यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।12.15।।
।।12.15।।जिससे किसी प्राणीको उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी किसी प्राणीसे उद्वेग नहीं होता तथा जो हर्ष? अमर्ष (ईर्ष्या)? भय और उद्वेगसे रहित है? वह मुझे प्रिय है।
।।12.15।। जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव? व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष? अमर्ष (असहिष्णुता) भय और उद्वेगों से मुक्त है?वह भक्त मुझे प्रिय है।।
।।12.15।। व्याख्या -- यस्मान्नोद्विजते लोकः -- भक्त सर्वत्र और सबमें अपने परमप्रिय प्रभुको ही देखता है। अतः उसकी दृष्टिमें मन? वाणी और शरीरसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ एकमात्र भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होती है (गीता 6। 31)। ऐसी अवस्थामें भक्त किसी भी प्राणीको उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है फिर भी भक्तोंके चरित्रमें यह देखनेमें आता है कि उनकी महिमा? आदरसत्कार तथा कहींकहीं उनकी क्रिया? यहाँतक कि उनकी सौम्य आकृतिमात्रसे भी कुछ लोग ईर्ष्यावश उद्विग्न हो जाते हैं और भक्तोंसे अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं।लोगोंको भक्तसे होनेवाले उद्वेगके सम्बन्धमें विचार किया जाय? तो यही पता चलेगा कि भक्तकी क्रियाएँ कभी किसीके उद्वेगका कारण नहीं होतीं क्योंकि भक्त प्राणिमात्रमें भगवान्की ही देखता है -- वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)। उसकी मात्र क्रियाएँ स्वभावतः प्राणियोंके परमहितके लिये ही होती हैं। उसके द्वारा कभी भूलसे भी किसीके अहितकी चेष्टा नहीं होती। जिनको उससे उद्वेग होता है? वह उनके अपने रागद्वेषयुक्त आसुर स्वभावके कारण ही होता है। अपने ही दोषयुक्त स्वभावके कारण उनको भक्तकी हितपूर्ण चेष्टाएँ भी उद्वेगजनक प्रतीत होती हैं। इसमें भक्तका क्या दोष है भर्तृहरिजी कहते हैं -- मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनाम्। लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति।।(भर्तृहरिनीतिशतक 61)हरिण? मछली और सज्जन क्रमशः तृण? जल और संतोषपर अपना जीवननिर्वाह करते हैं (किसीको कुछ नहीं कहते) परन्तु व्याध? मछुए और दुष्टलोग अकारण ही इनसे वैर करते हैं।,,वास्तवमें भक्तोंद्वारा दूसरे मनुष्योंके उद्विग्न होनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता? प्रत्युत भक्तोंके चरित्रमें ऐसे प्रसङ्ग देखनेमें आते हैं कि उनसे द्वेष रखनेवाले लोग भी उनके चिन्तन और सङ्गदर्शनस्पर्षवार्तालापके प्रभावसे अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गये। ऐसा होनेमें भक्तोंका उदारतापूर्ण स्वभाव ही हेतु है।उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।(मानस 5। 41। 4)परन्तु भक्तोंसे द्वेष करनेवाले सभी लोगोंको लाभ ही होता हो -- ऐसा नियम भी नहीं है।अगर ऐसा मान लिया जाय कि भक्तसे किसीको उद्वेग होता ही नहीं अथवा दूसरे लोग भक्तके विरुद्ध कोई चेष्टा करते ही नहीं या भक्तके शत्रुमित्र होते ही नहीं? तो फिर भक्तके लिये शत्रुमित्र? मानअपमान? निन्दास्तुति आदिमें सम होनेकी बात (जो आगे अठारहवेंउन्नीसवें श्लोकोंमें कही गयी है) नहीं कही जाती। तात्पर्य यह है कि लोगोंको अपने आसुर स्वभावके कारण भक्तकी हितकर क्रियाओंसे भी उद्वेग हो सकता है और वे बदलेकी भावनासे भक्तके विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपनेको उस भक्तका शत्रु मान सकते हैं परन्तु भक्तकी दृष्टिमें न तो कोई शत्रु होता है और न किसीको उद्विग्न करनेका उसका भाव ही होता है।लोकान्नोद्विजते च यः -- पहले भगवान्ने बताया कि भक्तसे किसी प्राणीको उद्वेग नहीं होता और अब उपर्युक्त पदोंसे यह बताते हैं कि भक्तको खुद भी किसी प्राणीसे उद्वेग नहीं होता। इसके दो कारण हैं --,(1) भक्तके शरीर? मन? इन्द्रियाँ? सिद्धान्त आदिके विरुद्ध भी अनिच्छा या परेच्छासे क्रियाएँ और घटनाएँ हो सकती हैं। परन्तु वास्तविकताका बोध होने तथा भगवान्में अत्यन्त प्रेम होनेके कारण भक्त भगवत्प्रेममें इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान्के ही दर्शन होते हैं। इसलिये प्राणिमात्रकी क्रियाओंमें (चाहे उनमें कुछ उसके प्रतिकूल ही क्यों न हों) उसको भगवान्की ही लीला दिखायी देती है। अतः उसको किसी भी क्रियासे कभी उद्वेग नहीं होता।(2) मनुष्यको दूसरोंसे उद्वेग तभी होता है? जब उसकी कामना? मान्यता? साधना? धारणा आदिका विरोध होता है। भक्त सर्वथा पूर्णकाम होता है। इसलिये दूसरोंसे उद्विग्न होनेका कोई कारण ही नहीं रहता।हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः -- यहाँ हर्षसे मुक्त होनेका तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त सब प्रकारके हर्षादि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है। पर इसका आशय यह नहीं है कि सिद्ध भक्त सर्वथा हर्षरहित (प्रसन्नताशून्य) होता है? प्रत्युत उसकी प्रसन्नता तो नित्य? एकरस? विलक्षण और अलौकिक होती है। हाँ? उसकी प्रसन्नता सांसारिक पदार्थोंके संयोगवियोगसे उत्पन्न क्षणिक? नाशवान् तथा घटनेबढ़नेवाली नहीं होती। सर्वत्र भगवद्बुद्धि रहनेसे एकमात्र अपने इष्टदेव भगवान्को और उनकी लीलाओंको देखदेखकर वह सदा ही प्रसन्न रहता है।किसीके उत्कर्ष(उन्नति) को सहन न करना अमर्ष कहलाता है। दूसरे लोगोंको अपने समान या अपनेसे अधिक सुखसुविधा? धन? विद्या? महिमा? आदरसत्कार आदि प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्यके अन्तःकरणमें उनके प्रति ईर्ष्या होने लगती है क्योंकि उसको दूसरोंका उत्कर्ष सहन नहीं होता।कई बार कुछ साधकोंके अन्तःकरणमें भी दूसरे साधकोंकी आध्यात्मिक उन्नति और प्रसन्नता देखकर अथवा सुनकर किञ्चित् ईर्ष्याका भाव पैदा हो जाता है। पर भक्त इस विकारसे सर्वथा रहित होता है क्योंकि उसकी दृष्टिमें अपने प्रिय प्रभुके सिवाय अन्य किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं। फिर वह किसके प्रति अमर्ष करे और क्यों करेअगर साधकके हृदयमें दूसरोंकी आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भाव पैदा होता है कि मेरी भी ऐसी ही आध्यात्मिक उन्नति हो? तो यह भाव उसके साधनमें सहायक होता है। परन्तु अगर साधकके हृदयमें ऐसा भाव पैदा हो जाय कि इसकी उन्नति क्यों हो गयी? तो ऐसे दुर्भावके कारण उसके हृदयमें अमर्षका भाव पैदा हो जायगा? जो उसे पतनकी ओर ले जानेवाला होगा।इष्टके वियोग और अनिष्टके संयोगकी आशङ्कासे होनेवाले विकरालको भय कहते हैं। भय दो कारणोंसे होता है -- (1) बाहरी कारणोंसे जैसे -- सिंह? साँप? चोर? डाकू आदिसे अनिष्ट होने अथवा किसी प्रकारकी सांसारिक हानि पहुँचनेकी आशङ्कासे होनेवाला भय और (2) भीतरी कारणोंसे जैसे -- चोरी? झूठ? कपट? व्यभिचार आदि शास्त्रविरुद्ध भावों तथा आचरणोंसे होनेवाला भय।सबसे भड़ा भय मौतका होता है। विवेकशील कहे जानेवाले पुरुषोंको भी प्रायः मौतका भय बना रहता है (टिप्पणी प0 653)। साधकको भी प्रायः सत्सङ्गभजनध्यानादि साधनोंसे शरीरके कृश होने आदिका भय रहता है। उसको कभीकभी यह भय भी होता है कि संसारसे सर्वथा वैराग्य हो जानेपर मेरे शरीर और परिवारका पालन कैसे होगा साधारण मनुष्यको अनुकूल वस्तुकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवाले अपनेसे बलवान् मनुष्यसे भय होता है। ये सभी भय केवल शरीर(जडता) के आश्रयसे ही पैदा होते हैं। भक्त सर्वथा भगवच्चरणोंके आश्रित रहता है? इसलिये वह सदासर्वदा भयरहित होता है। साधकको भी तभीतक भय रहता है? जबतक वह सर्वथा भगवच्चरणोंके आश्रित नहीं हो जाता।सिद्ध भक्तको तो सदा? सर्वत्र अपने प्रिय प्रभुकी लीला ही दीखती है। फिर भगवान्की लीला उसके हृदयमें भय कैसे पैदा कर सकती हैमनका एकरूप न रहकर हलचलयुक्त हो जाना उद्वेग कहलाता है। इस (पंद्रहवें) श्लोकमें उद्वेग शब्द तीन बार आया है। पहली बार उद्वेगकी बात कहकर भगवान्ने यह बताया कि भक्तकी कोई भी क्रिया उसकी ओरसे किसी मनुष्यके उद्वेगका कारण नहीं बनती। दूसरी बार उद्वेगकी बात कहकर यह बताया कि दूसरे मनुष्योंकी किसी भी क्रियासे भक्तके अन्तःकरणमें उद्वेग नहीं होता। इसके सिवाय दूसरे कई कारणोंसे भी मनुष्यको उद्वेग हो सकता है जैसे बारबार कोशिश करनेपर भी अपना कार्य पूरा न होना? कार्यका इच्छानुसार फल न मिलना? अनिच्छासे ऋतुपरिवर्तन भूकम्भ? बाढ़ आदि दुःखदायी घटनाएँ घटना अपनी कामना? मान्यता? सिद्धान्त अथवा साधनमें विघ्न पड़ना आदि। भक्त इन सभी प्रकारके उद्वेगोंसे सर्वथा मुक्त होता है -- यह बतानेके लिये ही तीसरी बार उद्वेगकी बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि भक्तके अन्तःकरणमें उद्वेग नामकी कोई चीज रहती ही नहीं।उद्वेगके होनेमें अज्ञानजनित इच्छा और आसुर स्वभाव ही कारण है। भक्तमें अज्ञानका सर्वथा अभाव होनेसे कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं रहती? फिर आसुर स्वभाव तो साधनाअवस्थामें ही नष्ट हो जाता है। भगवान्की इच्छा ही भक्तकी इच्छा होती है। भक्त अपनी क्रियाओंके फलरूपमें अथवा अनिच्छासे प्राप्त अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिमें भगवान्का कृपापूर्ण विधान ही देखता है और निरन्तर आनन्दमें मग्न रहता है। अतः भक्तमें उद्वेगका सर्वथा अभाव होता है।मुक्तः पदका अर्थ है -- विकारोंसे सर्वथा छूटा हुआ। अन्तःकरणमें संसारका आदर रहनेसे अर्थात् परमात्मामें पूर्णतया मनबुद्धि न लगनेसे ही हर्ष? अमर्ष? भय? उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं। परन्तु भक्तकी दृष्टमें एक भगवान्के सिवाय अन्य किसीकी स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता न रहनेसे उसमें ये विकार उत्पन्न ही नहीं होते। उसमें स्वाभाविक ही सद्गुणसदाचार रहते हैं।इस श्लोकमें भगवान्ने भक्तः पद न देकर मुक्तः पद दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त यावन्मात्र दुर्गुणदुराचारोंसे सर्वथा रहित होता है।गुणोंका अभिमान होनेसे दुर्गुण अपनेआप आ जाते हैं। अपनेमें किसी गुणके आनेपर अभिमानरूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाय तो उस गुणको गुण कैसे माना जा सकता है दैवी सम्पत्ति (सद्गुण) से कभी आसुरी सम्पत्ति (दुर्गुण) उत्पन्न नहीं हो सकती। अगर दैवी सम्पत्तिसे आसुरी सम्पत्तिकी उत्पत्ति होती तो दैवी संपद्विमोक्षाय (गीता 16। 5) -- इन भगवद्वचनोंके अनुसार मनुष्य मुक्त कैसे होता वास्तवमें गुणोंके,अभिमानमें गुण कम तथा दुर्गुण (अभिमान) अधिक होता है। अभिमानसे दुर्गुणोंकी वृद्धि होती है क्योंकि सभी दुर्गुणदुराचार अभिमानके ही आश्रित रहते हैं।भक्तको तो प्रायः इस बातकी जानकारी ही नहीं होती कि मेरेमें कोई गुण है। अगर उसको अपनेमें कभी कोई गुण दीखता भी है तो वह उसको भगवान्का ही मानता है? अपना नहीं। इस प्रकार गुणोंका अभिमान न होनेके कारण भक्त सभी दुर्गुणदुराचारों? विकारोंसे मुक्त होता है।भक्तको भगवान् प्रिय होते हैं? इसलिये भगवान्को भी भक्त प्रिय होते हैं? (गीता 7। 17)। सम्बन्ध -- सिद्ध भक्तके छः लक्षण बतानेवाला तीसरा प्रकरण आगेके श्लोकमें आया है।
।।12.15।। इस प्रकरण के द्वितीय भागरूप श्लोक में ज्ञानी भक्त के तीन और लक्षण बताये गये हैं। जिस पुरुष से इस लोक को उद्वेग नहीं होता ज्ञानी पुरुष वह है? जो लोक में किसी प्रकार का विक्षेप या उद्वेग उत्पन्न नहीं करता है। जहाँ सूर्य है वहाँ अन्धकार नहीं रह सकता वैसे ही? जहाँ शान्त और आनन्दस्वरूप में स्थित ज्ञानी भक्त होगा? वहाँ अशान्ति और उदासी का प्रश्न ही नहीं उठता है। उसके आसपास शान्ति? प्रेम और आनन्द का ही ऐसा वातावरण निर्मित होता है कि वहाँ पहुँचने पर एक क्षुब्ध और दुखी पुरुष भी उस महात्मा पुरुष से प्रभावित होकर अपने दुख को भूलकर शान्ति का अनुभव करता है। वास्तविकता तो यह है कि सारा जगत् उस सन्त के समीप विवश हुआ सा दौड़ पड़ता है केवल उसके ज्ञान और आनन्द को स्वयं में अनुभव करने के लिए जो स्वयं भी किसी से उद्विग्न नहीं होता है न केवल वह सबको शान्ति प्रदान करता है बल्कि स्वयं अपनी शान्ति और आनन्द को किसी प्रकार से भी नहीं खोता है। जगत् की कोई भी स्थिति उसे उद्विग्न नहीं कर सकती। बाह्य दुर्व्यवस्था विरोध और प्रतिशोध की भावना से पूर्ण उपद्रवी लोगों के होने पर भी उसके मन में विक्षेप नहीं होता। भौतिक वस्तुओं का यह जगत् सदैव परिवर्तित होता रहता है? और सामान्यत सबको विमूढ और दुखी कर देने वाला मृत्यु का यह ताण्डव सन्त पुरुष की मनशान्ति को रंचमात्र भी विचलित नहीं कर सकता। मानो वह अधिक शक्तिशाली धातु का बना होता है और उसका जीवन सुदृढ़ नीव पर निर्मित होता है।समुद्र की सतह पर अनेक लकड़ियाँ इतस्तत बहती और भटकती रहती हैं? किन्तु समुद्री चट्टानों की दृढ़ नींव पर निर्मित दीपस्तम्भ समुद्र में उठने वाले ज्वारभाटे का अवलोकन करते हुये निश्चल और सीधा खड़ा रहता है ज्ञानी पुरुष का व्यक्तित्व जीवन के अधिष्ठानस्वरूप सत्य वस्तु की अनुभूति में स्थित होने के कारण जीवन की सतही परिस्थितियों से कभी विचलित नहीं होता? क्योंकि उसके मन में किसी वस्तु से कोई आसक्ति नहीं होती। संघर्षमय परिस्थितियों के अन्तर्बाह्य भी वह एक नित्य अपरिवर्तनशील अधिष्टान को देखता है? और प्रकृति के शुद्ध संगीत में मनुष्य के द्वारा उत्पन्न किये जा रहे वर्जित स्वरों में भी वह एक अचल और शुद्ध स्वर का ही श्रवण करता है।वह हर्ष? अमर्ष? भय और उद्वेग से मुक्त होता है। इस प्रकार जो भक्त अपने स्वयं के साथ तथा जगत् के साथ भी सदा शान्ति का अनुभव करता है? और जो परिस्थितियों पर शासन करता है? और उनका शिकार नहीं बनता है? जिसने सामान्य मनुष्य के अवगुणों और प्रतिक्रियाओं को पार कर लिया है? ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।इसी विषय में भगवान् आगे कहते हैं
12.15 He, too, owing to whom the world is not disturbed, and who is not disturbed by the world, who is free from joy, impatience, fear and anxiety, is dear to Me.
12.15 He by whom the world is not agitated and who cannot be agitated by the world, and who is freed from joy, anger, fear and anxiety he is dear to Me.
12.15. He, on account of whom the world does not get agitated; who too does not feel agitated on account of the world; who is free from joy and impatience, fear and anxiety-he is dear to Me.
12.15 यस्मात् for whom? न not? उद्विजते is agitated? लोकः the world? लोकात् from the world? न not? उद्विजते is agitated? च and? यः who? हर्षामर्षभयोद्वेगैः by (from) joy? wrath? fear and anxiety? मुक्तः freed? यः who? सः he? च and? मे to Me? प्रियः dear.Commentary Harsha Joy? exhilaration of the mind when one obtains an object of desire. This is indicated by hair standing on end? tears flowing down the face? etc.Amarsha Anger. Some say that it is a mixture of jealousy and anger.Udvega Anxiety? worry? sorrow? discomfiture.The knower of Brahman or the devotee of the Lord never injures any creature in thought? word and deed. He gives security of life to all creatures. Therefore? no creature is afraid of him. The sage feels that the world is his body? his own Self. How can he be afraid of the world then He never hurts others and is not hurt by the words or deeds of others.The mental modifications of joy? envy? fear and anxiety leave the sage or devotee of their own accord? just as the beasts and birds leave the forest when it is on fire.Such a sage or devotee is dear to Me. How can I describe him
12.15 Sah ca, he too; yasmat, owing to whom owing to which monk; lokah, the world; na udvijate, is not disturbed, not afflicted, not agitated; so also, yah na udvijate, he who is not disturbed; lokat, by the world; muktah, who is free; harsa-amarsa-bhaya-udvegaih, from joy, impatience, fear and anxiety;-harsa is elation of the mind on aciring a thing dear to oneself, and is manifested as horripillation, shedding of tears, etc.; amarsa is non-forbearance; bhaya is fright; udvega is distress; he who is free from them-, is priyah, dear; me, to Me.
12.15 See Comment under 12.20
12.15 That person who is engaged in Karma Yoga does not become the cause of fear to the world; he does nothing to cause fear to the world. He has no cause to fear the world, i.e., no action on the part of others can cause him fear because of the certainty that he is not inimical to the world. Therefore he is not in the habit of showing favour towards someone and intolerance towards others; he has no fear of some or repulsion for others. Such a person is dear to Me.
Moreover, it is said: yasyasti bhaktir bhagavaty akincana sarvair gunais tatra samasate surah One who has unflinching devotion for the Personality of Godhead has all the good qualities of the demigods. SB 5.18.12 By this statement it is understood that also other qualities which please the Lord automatically appear by the constant performance of bhakti to me. Please hear about these. Five verses describe these qualities. The qualities mentioned here-being freed from material jubilation, anger, fear and anxiety – are mentioned again in verse 17 in order to show the difficulty in becoming free from those elements.
4 5 From whom the world gets no disturbance and to whom is never disturbed by the world, to who is free from mundane pleasure is free from attachment and to who is free from elation is free from desire and to who is free from jealousy is free from envy at anothers gain. Fear is terror coming from apprehension from danger. Anxiety is the agitation of the mind because of it. Lord Krishnas devotee who is free from all these things is very dear to Him.
10 11 That person who by their actions do not become a cause of fear or trouble in their life and causing no affliction to the world has no cause to feel afflicted by the world. As no elements of antagonism exist in such a one, no action received from the world can be taken as being aggression at any time. One who is free from giving or receiving joy and grief to any being who is free from all conceptions of being the bestower of anything or the recipient of anything is very dear to the Supreme Lord Krishna.
10 11 That person who by their actions do not become a cause of fear or trouble in their life and causing no affliction to the world has no cause to feel afflicted by the world. As no elements of antagonism exist in such a one, no action received from the world can be taken as being aggression at any time. One who is free from giving or receiving joy and grief to any being who is free from all conceptions of being the bestower of anything or the recipient of anything is very dear to the Supreme Lord Krishna.
Yasmaannodwijate loko lokaannodwijate cha yah; Harshaamarshabhayodwegairmukto yah sa cha me priyah.
yasmāt—by whom; na—not; udvijate—are agitated; lokaḥ—people; lokāt—from people; na—not; udvijate—are disturbed; cha—and; yaḥ—who; harṣha—pleasure; amarṣha—pain; bhaya—fear; udvegaiḥ—anxiety; muktaḥ—freed; yaḥ—who; saḥ—they; cha—and; me—to Me; priyaḥ—very dear