष्ट? योगी? शरीरको वशमें किये हुए? दृढ़ निश्चयवाला? मेरेमें अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है? वह मेरेको प्रिय है।
।।12.13।। भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है जो ममता और अहंकार से रहित? सुख और दुख में सम और क्षमावान् है।।
।।12.13।। व्याख्या -- अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् -- अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन? मानबड़ाई? आदरसत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ? क्रिया? व्यक्ति? घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर? मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही? किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले? किसी प्रकारकी आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये? पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है? ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --,निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।। (मानस 7। 112 ख)।इतना ही नहीं वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है,प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है।मैत्रः करुण एव च (टिप्पणी प0 648) -- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका अत्यन्त अभाव ही नहीं होता? प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं -- सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है -- सुहृदः सर्वदेहिनाम् (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक ही मैत्री और दयाका भाव रहता है -- हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।(मानस 7। 47। 3)अपना अनिष्ट करनेवालोंके प्रति भी भक्तके द्वारा मित्रताका व्यवहार होता है क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करनेवालेने अनिष्टरूपमें भगवान्का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है? मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान्का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं? भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करनेवाला (अनिष्टमें निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मोंका नाश कर रहा है अतः वह विशेषरूपसे आदरका पात्र है।साधकमात्रके मनमें यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करनेवाला उसके पिछले पापोंका फल भुगताकर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधकमें भी अनिष्ट करनेवालेके प्रति मैत्री और करुणाका भाव रहता है? फिर सिद्ध भक्तका तो कहना ही क्या है सिद्ध भक्तका तो उसके प्रति ही क्या? प्राणिमात्रके प्रति मैत्री और दयाका विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्तशुद्धिके चार हेतु बताये गये हैं --,मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। (1। 33)सुखियोंके प्रति मैत्री? दुःखियोंके प्रति करुणा? पुण्यात्माओंके प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओंके प्रति उपेक्षाके भावसे चित्तमें निर्मलता आती है। परन्तु भगवान्ने इन चारों हेतुओँको दोमें विभक्त कर दिया है -- मैत्रः च करुणः। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्तका सुखियों और पुण्यात्माओंके प्रति मैत्री का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओंके प्रति,करुणा का भाव रहता है।दुःख पानेवालेकी अपेक्षा दुःख देनेवाले पर (उपेक्षाका भाव न होकर) दया होनी चाहिये क्योंकि दुःख पानेवाला तो (पुराने पापोंका फल भोगकर) पापोंसे छूट रहा है? पर दुःख देनेवाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देनेवाला दयाका विशेष पात्र है।निर्ममः -- यद्यपि भक्तका प्राणिमात्रके प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणाका भाव रहता है? तथापि उसकी किसीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थोंमें ममता (मेरेपनका भाव) ही मनुष्यको संसारमें बाँधनेवाली होती है। भक्त इस ममतासे सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलानेवाले शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिमें भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको हटानेकी चेष्टा करता है? पर अपने शरीर? मन? बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता।निरहंकारः -- शरीर? इन्द्रियाँ आदि जडपदार्थोंको अपना स्वरूप माननेसे अहंकार उत्पन्न होता है।भक्तकी अपने शरीरादिके प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होनेके कारण तथा केवल भगवान्से अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव हो जानेके कारण उसके अन्तःकरणमें स्वतः श्रेष्ठ? दिव्य? अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणोंको भी वह अपने गुण नहीं मानता? प्रत्युत (दैवी सम्पत्ति होनेसे) भगवान्के ही मानता है। सत्(परमात्मा)के होनेके कारण ही ये गुण सद्गुण कहलाते हैं। ऐसी दशामें भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है इसलिये वह अहंकारसे सर्वथा रहित होता है।समदुःखसुखः -- भक्त सुखदुःखोंकी प्राप्तिमें सम रहता है अर्थात् अनुकूलताप्रतिकूलता उसके हृदयमें रागद्वेष? हर्षशोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते।गीतामें सुखदुःख पद अनुकूलताप्रतिकूलताकी परिस्थिति(जो सुखदुःख उत्पन्न करनेमें हेतु है) के लिये तथा अन्तःकरणमें होनेवाले हर्षशोकादि विकारोंके लिये भी आया है।अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्यको सुखीदुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुखदुःखमें सम होनेका अर्थ है -- अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर अपनेमें हर्षशोकादि विकारोंका न होना।भक्तके शरीर? इन्द्रियाँ? मन? सिद्धान्त आदिके अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदिका संयोग या वियोग होनेपर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलताका ज्ञान तो होता है? पर उसके अन्तःकरणमें हर्षशोकादि कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थितिका ज्ञान होना अपनेआपमें कोई दोष नहीं है? प्रत्युत उससे अन्तःकरणमें विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त रागद्वेष? हर्षशोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है। जैसे? प्रारब्धानुसार भक्तके शरीरमें कोई रोग होनेपर उसे शारीरिक पीड़ाका ज्ञान (अनुभव) तो होगा किन्तु उसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार नहीं होगा।क्षमी -- अपना किसी तरहका भी अपराध करनेवालेको किसी भी प्रकारका दण्ड देनेकी इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देनेवालेको क्षमी कहते हैं।भक्तके लक्षणोंमें पहले अद्वेष्टा पद देकर भगवान्ने भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति द्वेषका अभाव बताया? अब यहाँ क्षमी पदसे यह बताते हैं कि भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान् अथवा अन्य किसीके द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्तकी एक विशेषता है।संतुष्टः सततम् (टिप्पणी प0 650.1) -- जीवको मनके अनुकूल प्राणी? पदार्थ? घटना? परिस्थिति आदिके संयोगमें और मनके प्रतिकूल प्राणी? पदार्थ? घटना? परिस्थिति आदिके वियोगमें एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थोंसे होनेके कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होनेके कारण जीवको नित्य परमात्माकी अनुभूतिसे ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है।भगवान्को प्राप्त होनेपर भक्त नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहता है क्योंकि न तो उसका भगवान्से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान् संसारकी कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोषका कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टिके कारण वह संसारके किसी भी प्राणीपदार्थके प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)।संतुष्टः के साथ सततम् पद देकर भगवान्ने भक्तके उस नित्यनिरन्तर रहनेवाले संतोषकी ओर ही लक्ष्य,कराया है? जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़नेकी सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग? ज्ञानयोग या भक्तियोग -- किसी भी योगमार्गसे सिद्धि प्राप्त करनेवाले महापुरुषमें ऐसी संतुष्टि (जो वास्तवमें है) निरन्तर रहती है।योगी -- भक्तियोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त (नित्यनिरन्तर परमात्मासे संयुक्त) पुरुषका नाम यहाँ योगी है।वास्तवमें किसी भी मनुष्यका परमात्मासे कभी वियोग हुआ नहीं? है नहीं? हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकताका जिसने अनुभव कर लिया है? वही योगी है।यतात्मा -- जिसका मनबुद्धिइन्द्रियोंसहित शरीरपर पूर्ण अधिकार है? वह यतात्मा है। सिद्ध भक्तको मनबुद्धि आदि वशमें करने नहीं पड़ते? प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वशमें रहते हैं। इसलिये उसमें किसी प्रकारके इन्द्रियजन्य दुर्गुणदुराचारी के आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती।वास्तवमें मनबुद्धिइन्द्रियाँ स्वाभाविकरूपसे सन्मार्गपर चलनेके लिये ही हैं किन्तु संसारसे रागयुक्त सम्बन्ध रहनेसे ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्तका संसारसे किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त सम्बन्ध नहीं होता? इसलिये उसकी मनबुद्धिइन्द्रियाँ सर्वथा उसके वशमें होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंके लिये आदर्श होती है।ऐसा देखा जाता है कि न्यायपथपर चलनेवाले सत्पुरुषोंकी इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे? राजा दुष्यन्तकी वृत्ति शकुन्तलाकी ओर जानेपर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रियकन्या ही है? ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदासके कथनानुसार जहाँ सन्देह हो? वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है --,सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः।।(अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1। 21)जब न्यायशील सत्पुरुषकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्गकी ओर नहीं होती? तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्मसे कभी किसी अवस्थामें च्युत नहीं होता) की मनबुद्धिइन्द्रियाँ कुमार्गकी ओर जा ही कैसे सकती हैंदृढनिश्चयः -- सिद्ध महापुरुषकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धिमें एक परमात्माकी ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धिमें विपर्ययदोष (प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारका स्थायी दीखना) नहीं रहता। उसको एक भगवान्के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान्में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धिमें नहीं? प्रत्युत,स्वयं में होता है? जिसका आभास बुद्धिमें प्रतीत होता है।संसारकी स्वतन्त्र सत्ता माननेसे अथवा संसारसे अपना सम्बन्ध माननेसे ही बुद्धिमें विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषकी बुद्धिके निश्चयमें ही अन्तर होता है स्वरूपसे तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानीकी बुद्धिमें संसारकी सत्ता और उसका महत्त्व रहता है परन्तु सिद्ध भक्तकी बुद्धिमें एक भगवान्के सिवाय न तो संसारकी किसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोषसे सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मामें ही दृढ़ निश्चय होता है।मय्यर्पितमनोबुद्धिः -- जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्तिको ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान्का ही हो जाता है (जो कि वास्तवमें है) तब उसके मनबुद्धि भी अपनेआप भगवान्में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्तके मनबुद्धि भगवान्के अर्पित रहें -- इसमें तो कहना ही क्या हैजहाँ प्रेम होता है? वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्यका मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्तसे श्रेष्ठ समझता है? उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्तके लिये भगवान्से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मनबुद्धिपर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान्का ही मानता है। अतः उसके मनबुद्धि स्वाभाविक ही भगवान्में लगे रहते हैं।यः मद्भक्तः स मे प्रियः (टिप्पणी प0 651) -- भगवान्को तो सभी प्रिय हैं परन्तु भक्तका प्रेम भगवान्के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशामें ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता 4। 11) -- इस प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान्को भी भक्त प्रिय होता है। सम्बन्ध -- सिद्ध भक्तके लक्षणोंका दूसरा प्रकरण? जिसमें छः लक्षणोंका वर्णन है? आगेके श्लोकमें आया है।
।।12.13।। See Commentary under 12.14
12.13 He who is not hateful towards any creature, who is friendly and compassionate, who has no idea of mine and the idea of egoism, who is the same under sorrow and happiness, who is forgiving;
12.13 He who hates no creature, who is friendly and compassionate to all, who is free from attachment and egoism, balanced in pleasure and pain, and forgiving.
12.13. He, who is not a hater, [but] only a compassionate friend of every being; who is free from the sense of mine, and the sense of I; who is even minded in pain and pleasure and is endowed with forbearance;
12.13 अद्वेष्टा nonhater? सर्वभूतानाम् of (to) all creatures? मैत्रः friendly? करुणः compassionate? एव even? च and? निर्ममः without mineness? निरहङ्कारः without egoism? समदुःखसुखः balanced in pleasure and pain? क्षमी forgiving.Commentary Lord Krishna gives a description of the nature of a Bhagavata or a sage in the following eight verses. These eight verses are called Amritashtakam.The devotee who is established in God bears illwill to none. He looks on all with love and great compassion. He regards all beings as himself. He does not hate even a single being? not even the creature which gives him intense pain. He who entertains mercy towards suffering people and tries to relieve their sufferings is a man of Karuna. He puts himself in the position of the sufferer and feels the pain himself. Mercy is a divine attribute. God is allmerciful. If you wish to hold communion with the Lord? and if you desire to attain Godhead? you must also become allmerciful.The perfect devotee offers full security of life (Abhayadana) to all beings. He is a Paramahamsa Sannyasi. The devotee only can really understand the mysterious ways of the Lord. He beholds the Lord everywhere. He sees the Lord in all creatures. That is the reason why he has eal vision. He is like the sun or the river. The sun sheds its light eally on a palace or a cottage. Anyone can drink the water of a river. A river enches the thirst of cows as well as tigers and lions. The idea of mineness and Iness never arises in the devotees mind. He has no sense of mine and thine. He is indifferent to pleasure and pain. He is not attached to pleasant objects. He does not hate the objects that give him pain. He is as forgiving as the earth. He is not affected a bit when anybody insults? abuses or beats him.
12.13 Advesta, he who is not hateful; sarva-bhutanam, towards any creature: He does not feel repulsion for anything, even for what may be the cause of sorrow to himself, for he sees all beings as his own Self. Maitrah, he who is friendly-behaving like a friend; karunah eva ca, and compassionate: karuna is kindness, compassion towards sorrow-stricken creatures; one possessing that is karunah, i.e. a monk, who grants safety to all creatures. Nirmamah, he who has no idea of mine; nirahankarah, who has no idea of egoism; sama-duhkha-sukhah, who is the same under sorrow and happiness, he in whom sorrow and happiness do not arouse any repulsion or attraction; ksami, who is forgiving, who remains unperturbed even when abused or assaulted;
12.13 See Comment under 12.14
12.13 - 12.14 In these and succeeding verses the Lord mentions the nature of the Karma Yogi who adores Him through his works. In other words the Bhakti element in Karma Yoga is emphasised. He never hates any being even though they hate him and do him wrong. For he thinks that the Lord impels these beings to hate him and do him wrong for atoning for his transgressions. He is friendly, evincing a friendly disposition towards all beings whether they hate him or do him wrong. He is compassionate, evincing compassion towards their sufferings. He is free from the feeling of mine, i.e., he is not possessive with regard to his body, senses and all things associated with them. He is free from the feeling of I, i.e., is free from the delusion that his body is the self. Therefore, pain and pleasure are the same to him, i.e., he is free from distress and delight resulting from pain and pleasure arising from his deeds. He is enduring, unaffected even by those two (i.e., pleasure and pain) due to the inevitable contact of sense-objects. He is content, namely, satisfied with whatever chance may bring him for the sustenance of his body. He ever meditates, i.e., is constantly intent on contemplating on the self as separate from the body. He is self-restrained, namely, he controls the activities of his mind. He is of firm conviction regarding the meanings taught in the science of the self. His mind and reason are dedicated to Me i.e., his mind and reason are dedicated to Me in the form Bhagavan Vasudeva alone is propitiated by disinterested activities, and when duly propitiated, He wil bring about for me the direct vision of the self. Such a devotee of mine, i.e., who works in this manner as a Karma Yogin, is dear to Me.
What is the description of the devotee who has attained such peace? In response, different natures of many types of devotees are described in eight verses. Advesta means that one does not have hatred even for those who hate you. Rather one has friendliness towards them (maitrah). One is merciful to them, thinking that they should not end up in unfortunate circumstances (karunah). “But by making what type of discriminating powers can one have friendliness and mercy even to enemies?” “One should not make distinctions at all. By non-possessiveness of children and wife (nirmamah), by not thinking of the body as the self (nirahankarah), my devotee never develops hatred. Why should he accept such distinctions if he wants to reduce suffering produced from hatred (a distinction)?” “But then one will be suffering pain in the body by getting punched or kicked.” “It is said by Siva: narayana-parah sarve na kutascana bibhyati svargapavarga-narakesv api tulyartha-darsinah Devotees solely engaged in the devotional service of the Supreme Personality of Godhead, Narayana, never fear any condition of life. For them the heavenly planets, liberation and the hellish planets are all the same, for such devotees are interested only in the service of the Lord. SB 6.17.28 “One should consider happiness and distress equally (sama duhkha sukham). Moreover, that person thinks that he should necessarily endure his prarabdha karmas. In being equal to happiness and distress, he should be tolerant of the suffering (ksami).” Ksami means having tolerance, coming from the root ksam meaning to endure. “But how will such a devotee be able to maintain his life?” “He is satisfied to eat what comes of its own accord, or with very little effort (santusthah).” “But since you have said that one should be equal in happiness and distress, then how can one express satisfaction (santusthah) with getting something to eat?” “That person is constantly engaged in bhakti yoga (satatam yogi). He is acting for the purpose of attaining perfection in bhakti. It is said: aharartham yatataiva yuktam tat-prana-dharanam tattvam vimrsyate tena tad vijnaya param vrajet If required, one should endeavor to get sufficient foodstuffs, because it is always necessary and proper to maintain one’s health. When the senses, mind and life air are fit, one can contemplate spiritual truth, and by understanding the truth one is liberated. SB 11.18.34 “Moreover, by chance he does not attain required food, his mind is restrained (yata atma), without agitation. If his mind happens to become disturbed, he does not resort to astanga yoga or other processes to bring about peace. He remains convinced that he should only perform ananya bhakti (drdha niscayah). His devotion does not become weakened. The cause of all of this is mentioned: he should be absorbed in meditating on and contemplating me (mayy arpita mano buddhih). Such a devotee greatly pleases me (me priyah).”
2 The characteristics of Lord Krishnas devotees which quickly lead to divine grace are now being elucidated in seven verses beginning with advesta-sarva- bhutanam meaning devoid of malice towards anyone, is non-envious of anyone and benevolent towards everyone, free from concepts of possessiveness and ideas of ego consciousness as well as free from false identification of being the physical body, compassionate to the unfortunate, always forgiving, content and cheerful with loss or gain, tolerant, equipoise in happiness or distress, satisfied with what comes by its own accord, firmly resolved in the teachings of the spiritual master about the Supreme Lord, one is contemplative and dedicating their mind, intellect and heart to the Supreme Lord Krishna is very dear to Him.
7 8 The Supreme Lord Krishna confirms that the qualities He is describing are applicable to yo mad-bhaktah which means His exclusive devotee. The word advesta means free from hatred for any being at any time. Maitrah means benign and showing good will to all, both well-wishers and ill-wishers by the understanding that they are merely following the tendencies of the impulse imparted to them by the Supreme Lord in relation to ones own good and bad actions. Karunah means compassionate, to be sympathetic towards the sufferings of others, friend and foe alike. Nirmamah means devoid of sentiments of possessiveness and ego related conceptions mine-ness regarding the physical body, family and associated relationships and objects. Nirahankarah means free from the false conception of thinking ones self to be the physical body and consequently unaffected by the dualities of material existence such as pain and pleasure, praise and ridicule, joy and grief, etc. all based upon the mentality of the mind. Ksami means tolerant, to be unaffected by external incidents such as physical accidents or catastrophes. Santustah means always content with whatever comes along by its own accord for the purpose of bodily sustenance. Satatam yogi is one who always engages themselves to the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness in loving devotion to the Supreme Lord. Satatam means always and has two meaning: one is to be continuously and perpetually engaged in bhakti or exclusive loving devotion to Lord Krishna at every moment and two is to engage in this bhakti to Lord Krishna in all ways meaning in every possibility and facet of ones life. Yatatma means the ability to govern and control the workings of the mind. Drdha-niscayah means firmly resolved in the knowledge of the Vedic scriptures regarding the immortality of the atma or eternal soul and the Supreme Lord and irrevocably established in bhakti to the Lord Krishna. Arpita-mano-buddhir means who dedicates their intelligence and consciousness to the Supreme Lord by performing activities dedicated to Him without desire for recompense. Then when the Supreme Lord Krishna is worshipped in this way He would Himself guide one internally to achieve atma tattva or realisation of the soul and attain communion with Him. One who possesses all these qualities is very dear to Supreme Lord Krishna and is me priyah or the recepient of His love.
7 8 The Supreme Lord Krishna confirms that the qualities He is describing are applicable to yo mad-bhaktah which means His exclusive devotee. The word advesta means free from hatred for any being at any time. Maitrah means benign and showing good will to all, both well-wishers and ill-wishers by the understanding that they are merely following the tendencies of the impulse imparted to them by the Supreme Lord in relation to ones own good and bad actions. Karunah means compassionate, to be sympathetic towards the sufferings of others, friend and foe alike. Nirmamah means devoid of sentiments of possessiveness and ego related conceptions mine-ness regarding the physical body, family and associated relationships and objects. Nirahankarah means free from the false conception of thinking ones self to be the physical body and consequently unaffected by the dualities of material existence such as pain and pleasure, praise and ridicule, joy and grief, etc. all based upon the mentality of the mind. Ksami means tolerant, to be unaffected by external incidents such as physical accidents or catastrophes. Santustah means always content with whatever comes along by its own accord for the purpose of bodily sustenance. Satatam yogi is one who always engages themselves to the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness in loving devotion to the Supreme Lord. Satatam means always and has two meaning: one is to be continuously and perpetually engaged in bhakti or exclusive loving devotion to Lord Krishna at every moment and two is to engage in this bhakti to Lord Krishna in all ways meaning in every possibility and facet of ones life. Yatatma means the ability to govern and control the workings of the mind. Drdha-niscayah means firmly resolved in the knowledge of the Vedic scriptures regarding the immortality of the atma or eternal soul and the Supreme Lord and irrevocably established in bhakti to the Lord Krishna. Arpita-mano-buddhir means who dedicates their intelligence and consciousness to the Supreme Lord by performing activities dedicated to Him without desire for recompense. Then when the Supreme Lord Krishna is worshipped in this way He would Himself guide one internally to achieve atma tattva or realisation of the soul and attain communion with Him. One who possesses all these qualities is very dear to Supreme Lord Krishna and is me priyah or the recepient of His love.
Adweshtaa sarvabhootaanaam maitrah karuna eva cha; Nirmamo nirahankaarah samaduhkhasukhah kshamee.
adveṣhṭā—free from malice; sarva-bhūtānām—toward all living beings; maitraḥ—friendly; karuṇaḥ—compassionate; eva—indeed; cha—and; nirmamaḥ—free from attachment to possession; nirahankāraḥ—free from egoism; sama—equipoised; duḥkha—distress; sukhaḥ—happiness; kṣhamī—forgiving; santuṣhṭaḥ—contented; satatam—steadily; yogī—united in devotion; yata-ātmā—self-controlled; dṛiḍha-niśhchayaḥ—firm in conviction; mayi—to me; arpita—dedicated; manaḥ—mind; buddhiḥ—intellect; yaḥ—who; mat-bhaktaḥ—My devotees; saḥ—they; me—to Me; priyaḥ—very dear