सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.14।।
।।12.14।। जो संयतात्मा? दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है? जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है? जो ऐसा मेरा भक्त है? वह मुझे प्रिय है।।
।।12.14।। प्रस्तुत अध्याय के इस अन्तिम प्रकरण में? भगवान् श्रीकृष्ण छ खण्डों में ज्ञानी भक्त के लक्षण बताते हैं? जो साधकों के लिए सम्यक् आचरण एवं जीवन पद्धति के साधन हैं। अर्जुन की समझ के लिए एक सच्चे भक्त का चित्रण करने में योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्णतया सफल हुए हैं। जिस प्रकार एक कुशल चित्रकार स्वयं के द्वारा बनाये जा रहे चित्र को बारबार विभिन्न् कोणों से देखते हुए उसे और अधिक स्पष्ट और सुन्दर बनाने का प्रयत्न करता है? उसी प्रकार इन सात श्लोकों के खण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण? एक ज्ञानी भक्त के मन की सुन्दरता? बुद्धि की समता और जगत् में उसके व्यवहार का अत्यन्त स्पष्ट और सुन्दर चित्रण करते हैं। इस दृष्टि से? सम्भवत द्वितीय अध्याय में वर्णित स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों के प्रकरण के अतिरिक्त? सम्पूर्ण गीता में प्रस्तुत खण्ड के तुल्य अन्य कोई भाग नहीं है।हिन्दू धर्म के अनुयायियों पर सदाचार और नीतिशास्त्र के नियमों को ईश्वर के किसी पुत्र अथवा पैगम्बर ने अपनी स्वैच्छिक आज्ञाओं के रूप में नही थोपा है। इन आचारों एवं नीतियों की नियमावली को उन ईश्वरीय ज्ञानी? संत पुरुषों के व्यवहार को देखकर बनाया गया है? जिन्होंने आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त की थी और समाज में वैसा ही जीवन वास्तव में जिया था। ज्ञानी पुरुषों का सद्व्यवहार उनका स्वभाव बन चुका होता है? जो साधकों को अपनाने के लिए एक सूचक साधन बन जाता है। सर्वप्रथम? ज्ञानी भक्त के बाह्याचरण का अनुकरण करने से एक निष्ठावान साधक को उसकी आन्तरिक दिव्यता का भी अनुभव प्राप्त हो सकता है। इन भक्तजनों के लक्षण ही हमारे धर्म में विधान किये गये सदाचार और नीति के नियम हैं।इस खण्ड के प्रारम्भिक दो श्लोकों में ग्यारह आदर्श गुणों का वर्णन किया गया है। उनमें से प्रत्येक गुण उत्तम भक्त के नैतिक पक्ष को उजागर करता है। जिस भक्त ने यह पहचान लिया है कि भूतमात्र में एक ही आत्मा व्याप्त है? जो उसका स्वयं का ही स्वरूप है? तो ऐसा आत्मैकत्वदर्शी पुरुष किसी से भी द्वेष नहीं कर सकता? क्योंकि उसकी ज्ञान दृष्टि में कोई वस्तु परमात्मा से भिन्न है ही नहीं कोई भी जीवित पुरुष अपने ही दाहिने हाथ से द्वेष नहीं कर सकता? क्योंकि वह उसमें भी व्याप्त है। कोई भी व्यक्ति अपने से ही द्वेष या घृणा नहीं करता।प्राणीमात्र के प्रति उसका भाव मैत्रीपूर्ण होता है? और सबके लिए उसके मन में करुणा होती है। सबको वह अभय प्रदान करता है। वह? अहंकार और वस्तुओं में ममत्व भाव से रहित होता है। सुख और दुख से सम तथा किसी के द्वारा अपशब्द कहे अथवा पीड़ित किये जाने पर भी अविकारी भाव से रहता है। शरीर धारणमात्र के लिए भी वस्तुओं के न होने पर वह सदा सन्तुष्ट एवं निजानन्द में मग्न रहता है। वह आत्मसंयमी तथा तत्त्व के स्वरूप के विषय में दृढ़ निश्चय वाला होता है। भगवान् कहते हैं कि? अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पित करने वाला मेरा भक्त? मुझे प्रिय है।भगवान् ने पहले भी सातवें अध्याय में कहा था कि? ज्ञानी को मैं और मुझे ज्ञानी भक्त अत्यन्त प्रिय है। उसी कथन को यहाँ और अधिक विस्तार से स्पष्ट किया गया है।