सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.14।।
।।12.14।।सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित? सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु? ममतारहित? अहंकाररहित? सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम? क्षमाशील? निरन्तर सन्तुष्ट? योगी? शरीरको वशमें किये हुए? दृढ़ निश्चयवाला? मेरेमें अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है? वह मेरेको प्रिय है।
।।12.14।। जो संयतात्मा? दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है? जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है? जो ऐसा मेरा भक्त है? वह मुझे प्रिय है।।
।।12.14।। व्याख्या -- अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् -- अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन? मानबड़ाई? आदरसत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ? क्रिया? व्यक्ति? घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर? मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही? किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले? किसी प्रकारकी आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये? पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है? ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --,निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।। (मानस 7। 112 ख)।इतना ही नहीं वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है,प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है।मैत्रः करुण एव च (टिप्पणी प0 648) -- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका अत्यन्त अभाव ही नहीं होता? प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं -- सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है -- सुहृदः सर्वदेहिनाम् (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक ही मैत्री और दयाका भाव रहता है -- हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।(मानस 7। 47। 3)अपना अनिष्ट करनेवालोंके प्रति भी भक्तके द्वारा मित्रताका व्यवहार होता है क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करनेवालेने अनिष्टरूपमें भगवान्का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है? मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान्का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं? भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करनेवाला (अनिष्टमें निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मोंका नाश कर रहा है अतः वह विशेषरूपसे आदरका पात्र है।साधकमात्रके मनमें यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करनेवाला उसके पिछले पापोंका फल भुगताकर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधकमें भी अनिष्ट करनेवालेके प्रति मैत्री और करुणाका भाव रहता है? फिर सिद्ध भक्तका तो कहना ही क्या है सिद्ध भक्तका तो उसके प्रति ही क्या? प्राणिमात्रके प्रति मैत्री और दयाका विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्तशुद्धिके चार हेतु बताये गये हैं --,मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। (1। 33)सुखियोंके प्रति मैत्री? दुःखियोंके प्रति करुणा? पुण्यात्माओंके प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओंके प्रति उपेक्षाके भावसे चित्तमें निर्मलता आती है। परन्तु भगवान्ने इन चारों हेतुओँको दोमें विभक्त कर दिया है -- मैत्रः च करुणः। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्तका सुखियों और पुण्यात्माओंके प्रति मैत्री का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओंके प्रति,करुणा का भाव रहता है।दुःख पानेवालेकी अपेक्षा दुःख देनेवाले पर (उपेक्षाका भाव न होकर) दया होनी चाहिये क्योंकि दुःख पानेवाला तो (पुराने पापोंका फल भोगकर) पापोंसे छूट रहा है? पर दुःख देनेवाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देनेवाला दयाका विशेष पात्र है।निर्ममः -- यद्यपि भक्तका प्राणिमात्रके प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणाका भाव रहता है? तथापि उसकी किसीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थोंमें ममता (मेरेपनका भाव) ही मनुष्यको संसारमें बाँधनेवाली होती है। भक्त इस ममतासे सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलानेवाले शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिमें भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको हटानेकी चेष्टा करता है? पर अपने शरीर? मन? बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता।निरहंकारः -- शरीर? इन्द्रियाँ आदि जडपदार्थोंको अपना स्वरूप माननेसे अहंकार उत्पन्न होता है।भक्तकी अपने शरीरादिके प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होनेके कारण तथा केवल भगवान्से अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव हो जानेके कारण उसके अन्तःकरणमें स्वतः श्रेष्ठ? दिव्य? अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणोंको भी वह अपने गुण नहीं मानता? प्रत्युत (दैवी सम्पत्ति होनेसे) भगवान्के ही मानता है। सत्(परमात्मा)के होनेके कारण ही ये गुण सद्गुण कहलाते हैं। ऐसी दशामें भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है इसलिये वह अहंकारसे सर्वथा रहित होता है।समदुःखसुखः -- भक्त सुखदुःखोंकी प्राप्तिमें सम रहता है अर्थात् अनुकूलताप्रतिकूलता उसके हृदयमें रागद्वेष? हर्षशोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते।गीतामें सुखदुःख पद अनुकूलताप्रतिकूलताकी परिस्थिति(जो सुखदुःख उत्पन्न करनेमें हेतु है) के लिये तथा अन्तःकरणमें होनेवाले हर्षशोकादि विकारोंके लिये भी आया है।अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्यको सुखीदुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुखदुःखमें सम होनेका अर्थ है -- अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर अपनेमें हर्षशोकादि विकारोंका न होना।भक्तके शरीर? इन्द्रियाँ? मन? सिद्धान्त आदिके अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदिका संयोग या वियोग होनेपर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलताका ज्ञान तो होता है? पर उसके अन्तःकरणमें हर्षशोकादि कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थितिका ज्ञान होना अपनेआपमें कोई दोष नहीं है? प्रत्युत उससे अन्तःकरणमें विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त रागद्वेष? हर्षशोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है। जैसे? प्रारब्धानुसार भक्तके शरीरमें कोई रोग होनेपर उसे शारीरिक पीड़ाका ज्ञान (अनुभव) तो होगा किन्तु उसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार नहीं होगा।क्षमी -- अपना किसी तरहका भी अपराध करनेवालेको किसी भी प्रकारका दण्ड देनेकी इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देनेवालेको क्षमी कहते हैं।भक्तके लक्षणोंमें पहले अद्वेष्टा पद देकर भगवान्ने भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति द्वेषका अभाव बताया? अब यहाँ क्षमी पदसे यह बताते हैं कि भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान् अथवा अन्य किसीके द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्तकी एक विशेषता है।संतुष्टः सततम् (टिप्पणी प0 650.1) -- जीवको मनके अनुकूल प्राणी? पदार्थ? घटना? परिस्थिति आदिके संयोगमें और मनके प्रतिकूल प्राणी? पदार्थ? घटना? परिस्थिति आदिके वियोगमें एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थोंसे होनेके कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होनेके कारण जीवको नित्य परमात्माकी अनुभूतिसे ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है।भगवान्को प्राप्त होनेपर भक्त नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहता है क्योंकि न तो उसका भगवान्से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान् संसारकी कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोषका कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टिके कारण वह संसारके किसी भी प्राणीपदार्थके प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)।संतुष्टः के साथ सततम् पद देकर भगवान्ने भक्तके उस नित्यनिरन्तर रहनेवाले संतोषकी ओर ही लक्ष्य,कराया है? जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़नेकी सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग? ज्ञानयोग या भक्तियोग -- किसी भी योगमार्गसे सिद्धि प्राप्त करनेवाले महापुरुषमें ऐसी संतुष्टि (जो वास्तवमें है) निरन्तर रहती है।योगी -- भक्तियोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त (नित्यनिरन्तर परमात्मासे संयुक्त) पुरुषका नाम यहाँ योगी है।वास्तवमें किसी भी मनुष्यका परमात्मासे कभी वियोग हुआ नहीं? है नहीं? हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकताका जिसने अनुभव कर लिया है? वही योगी है।यतात्मा -- जिसका मनबुद्धिइन्द्रियोंसहित शरीरपर पूर्ण अधिकार है? वह यतात्मा है। सिद्ध भक्तको मनबुद्धि आदि वशमें करने नहीं पड़ते? प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वशमें रहते हैं। इसलिये उसमें किसी प्रकारके इन्द्रियजन्य दुर्गुणदुराचारी के आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती।वास्तवमें मनबुद्धिइन्द्रियाँ स्वाभाविकरूपसे सन्मार्गपर चलनेके लिये ही हैं किन्तु संसारसे रागयुक्त सम्बन्ध रहनेसे ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्तका संसारसे किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त सम्बन्ध नहीं होता? इसलिये उसकी मनबुद्धिइन्द्रियाँ सर्वथा उसके वशमें होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंके लिये आदर्श होती है।ऐसा देखा जाता है कि न्यायपथपर चलनेवाले सत्पुरुषोंकी इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे? राजा दुष्यन्तकी वृत्ति शकुन्तलाकी ओर जानेपर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रियकन्या ही है? ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदासके कथनानुसार जहाँ सन्देह हो? वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है --,सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः।।(अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1। 21)जब न्यायशील सत्पुरुषकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्गकी ओर नहीं होती? तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्मसे कभी किसी अवस्थामें च्युत नहीं होता) की मनबुद्धिइन्द्रियाँ कुमार्गकी ओर जा ही कैसे सकती हैंदृढनिश्चयः -- सिद्ध महापुरुषकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धिमें एक परमात्माकी ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धिमें विपर्ययदोष (प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारका स्थायी दीखना) नहीं रहता। उसको एक भगवान्के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान्में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धिमें नहीं? प्रत्युत,स्वयं में होता है? जिसका आभास बुद्धिमें प्रतीत होता है।संसारकी स्वतन्त्र सत्ता माननेसे अथवा संसारसे अपना सम्बन्ध माननेसे ही बुद्धिमें विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषकी बुद्धिके निश्चयमें ही अन्तर होता है स्वरूपसे तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानीकी बुद्धिमें संसारकी सत्ता और उसका महत्त्व रहता है परन्तु सिद्ध भक्तकी बुद्धिमें एक भगवान्के सिवाय न तो संसारकी किसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोषसे सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मामें ही दृढ़ निश्चय होता है।मय्यर्पितमनोबुद्धिः -- जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्तिको ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान्का ही हो जाता है (जो कि वास्तवमें है) तब उसके मनबुद्धि भी अपनेआप भगवान्में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्तके मनबुद्धि भगवान्के अर्पित रहें -- इसमें तो कहना ही क्या हैजहाँ प्रेम होता है? वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्यका मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्तसे श्रेष्ठ समझता है? उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्तके लिये भगवान्से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मनबुद्धिपर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान्का ही मानता है। अतः उसके मनबुद्धि स्वाभाविक ही भगवान्में लगे रहते हैं।यः मद्भक्तः स मे प्रियः (टिप्पणी प0 651) -- भगवान्को तो सभी प्रिय हैं परन्तु भक्तका प्रेम भगवान्के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशामें ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता 4। 11) -- इस प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान्को भी भक्त प्रिय होता है। सम्बन्ध -- सिद्ध भक्तके लक्षणोंका दूसरा प्रकरण? जिसमें छः लक्षणोंका वर्णन है? आगेके श्लोकमें आया है।
।।12.14।। प्रस्तुत अध्याय के इस अन्तिम प्रकरण में? भगवान् श्रीकृष्ण छ खण्डों में ज्ञानी भक्त के लक्षण बताते हैं? जो साधकों के लिए सम्यक् आचरण एवं जीवन पद्धति के साधन हैं। अर्जुन की समझ के लिए एक सच्चे भक्त का चित्रण करने में योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्णतया सफल हुए हैं। जिस प्रकार एक कुशल चित्रकार स्वयं के द्वारा बनाये जा रहे चित्र को बारबार विभिन्न् कोणों से देखते हुए उसे और अधिक स्पष्ट और सुन्दर बनाने का प्रयत्न करता है? उसी प्रकार इन सात श्लोकों के खण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण? एक ज्ञानी भक्त के मन की सुन्दरता? बुद्धि की समता और जगत् में उसके व्यवहार का अत्यन्त स्पष्ट और सुन्दर चित्रण करते हैं। इस दृष्टि से? सम्भवत द्वितीय अध्याय में वर्णित स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों के प्रकरण के अतिरिक्त? सम्पूर्ण गीता में प्रस्तुत खण्ड के तुल्य अन्य कोई भाग नहीं है।हिन्दू धर्म के अनुयायियों पर सदाचार और नीतिशास्त्र के नियमों को ईश्वर के किसी पुत्र अथवा पैगम्बर ने अपनी स्वैच्छिक आज्ञाओं के रूप में नही थोपा है। इन आचारों एवं नीतियों की नियमावली को उन ईश्वरीय ज्ञानी? संत पुरुषों के व्यवहार को देखकर बनाया गया है? जिन्होंने आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त की थी और समाज में वैसा ही जीवन वास्तव में जिया था। ज्ञानी पुरुषों का सद्व्यवहार उनका स्वभाव बन चुका होता है? जो साधकों को अपनाने के लिए एक सूचक साधन बन जाता है। सर्वप्रथम? ज्ञानी भक्त के बाह्याचरण का अनुकरण करने से एक निष्ठावान साधक को उसकी आन्तरिक दिव्यता का भी अनुभव प्राप्त हो सकता है। इन भक्तजनों के लक्षण ही हमारे धर्म में विधान किये गये सदाचार और नीति के नियम हैं।इस खण्ड के प्रारम्भिक दो श्लोकों में ग्यारह आदर्श गुणों का वर्णन किया गया है। उनमें से प्रत्येक गुण उत्तम भक्त के नैतिक पक्ष को उजागर करता है। जिस भक्त ने यह पहचान लिया है कि भूतमात्र में एक ही आत्मा व्याप्त है? जो उसका स्वयं का ही स्वरूप है? तो ऐसा आत्मैकत्वदर्शी पुरुष किसी से भी द्वेष नहीं कर सकता? क्योंकि उसकी ज्ञान दृष्टि में कोई वस्तु परमात्मा से भिन्न है ही नहीं कोई भी जीवित पुरुष अपने ही दाहिने हाथ से द्वेष नहीं कर सकता? क्योंकि वह उसमें भी व्याप्त है। कोई भी व्यक्ति अपने से ही द्वेष या घृणा नहीं करता।प्राणीमात्र के प्रति उसका भाव मैत्रीपूर्ण होता है? और सबके लिए उसके मन में करुणा होती है। सबको वह अभय प्रदान करता है। वह? अहंकार और वस्तुओं में ममत्व भाव से रहित होता है। सुख और दुख से सम तथा किसी के द्वारा अपशब्द कहे अथवा पीड़ित किये जाने पर भी अविकारी भाव से रहता है। शरीर धारणमात्र के लिए भी वस्तुओं के न होने पर वह सदा सन्तुष्ट एवं निजानन्द में मग्न रहता है। वह आत्मसंयमी तथा तत्त्व के स्वरूप के विषय में दृढ़ निश्चय वाला होता है। भगवान् कहते हैं कि? अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पित करने वाला मेरा भक्त? मुझे प्रिय है।भगवान् ने पहले भी सातवें अध्याय में कहा था कि? ज्ञानी को मैं और मुझे ज्ञानी भक्त अत्यन्त प्रिय है। उसी कथन को यहाँ और अधिक विस्तार से स्पष्ट किया गया है।
12.14 He who is ever content, who is a yogi, who has self-control, who has firm conviction, who has dedicated his mind and intellect to Me-he who is such a devotee of Mine is dear to Me.
12.14 Ever content, steady in meditation, self-controlled, possessed of firm conviction, with the mind and intellect dedicated to Me, he, My devtoee, is dear to Me.
12.14. Who remains well-content and is a man of Yoga at all times; who is self-controlled and is firmly resolute; and who has offered to Me his mind and intellect-that devotee of Mine is dear to Me.
12.14 सन्तुष्टः contented? सततम् ever? योगी Yogi? यतात्मा selfcontrolled? दृढनिश्चयः possessed of firm,conviction? मयि अर्पितमनोबुद्धिः with mind and intellect dedicated to Me? यः who? मद्भक्तः My devotee? सः he? मे to Me? प्रियः dear.Commentary He knows that all that comes to him is the fruit of his own actions in the past and so he is ever contented. He does not endeavour to attain the finite or perishable objects. He fixes his mind and intellect on the Supreme Being or the Absolute? attains eternal satisfaction and stands adamant like yonder rock? amidst the vicissitudes of time.Contentment ever dwells in the heart of My devotee. Like the ocean which is ever full? his heart is ever full as he has no cravings. He is ever cheerful and joyous. He has a feeling of fullness whether or not he gets the means for the bare sustencance of his body. He is satisfied with a little thing and he does not care whether it is good or not. He never grumbles? complains or murmurs when he does not obtain food and clothing which are necessary for the maintenance of the body. His mind is ever filled with Me through constant and steady meditation.Yogi He who has evenness of mind always. He has controlled all the senses and desires. With a firm determination he has fixed his mind and intellect on Me in a spirit of perfect selfsurrender. He is endowed with a firm conviction regarding the essential nature of the Self. He who has the knowledge through Selfrealisation? I am Asanga Akarta Suddha Satchidananda Svayamprakasa Advitiya Brahman (unattached? nondoer? pure? ExistenceKnowledgeBliss Absolute? selfluminous? nondual Brahman) is a sage of firm determination. He has given to Me exclusively his mind (the faculty that wills and doubts) and the intellect (the faculty that determines). He is dear to Me as life itself. Such a comparison falls far short of the reality.The same thing which was said by Lord Krishna to Arjuna in chapter VII. 17? I am very dear to the wise and he is very dear to Me? is here described in detail.
12.14 Santustah satatam, he who is ever content: who has the sense of contentment irrespective of getting or not getting what is needed for the maintenance of the body; who is similarly ever-satisfied whether he gets or not a good thing. Yogi, who is a yogi, a man of concentrated mind; yata-atma, who has self-control, whose body and organs are under control; drdha-niscayah, who has firm conviction-with regard to the reality of the Self; arpita-mano-buddhih, who has dedicated his mind and intellect; mayi, to Me-(i.e.) a monk whose mind (having hte characteristics of reflection) and intellect (possessed of the faculty of taking decisions) are dedicated to, fixed on, Me alone; sah yah, he who is; such a modbhaktah, devotee of Mine; is priyah, dear; me, to Me. It was hinted in the Seventh Chapter, For I am very much dear to the man of Knowledge, and he too is dear to Me (7.17). That is being elaborated here.
12.13-14 Advesta etc. Santustah etc. [Friend] : he who has friend-liness (or goodwill) i.e. unselfishness. In the same manner compassionate [is to be interpreted]. These are mine etc., is the sence of mine (or sense of possessiveness); I am generous, I am powerful, I am victorious etc., is the sense of I (or egotism). In whom these two are absent that man is free from the senses of mine and of I. Forbearance : a thought that entertains no enmity even towards an enemy who has [actually] injured. A man of Yoga at all times : because his internal organ remains completely iet even at the stage of his mundane dealings.
12.13 - 12.14 In these and succeeding verses the Lord mentions the nature of the Karma Yogi who adores Him through his works. In other words the Bhakti element in Karma Yoga is emphasised. He never hates any being even though they hate him and do him wrong. For he thinks that the Lord impels these beings to hate him and do him wrong for atoning for his transgressions. He is friendly, evincing a friendly disposition towards all beings whether they hate him or do him wrong. He is compassionate, evincing compassion towards their sufferings. He is free from the feeling of mine, i.e., he is not possessive with regard to his body, senses and all things associated with them. He is free from the feeling of I, i.e., is free from the delusion that his body is the self. Therefore, pain and pleasure are the same to him, i.e., he is free from distress and delight resulting from pain and pleasure arising from his deeds. He is enduring, unaffected even by those two (i.e., pleasure and pain) due to the inevitable contact of sense-objects. He is content, namely, satisfied with whatever chance may bring him for the sustenance of his body. He ever meditates, i.e., is constantly intent on contemplating on the self as separate from the body. He is self-restrained, namely, he controls the activities of his mind. He is of firm conviction regarding the meanings taught in the science of the self. His mind and reason are dedicated to Me i.e., his mind and reason are dedicated to Me in the form Bhagavan Vasudeva alone is propitiated by disinterested activities, and when duly propitiated, He wil bring about for me the direct vision of the self. Such a devotee of mine, i.e., who works in this manner as a Karma Yogin, is dear to Me.
2 The characteristics of Lord Krishnas devotees which quickly lead to divine grace are now being elucidated in seven verses beginning with advesta-sarva- bhutanam meaning devoid of malice towards anyone, is non-envious of anyone and benevolent towards everyone, free from concepts of possessiveness and ideas of ego consciousness as well as free from false identification of being the physical body, compassionate to the unfortunate, always forgiving, content and cheerful with loss or gain, tolerant, equipoise in happiness or distress, satisfied with what comes by its own accord, firmly resolved in the teachings of the spiritual master about the Supreme Lord, one is contemplative and dedicating their mind, intellect and heart to the Supreme Lord Krishna is very dear to Him.
7 8 The Supreme Lord Krishna confirms that the qualities He is describing are applicable to yo mad-bhaktah which means His exclusive devotee. The word advesta means free from hatred for any being at any time. Maitrah means benign and showing good will to all, both well-wishers and ill-wishers by the understanding that they are merely following the tendencies of the impulse imparted to them by the Supreme Lord in relation to ones own good and bad actions. Karunah means compassionate, to be sympathetic towards the sufferings of others, friend and foe alike. Nirmamah means devoid of sentiments of possessiveness and ego related conceptions mine-ness regarding the physical body, family and associated relationships and objects. Nirahankarah means free from the false conception of thinking ones self to be the physical body and consequently unaffected by the dualities of material existence such as pain and pleasure, praise and ridicule, joy and grief, etc. all based upon the mentality of the mind. Ksami means tolerant, to be unaffected by external incidents such as physical accidents or catastrophes. Santustah means always content with whatever comes along by its own accord for the purpose of bodily sustenance. Satatam yogi is one who always engages themselves to the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness in loving devotion to the Supreme Lord. Satatam means always and has two meaning: one is to be continuously and perpetually engaged in bhakti or exclusive loving devotion to Lord Krishna at every moment and two is to engage in this bhakti to Lord Krishna in all ways meaning in every possibility and facet of ones life. Yatatma means the ability to govern and control the workings of the mind. Drdha-niscayah means firmly resolved in the knowledge of the Vedic scriptures regarding the immortality of the atma or eternal soul and the Supreme Lord and irrevocably established in bhakti to the Lord Krishna. Arpita-mano-buddhir means who dedicates their intelligence and consciousness to the Supreme Lord by performing activities dedicated to Him without desire for recompense. Then when the Supreme Lord Krishna is worshipped in this way He would Himself guide one internally to achieve atma tattva or realisation of the soul and attain communion with Him. One who possesses all these qualities is very dear to Supreme Lord Krishna and is me priyah or the recepient of His love.
7 8 The Supreme Lord Krishna confirms that the qualities He is describing are applicable to yo mad-bhaktah which means His exclusive devotee. The word advesta means free from hatred for any being at any time. Maitrah means benign and showing good will to all, both well-wishers and ill-wishers by the understanding that they are merely following the tendencies of the impulse imparted to them by the Supreme Lord in relation to ones own good and bad actions. Karunah means compassionate, to be sympathetic towards the sufferings of others, friend and foe alike. Nirmamah means devoid of sentiments of possessiveness and ego related conceptions mine-ness regarding the physical body, family and associated relationships and objects. Nirahankarah means free from the false conception of thinking ones self to be the physical body and consequently unaffected by the dualities of material existence such as pain and pleasure, praise and ridicule, joy and grief, etc. all based upon the mentality of the mind. Ksami means tolerant, to be unaffected by external incidents such as physical accidents or catastrophes. Santustah means always content with whatever comes along by its own accord for the purpose of bodily sustenance. Satatam yogi is one who always engages themselves to the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness in loving devotion to the Supreme Lord. Satatam means always and has two meaning: one is to be continuously and perpetually engaged in bhakti or exclusive loving devotion to Lord Krishna at every moment and two is to engage in this bhakti to Lord Krishna in all ways meaning in every possibility and facet of ones life. Yatatma means the ability to govern and control the workings of the mind. Drdha-niscayah means firmly resolved in the knowledge of the Vedic scriptures regarding the immortality of the atma or eternal soul and the Supreme Lord and irrevocably established in bhakti to the Lord Krishna. Arpita-mano-buddhir means who dedicates their intelligence and consciousness to the Supreme Lord by performing activities dedicated to Him without desire for recompense. Then when the Supreme Lord Krishna is worshipped in this way He would Himself guide one internally to achieve atma tattva or realisation of the soul and attain communion with Him. One who possesses all these qualities is very dear to Supreme Lord Krishna and is me priyah or the recepient of His love.
Santushtah satatam yogee yataatmaa dridhanishchayah; Mayyarpitamanobuddhiryo madbhaktah sa me priyah.
adveṣhṭā—free from malice; sarva-bhūtānām—toward all living beings; maitraḥ—friendly; karuṇaḥ—compassionate; eva—indeed; cha—and; nirmamaḥ—free from attachment to possession; nirahankāraḥ—free from egoism; sama—equipoised; duḥkha—distress; sukhaḥ—happiness; kṣhamī—forgiving; santuṣhṭaḥ—contented; satatam—steadily; yogī—united in devotion; yata-ātmā—self-controlled; dṛiḍha-niśhchayaḥ—firm in conviction; mayi—to me; arpita—dedicated; manaḥ—mind; buddhiḥ—intellect; yaḥ—who; mat-bhaktaḥ—My devotees; saḥ—they; me—to Me; priyaḥ—very dear