तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः।।12.19।।
।।12.19।।जो शत्रु और मित्रमें तथा मानअपमानमें सम है और शीतउष्ण (अनुकूलताप्रतिकूलता) तथा सुखदुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है? और जो निन्दास्तुतिको समान समझनेवाला? मननशील? जिसकिसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट? रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममताआसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है? वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
।।12.19।। जिसको निन्दा और स्तुति दोनों ही तुल्य है? जो मौनी है? जो किसी अल्प वस्तु से भी सन्तुष्ट है? जो अनिकेत है? वह स्थिर बुद्धि का भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।
।।12.19।। व्याख्या -- समः शत्रौ च मित्रे च -- यहाँ भगवान्ने भक्तमें व्यक्तियोंके प्रति होनेवाली समताका वर्णन किया है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने तथा रागद्वेषसे रहित होनेके कारण सिद्ध भक्तका किसीके भी प्रति शत्रुमित्रका भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहारमें अपने स्वभावके अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलताको देखकर उसमें मित्रता या शत्रुताका आरोप कर लेते हैं। साधारण लोगोंका तो कहना ही क्या है? सावधान रहनेवाले साधकोंका भी उस सिद्ध भक्तके प्रति मित्रता और शत्रुताका भाव हो सकता है। परंतु भक्त अपनेआपमें सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदयमें कभी किसीके प्रति शत्रुमित्रका भाव उत्पन्न नहीं होता।मान लिया जाय कि भक्तके प्रति शत्रुता और मित्रताका भाव रखनेवाले दो व्यक्तियोंमें धनके बँटवारेसे सम्बन्धित कोई विवाद हो जाय और उसका निर्णय करानेके लिये वे भक्तके पास जायँ? तो भक्त धनका बँटवारा करते समय शत्रुभाववाले व्यक्तिको कुछ अधिक और मित्रभाववाले व्यक्तिको कुछ कम धन देगा। यद्यपि भक्तके इस निर्णय(व्यवहार) में विषमता दीखती है? तथापि शत्रुभाववाले व्यक्तिको इस निर्णयमें समता दिखायी देगी कि इसने पक्षपातरहित बँटवारा किया है। अतः भक्तके इस निर्णयमें विषमता (पक्षपात) दीखनेपर भी वास्तवमें यह (समताको उत्पन्न करनेवाला होनेसे) समता ही कहलायेगी।उपर्युक्त पदोंसे यह भी सिद्ध होता है कि सिद्ध भक्तके साथ भी लोग (अपने भावके अनुसार) शत्रुतामित्रताका व्यवहार करते हैं और उसके व्यवहारसे अपनेको उसका शत्रुमित्र मान लेते हैं। इसीलिये उसे यहाँ शत्रुमित्रसे रहित न कहकर शत्रुमित्रमें सम कहा गया है।तथा मानापमानयोः -- मानअपमान परकृत क्रिया है? जो शरीरके प्रति होती है। भक्तकी अपने कहलानेवाले शरीरमें न तो अहंता होती है? न ममता। इसलिये शरीरका मानअपमान होनेपर भी भक्तके अन्तःकरणमें कोई विकार (हर्षशोक) पैदा नहीं होता। वह नित्यनिरन्तर समतामें स्थित रहता है।शीतोष्णसुखदुःखेषु समः -- इन पदोंमें दो स्थानोंपर सिद्ध भक्तकी समता बतायी गयी है -- (1) शीतउष्णमें समता अर्थात् इन्द्रियोंका अपनेअपने विषयोंसे संयोग होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।(2) सुखदुःखमें समता अर्थात् धनादि पदार्थोंकी प्राप्ति या अप्राप्ति होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।शीतोष्ण शब्दका अर्थ सरदीगरमी होता है। सरदीगरमी त्वगिन्द्रियके विषय हैं। भक्त केवल त्वगिन्द्रियके विषयोंमें ही सम रहता हो? ऐसी बात नहीं है। वह तो समस्त इन्द्रियोंके विषयोंमें सम रहता है। अतः यहाँ शीतोष्ण शब्द समस्त इन्द्रियोंके विषयोंका वाचक है। प्रत्येक इन्द्रियका अपनेअपने विषयके साथ संयोग होनेपर भक्तको उन (अनुकूल या प्रतिकूल) विषयोंका ज्ञान तो होता है? पर उसके अन्तःकरणमें,हर्षशोकादि विकार नहीं होते। वह सदा सम रहता है।साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें सुख तथा प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें दुःखका अनुभव करते हैं। परन्तु उन्हीं पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा न होनेपर सिद्ध भक्तके अन्तःकरणमें कभी किञ्चिन्मात्र भी रागद्वेष? हर्षशोकादि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थितिमें सम रहता है।सुखदुःखमें सम रहने तथा सुखदुःखसे रहित होने -- दोनोंका गीतामें एक ही अर्थमें प्रयोग हुआ है। सुखदुःखकी परिस्थिति अवश्यम्भावी है अतः उससे रहित होना सम्भव नहीं है। इसलिये भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियोंमे सम रहता है। हाँ? अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर अन्तःकरणमें जो हर्षशोक होते हैं? उनसे रहित हुआ जा सकता है। इस दृष्टिसे गीतामें जहाँ सुखदुःखमें सम होनेकी बात आयी है? वहाँ सुखदुःखकी परिस्थितिमें सम समझना चाहिये और जहाँ सुखदुःखसे रहित होनेकी बात आयी है? वहाँ (अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिकी प्राप्तिसे होनेवाले) हर्षशोकसे रहित समझना चाहिये।सङ्गविवर्जितः -- सङ्ग शब्दका अर्थ सम्बन्ध (संयोग) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्यके लिये यह सम्भव नहीं है कि वह स्वरूपसे सब पदार्थोंका सङ्ग अर्थात् सम्बन्ध छोड़ सके क्योंकि जबतक मनुष्य जीवित रहता है? तबतक शरीरमनबुद्धिइन्द्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ? शरीरसे भिन्न कुछ पदार्थोंका त्याग स्वरूपसे किया जा सकता है। जैसे किसी व्यक्तिने स्वरूपसे प्राणीपदार्थोंका सङ्ग छो़ड़ दिया? पर उसके अन्तःकरणमें अगर उनके प्रति किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति बनी हुई है? तो उन प्राणीपदार्थोंसे दूर होते हुए भी वास्तवमें उसका उनसे सम्बन्ध बना हुआ ही है। दूसरी ओर? अगर अन्तःकरणमें प्राणीपदार्थोंकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है? तो पास रहते हुए भी वास्तवमें उनसे सम्बन्ध नहीं है। अगर पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही मुक्ति होती? तो मरनेवाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता क्योंकि उसने तो अपने शरीरका भी त्याग कर दिया परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरणमें आसक्तिके रहते हुए शरीरका त्याग करनेपर भी संसारका बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्यको सांसारिक आसक्ति ही बाँधनेवाली है? न कि सांसारिक प्राणीपदार्थोंका स्वरूपसे सम्बन्ध।आसक्तिको मिटानेके लिये पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना भी एक साधन हो सकता है किंतु खास जरूरत आसक्तिका सर्वथा त्याग करनेकी ही है। संसारके प्रति यदि किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति है? तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधकको क्रमशः कामना? क्रोध? मूढ़ता आदिको प्राप्त कराती हुई उसे पतनके गर्तमें गिरानेका हेतु बन सकती है (गीता 2। 62 63)।भगवान्ने दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें परं दृष्ट्वा निवर्तते पदोंसे भगवत्प्राप्तिके बाद आसक्तिकी सर्वथा निवृत्तिकी बात कही है। भगवत्प्राप्तिसे पहले भी आसक्तिकी निवृत्ति हो सकती है? पर भगवत्प्राप्तिके बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। भगवत्प्राप्त महापुरुषमें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही है। परन्तु भगवत्प्राप्तिसे पूर्व साधनावस्थामें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही नहीं -- ऐसा नियम नहीं है। साधनावस्थामें भी आसक्तिका सर्वथा अभाव होकर साधकको तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है। (गीता 5। 21 16। 22)।आसक्ति न तो परमात्माके अंश शुद्ध चेतनमें रहती है और न जड(प्रकृति) में ही। वह जड और चेतनके सम्बन्धरूप मैंपनकी मान्यतामें रहती है। वही आसक्ति बुद्धि? मन? इन्द्रियों और विषयों(पदार्थों) में प्रतीत होती है। अगर साधकके मैंपनकी मान्यतामें रहनेवाली आसक्ति मिट जाय? तो दूसरी जगह प्रतीत होनेवाली आसक्ति स्वतः मिट जायगी। आसक्तिका कारण अविवेक है। अपने विवेकको पूर्णतया महत्त्व न देनेसे साधकमें आसक्ति रहती है। भक्तमें अविवेक नहीं रहता। इसलिये वह आसक्तिसे सर्वथा रहित होता है।अपने अंशी भगवान्से विमुख होकर भूलसे संसारको अपना मान लेनेसे संसारमें राग हो जाता है और राग होनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। संसारसे माना हुआ अपनापन सर्वथा मिट जानेसे बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धिके सम होनेपर स्वयं आसक्ति रहित हो जाता है।मार्मिक बातवास्तवमें जीवमात्रकी भगवान्के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जबतक संसारके साथ भूलसे माना हुआ अपनेपनका सम्बन्ध है? तबतक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती? प्रत्युत संसारमें आसक्तिके रूपमें प्रतीत होती है। संसारकी आसक्ति रहते हुए भी वस्तुतः भगवान्की अनुरक्ति मिटती नहीं। अनुरक्तिके प्रकट होते ही आसक्ति (सूर्यका उदय होनेपर अंधकारकी तरह) सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्योंज्यों संसारसे विरक्ति होती है? त्योंहीत्यों भगवान्में अनुरक्ति प्रकट होती है। यह नियम है कि आसक्तिको समाप्त करके विरक्ति स्वयं भी उसी प्रकार शान्त हो जाती है? जिस प्रकार लकड़ीको जलाकर अग्नि। इस प्रकार आसक्ति और विरक्तिके न रहनेपर स्वतःस्वाभाविक अनुरक्ति(भगवत्प्रेम) का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। इसके लिये किञ्चिन्मात्र भी कोई उद्योग नहीं करना पड़ता। फिर भक्त सब प्रकारसे भगवान्के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्की प्रियताके लिये ही होती हैं। उससे प्रसन्न होकर भगवान् उस भक्तको अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेमको भी भगवान्के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान् और आनन्दित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान्के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान्के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके आदानप्रदानकी यह लीला चलती रहती है।तुल्यनिन्दास्तुतिः -- निन्दास्तुति मुख्यतः नामकी होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभावके अनुसार भक्तकी निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्तमें अपने कहलानेवाले नाम और शरीरमें लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिये निन्दास्तुतिका उसपर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्तका न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करनेवालेके प्रति राग होता है और न निन्दा करनेवालेके प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनोंमें ही समबुद्धि रहती है।साधारण मनुष्योंके भीतर अपनी प्रशंसाकी कामना रहा करती है? इसलिये वे अपनी निन्दा सुनकर दुःखका और स्तुति सुनकर सुखका अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहनेवाले) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं। परन्तु नाममें किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होनेके कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावोंसे रहित होता है अर्थात् निन्दास्तुतिमें सम होता है। हाँ? वह भी कभीकभी लोकसंग्रहके लिये साधककी तरह (निन्दामें सावधान तथा स्तुतिमें लज्जित होनेका) व्यवहार कर सकता है।भक्तकी सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेके कारण भी उसका निन्दास्तुति करनेवालोंमें भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहनेसे ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दास्तुतिमें सम है।भक्तके द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभकर्मोंके होनेमें वह केवल भगवान्को हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे? तो उसके चित्तमें कोई विकार पैदा नहीं होता।मौनी -- सिद्ध भक्तके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भगवत्स्वरूपका मनन होता रहता है? इसलिये उसको मौनी अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरणमें आनेवाली प्रत्येक वृत्तिमें उसको वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) सब कुछ भगवान् ही हैं -- यही दीखता है। इसलिये उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान्का मनन होता है।यहाँ मौनी पदका अर्थ वाणीका मौन रखनेवाला नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा माननेसे वाणीके द्वारा भक्तिका प्रचार करनेवाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेँगे। इसके सिवाय अगर वाणीका मौन रखनेमात्रसे भक्त होना सम्भव होता? तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता और ऐसे भक्त अंसख्य बन जाते किंतु संसारमें भक्तोंकी संख्या अधिक देखनेमें नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाववाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणीका मौन रख सकता है। परन्तु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्तके लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिये यहाँ मौनी पदका अर्थ भगवत्स्वरूपका मनन करनेवाला ही मानना युक्तिसंगत है।संतुष्टो येन केनचित् -- दूसरे लोगोंको भक्त संतुष्टो येन केनचित् अर्थात् प्रारब्धानुसार शरीरनिर्वाहके लिये जो कुछ मिल जाय? उसीमें संतुष्ट दीखता है परन्तु वास्तवमें भक्तकी संतुष्टिका कारण कोई सांसारिक पदार्थ? परिस्थिति आदि नहीं होती। एकमात्र भगवान्में ही प्रेम होनेके कारण वह नित्यनिरन्तर भगवान्में ही संतुष्ट रहता है। इस संतुष्टिके कारण वह संसारकी प्रत्येक अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिमें सम रहता है क्योंकि उसके अनुभवमें प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान्के मङ्लमय विधानसे ही आती है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहनेके कारण उसे संतुष्टो येन केनचित् कहा गया है।अनिकेतः -- जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है? वे ही अनिकेत हों -- ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी? जिनकी अपने रहनेके स्थानमें ममताआसक्ति नहीं है? वे सभी अनिकेत हैं। भक्तका रहनेके स्थानमें और शरीर (स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीर) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उसको अनिकेतः कहा गया है।स्थिरमतिः -- भक्तकी बुद्धिमें भगवत्तत्त्वकी सत्ता और स्वरूपके विषयमें कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्वके ज्ञानसे कभी किसी अवस्थामें विचलित नहीं होती। इसलिये उसको स्थिरमतिः कहा गया है। भगवत्तत्त्वको जाननेके लिये उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार? स्वाध्याय आदिकी जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविकरूपसे भगवत्तत्त्वमें तल्लीन रहता है।स्थिरबुद्धि होनेमें कामनाएँ ही बाधक होती हैं (गीता 2। 44)। अतः कामनाओंके त्यागसे ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है (गीता 2। 55)। अन्तःकरणमें सांसारिक (संयोगजन्य) सुखकी कामना रहनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसारको असत्य या मिथ्या जान लेनेपर भी मिटती नहीं जैसे -- सिनेमामें दीखनेवाले दृश्य(प्राणीपदार्थों) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकालकी बातोंको याद करते समय मानसिक दृष्टिके सामने आनेवाले दृश्यको मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जबतक भीतरमें सांसारिक सुखकी कामना है? तबतक संसारको मिथ्या माननेपर भी संसारकी आसक्ति नहीं मिटती। आसक्तिसे संसारकी स्वतन्त्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुखकी कामना मिटनेपर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्वमें बुद्धि स्थिर हो जाती है।भक्तिमान्मे प्रियो नरः -- भक्तिमान् पदमें भक्ति शब्दके साथ नित्ययोगके अर्थमें मतुप् प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यमें स्वाभाविकरूपसे भक्ति (भगवत्प्रेम) रहती है। मनुष्यसे भूल यही होती है कि वह भगवान्को छोड़कर संसारकी भक्ति करने लगता है। इसलिये उसे स्वाभाविक रहनेवाली भगवद्भक्तिका रस नहीं मिलता और उसके जीवनमें नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्तिरसमें तल्लीन रहता है। इसलिये उसको भक्तिमान् कहा गया है। ऐसा भक्तिमान् मनुष्य भगवान्को प्रिय होता है।नरः पद देनेका तात्पर्य है कि भगवान्को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्यजीवन सफल (सार्थक) कर लिया है? वही वास्तवमें नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य है। जो मनुष्यशरीरको पाकर सांसारिक भोग और संग्रहमें ही लगा हुआ है? वह नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य नहीं है।[इन दो श्लोकोंमें भक्तके सदासर्वदा समभावमें स्थित रहनेकी बात कही गयी है। शत्रुमित्र? मानअपमान? शीतउष्ण? सुखदुःख और निन्दास्तुति -- इन पाँचों द्वन्द्वोंमें समता होनेसे ही साधक पूर्णतः समभावमें स्थित कहा जा सकता है।]प्रकरणसम्बन्धी विशेष बातभगवान्ने पहले प्रकरणके अन्तर्गत तेरहवेंचौदहवें श्लोकोंमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करके अन्तमें यो मद्भक्तः स मे प्रियः कहा? दूसरे प्रकरणके अन्तर्गत पन्द्रहवें श्लोकके अन्तमें यः स च मे प्रियः कहा? तीसरे प्रकरणके अन्तर्गत सोलहवें श्लोकके अन्तमें यो मद्भक्तः स मे प्रियः कहा? चौथे प्रकरणके अन्तर्गत सत्रहवें श्लोकके अन्तमें भक्तिमान् यः स म प्रियः कहा और अन्तिम पाँचवें प्रकरणके अन्तर्गत अठारहवेंउन्नीसवें श्लोकोंके अन्तमें भक्तिमान् मे प्रियो नरः कहा। इस प्रकार भगवान्ने पाँच बार अलगअलग मे प्रियः पद देकर सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया है। इसलिये सात श्लोकोंमें बताये गये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको एक ही प्रकरणके अन्तर्गत नहीं समझना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि यह एक ही प्रकरण होता? तो एक लक्षणको बारबार न कहकर एक ही बार कहा जाता? और मे प्रियः पद भी एक ही बार कहे जाते।पाँचों प्रकरणोंके अन्तर्गत सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। जैसे? पहले प्रकरणमें निर्ममः पदसे रागका? अद्वेष्टा पदसे द्वेषका और समदुःखसुखः पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। दूसरे प्रकरणमें हर्षामर्षभयोद्वेगैः पदसे रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। तीसरे प्रकरणमें अनपेक्षः पदसे रागका? उदासीनः पदसे द्वेषका और गतव्यथः पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। चौथे प्रकरणमें न काङ्क्षति पदोंसे रागका? न द्वेष्टि पदोंसे द्वेषका और न हृष्यति तथा न शोचति पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। अन्तिम पाँचवें प्रकरणमें सङ्गविवर्जितः पदसे रागका? संतुष्टः पदसे एकमात्र भगवान्में ही सन्तुष्ट रहनेके कारण द्वेषका और शीतोष्णसुखदुःखेषु समः पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है।अगर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बतानेवाला (सात श्लोकोंका) एक ही प्रकरण होता? तो सिद्ध भक्तमें रागद्वेष? हर्षशोकादि विकारोंके अभावकी बात कहीं शब्दोंसे और कहीं भावसे बारबार कहनेकी जरूरत नहीं होती। इसी तरह चौदहवें और उन्नीसवें श्लोकमें सन्तुष्टः पदका तथा तेरहवें श्लोकमें समदुःखसुखः और अठारहवें श्लोकमें शीतोष्णसुखदुःखेषु समः पदोंका भी सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें दो बार प्रयोग हुआ है? जिससे (सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका एक ही प्रकरण माननेसे) पुनरुक्तिका दोष आता है। भगवान्के वचनोंमें पुनरुक्तिका दोष आना सम्भव ही नहीं। अतः सातों श्लोकोंके विषयको एक प्रकरण न मानकर अलगअलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है।इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतन्त्र (भिन्नभिन्न) होनेसे किसी एक प्रकरणके भी सब लक्षण जिसमें हों? वही भगवान्का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरणमें सिद्ध भक्तोंके अलगअलग लक्षण बतानेका कारण यह है कि साधनपद्धति? प्रारब्ध? वर्ण? आश्रम? देश? काल? परिस्थिति आदिके भेदसे सब भक्तोंकी प्रकृति(स्वभाव) में परस्पर थोड़ाबहुत भेद रहा करता है। हाँ? रागद्वेष? हर्षशोकादि विकारोंका अत्यन्ताभाव एवं समतामें स्थिति और समस्त प्राणियोंके हितमें रति सबकी समान ही होती है।साधकको अपनी रुचि? विश्वास? योग्यता? स्वभाव आदिके अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे? उसीको आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनानेमें लग जाना चाहिये। किसी एक प्रकरणके भी यदि पूरे लक्षण अपनेमें न आयें? तो भी साधकको निराश नहीं होना चाहिये। फिर सफलता अवश्यम्भावी है। सम्बन्ध -- पीछेके सात श्लोकोंमें भगवान्ने सिद्ध भक्तोंके कुल उनतालीस लक्षण बताये। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अर्जुनके प्रश्नका स्पष्ट रीतिसे उत्तर देते हैं।
।।12.19।। जो शत्रु और मित्र में सम है किसी व्यक्ति को शत्रु या मित्र के रूप में देखना मन का काम या खेल है। य़द्यपि ज्ञानी पुरुष किसी से शत्रुता नहीं रखता? परन्तु अन्य लोग उसके प्रति शत्रु या मित्र भाव रख सकते हैं। उन दोनों के साथ एक भक्त समान रूप से व्यवहार करता है।जो मान और अपमान में सम है स्वयं को सम्मानित या अपमानित अनुभव करना बुद्धि का धर्म है। बुद्धि अपने ही मापदण्ड निर्धारित करके लोगों के व्यवहार का मूल्यांकन करती रहती है। जिस किसी प्रकार के व्यवहार से मनुष्य सम्मानित अनुभव करता है? वही उसे अपमान प्रतीत होता है? जब उसके जीवन मूल्य परिवर्तित हो जाते हैं। जो पुरुष बुद्धि के स्तर पर रहता है? उसे ही मान और अपमान प्रभावित कर सकते हैं? आत्मस्वरूप में स्थित भक्त को नहीं।जो शीत और उष्ण में सम रहता है शीत और उष्ण का अनुभव शरीर द्वारा होता है और उसका प्रभाव भी शरीर पर ही पड़ता है। अम्ल? अग्नि या बर्फ का विचार करने मात्र से भावनाएं अथवा विचार उष्ण या शीत नहीं हो जाते वे केवल स्थूल शरीर को ही प्रभावित कर सकते हैं। अत संस्कृत का यह वाक्प्रचार जब वेदान्त में प्रयोग किया जाता है? तब उससे तात्पर्य उन समस्त अनुभवों से होता है? जो स्थूल शरीर के स्तर पर प्राप्त किये जाते हैं और जिनका उत्तरदायी शरीर ही होता है।उपर्युक्त तीन प्रकार के अनुभवों में? वस्तुत? जीवन में शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले समस्त अनुभवों का समावेश हो जाता है। इन सबमें परम भक्त पुरुष अक्षुब्ध रहता है? क्योंकि वह आसक्तिरहित होता है। अनात्म उपाधियों से आसक्ति होने के कारण ही हम अपने जीवन में होने वाली प्रत्येक अल्पसी घटना से भी अत्यधिक विचलित हो जाते हैं जबकि संगरहित पुरुष उन सबका शासक बन कर रहता है।तुल्यनिन्दास्तुति इस विशेषण से यह नहीं समझें कि भक्त अपने अपमान निन्दा या स्तुति के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है? और उसमें इतनी भी बुद्धिमत्ता नहीं होती कि वह उन्हें ठीक से समझ पाये। एक महान् भक्त जो अपने सर्वोपाधिविनिर्मुक्त सच्चिदानन्द स्वरूप की रसानुभूति में मग्न रहता है? उसे संसारी पुरुषों द्वारा की गई निन्दा और स्तुति अत्यन्त तुच्छ और अर्थहीन प्रतीत होती है। वह भलीभाँति जानता है कि जिस पुरुष की समाज में आज स्तुति और प्रशंसा की जा रही है? उसी पुरुष को यही समाज कल अपमानित भी करेगा और आज का निन्दित पुरुष कल का स्तुत्य नेता भी बनेगा निन्दा और स्तुति दोनों ही संसारी लोगों के मन में क्षणिक तरंग मात्र होती है मौनी ज्ञानी भक्त मौनी होता है। इसका अर्थ है कि वह अतिवादी नहीं होता। मौन का वास्तविक अर्थ है मननशीलता। अत केवल वाचिक मौन वास्तविक मौन नहीं कहा जा सकता। केवल वाणी के मौन से पुरुष का मन तो वाचाल बना रहता है? और उसका परिणाम गम्भीर रूप भी धारण कर सकता है। मौन होकर देंखें? तो ज्ञात होगा कि मौन कितना शान्त हो सकता हैकिसी भी अल्प वस्तु से वह सन्तुष्ट हो जाता है आन्तरिक विकास के निष्ठावान् साधकों का यह सिद्धांत या आदर्श होता है कि उन्हें जो कोई वस्तु संयोग से? बिना मांगे और अनपेक्षित रूप से प्राप्त हो जाती है? उसी से वे सन्तुष्ट रहते हैं। जीवन में अनेक इच्छाएं करके उन्हें पूर्ण करने के लिए दिनरात प्रयत्न करते रहना? एक कभी न समाप्त होने वाला खेल है? क्योंकि निरन्तर तीव्र गति से इच्छाओं को उत्पन्न करते रहने की कला में मनुष्य का मन निपुण होता है। समस्त लगनशील साधकों के लिए सन्तोष की नीति अपनाना ही बुद्धिमत्ता की लाभदायक बात है अन्यथा जीवन के दिव्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके पास कभी समय नहीं रहेगा। निष्ठा एवं सावधानीपूर्वक की गई साधना का फल व्यक्तित्व का सुगठन और आत्मानुभूति है। महाभारत में कहा गया है कि जिस किसी भी वस्त्र से आवृत? जिस किसी के भी द्वारा भोजन कराये हुए तथा जहाँ कहीं भी शयन करने वाले पुरुष को देवतागण ब्राह्मण समझते हैं।अनिकेत इस शब्द का अर्थ है वह पुरुष जो गृहरहित है। सामान्यत गृह उसे कहते हैं? जो उसमें निवास करने वाले लोगों की बाह्य जलवायु की प्रचण्डताओं से रक्षा करता है। आत्मज्ञान का साधक पुरुष सभी उपाधियों से तादात्म्य को तोड़कर उनके साथ के ममत्वरूपी बन्धनों से विमुक्त होने का प्रयत्न करता है।किसी एक छत के नीचे रहने मात्र से वह गृह नहीं कहलाता। रेलवे स्टेशन पर अथवा विमान स्थल के विश्रामगृह में रात भर निवास करने से वह अपना घर नहीं बन जाता। परन्तु जिस छत के नीचे के निवास स्थान में ममत्व का अभिमान तथा वहाँ रहने से सुख और आराम का अनुभव होता है वह स्थान अपना घर बन जाता है। भक्त का आश्रय और निवास स्थान तो सर्वव्यापी परमात्मा ही होने के कारण इन लौकिक गृहों में वह ममत्व भाव से रहित होता है। उसके मन की स्थिति या भाव को यहाँ सरल किन्तु अत्यन्त उपयुक्त शब्द अनिकेत के द्वारा दर्शाया गया है।भगवत्स्वरूप के विषय में जिसकी मति स्थिर हो गयी है? अर्थात् उसे कोई संशय नहीं रह गया है? ऐसा भक्तिमान पुरुष (नर) मुझे प्रिय है। नर शब्द से यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो पुरुष कमसेकम इस भक्तिमार्ग पर चलने का प्रयत्न करता है? वही गीताचार्य की दृष्टि से विकसित मनुष्य कहलाने योग्य है।इन दो श्लोकों को मिलाकर यह पांचवा भाग है जिसमें भक्त के दस लक्षण बताये गए हैं। इस प्रकार अब तक छत्तीस गुणों का वर्णन करके भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ज्ञानी भक्त का सम्पूर्ण शब्दचित्र चित्रित कर दिया है। इस चित्र में हमें भक्त का व्यवहार? उसका मानसिक जीवन और जगत् के प्राणियों एवं घटनाओं के प्रति उसके बौद्धिक मूल्यांकन आदि का दर्शन होता है।एक उत्तम भक्त के नैतिक एवं सदाचार के गुणों का वर्णन करने वाले इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
12.19 The person to whom denunciation and praise are the same, who is silent, content with anything, homeless, steady-minded, and full of devotion is dear to Me.
12.19 He to whom censure and praise are eal, who is silent, content with anything, homeless, of a steady mind, and full of devotion that man is dear to Me.
12.19. To whom blame and praise are eal; who is silent (does not over-speak) and is well content with one thing or other [that comes to him]; who has no fixed thought [in the mundane life]; who is [yet] steady-minded [in spiritual practice] and is full of devotion-that man is dear to Me.
12.19 तुल्यनिन्दास्तुतिः to whom censure and praise are eal? मौनी -- silent? सन्तुष्टः contented? येनकेनचित् with anything? अनिकेतः homeless? स्थिरमतिः steadyminded? भक्तिमान् full of devotion? मे to Me? प्रियः dear? नरः (that) man.Commentary He is neither elated by praise nor pained by censure. He keeps a balanced state of mind. He has controlled the organ of speech and so he is silent. His mind also is serene and silent as he has controlled the thoughts also. He is ite content with the bare means of bodily sustenance. It is said in the Mahabharata (Santi Parva? Moksha Dharma) Who is dressed in anything? who eats any kind of food? who lies down anywhere? him the gods call a Brahmana or a liberated sage or Jivanmukta.He does not dwell in one place. He has no fixed abode. He is homeless. He regards the world as his dwelling place. His mind is ever fixed on Brahman. (Cf.VII.17IX.29XII.17)
12.19 Narah, the person; tulya-ninda-stutih, to whom denunciation and praise are the same; mauni, who is silent, restrained in speech; santustah, content; yena-kenacit, with anything-for the mere maintenance of the body, as has been said in, The gods know him to be a Brahmana who is clad by anyone whosoever (Mbh. Sa. 245.12); further, aniketah, he who is homeless, who has no fixed place of residence-without a home [ The whole verse is He,however is certainly the knower of Liberation who has attachment neither for a hut, nor for water, nor cloth, nor the three places of pilgrimage, nor a home, nor a seat, nor food.], as said in another Smrti; sthira-matih, steady-minded, whose thought is steady with regard to the Reality which is the supreme Goal; and bhaktiman, who is full of devotion-(he) is dear to Me. [There is a repeated mention of Bhakti in this Chapter because it is means to the Knowledge which leads to the supreme Goal.] The group of alities of the monks who meditate on the Immutable, who have renounced all desires, who are steadfast in the knowledge of the supreme Goal-which (alities) are under discussion beginning from He who is not hateful towards any creature (13), is being concluded:
12.19 See Comment under 12.20
12.18 - 12.19 The absence of hate etc., towards foes, friends etc., has already been taught in the stanza beginning with, He who never hates any being (11.13). What is now taught is that eanimity to be practised even when such persons mentioned above are present before one who is superior to those having a general eanimous temperament referred to earlier. Who has no home, namely, who is not attached to home, etc., as he possesses firmness of mind with regard to the self. Because of this, he is same even in honour and dishonour. He who is devoted to Me and who is like this - he is dear to Me. Showing the superiority of Bhakti-Nistha over Atma-nistha, Sri Krsna now concludes in accordance with what is stated at the beginning of this chapter in Verse 2.
12 13 One who is impartial to friend and foe alike and is free from the influence of dualities such as honour and dishonour, pleasure and pain, happiness and misery, who is unattached to anything other than bhakti or exclusive loving devotion to Lord Krishna, who is satisfied with what comes unsolicited of its own accord, who is firm in equanimity, of controlled speech and confidence in the teachings of the Vedic scriptures is very dear to Lord Krishna
In the previous verse Lord Krishna speaks that His devotee who is subhasubha parityagi meaning fully renouncing the results of pious and impious actions and their derivatives of merits or demerits. The special attribute being parityagi or full renunciation. In this verse there may appear to be repetition in speaking of freedom from duality such as pleasure and pain, joy and grief, praise and censure etc. but this is to emphasise the equanimity that comes from renunciation. When something is repeated its importance is being asserted to emphasise its value and to remind His devotees that renunciation of the desire for rewards is essential. Now begins the summation. Full renunciation is renouncing the performance of all actions that do not support bhakti or exclusive loving devotion to the Supreme Lord Krishna. This can also mean renouncing all actions that do not please Lord Krishna. For example Lord Krishna is not pleased by pride but He is pleased by humility. He is not pleased by one who seeks recompense for their devotion to Him but He is pleased by one seeks no reward for their devotion to Him. One who does not desire anything except bhakti is known as truly renouncing all actions and the results of all actions as both pious and impious activities result in karma or good and bad reactions from past actions.
16 The absence of hate towards any being in general has already iterated by Lord Krishna in verse 13 of this chapter with the word advesta meaning free of hatred but that is in a general sense towards every being. The equanimity mentioned here is of a more profound nature that of keeping ones equanimity when seeing one in front of them face to face. The word aniketah means unattached to home or fixed residence due to being firmly attached to bhakti or exclusive loving devotion to the Supreme Lord. Equally balanced in praise and censure, happiness and misery, pleasure and pain etc. Such a devotee of the Supreme Lord Krishna is very dear to Him.
16 The absence of hate towards any being in general has already iterated by Lord Krishna in verse 13 of this chapter with the word advesta meaning free of hatred but that is in a general sense towards every being. The equanimity mentioned here is of a more profound nature that of keeping ones equanimity when seeing one in front of them face to face. The word aniketah means unattached to home or fixed residence due to being firmly attached to bhakti or exclusive loving devotion to the Supreme Lord. Equally balanced in praise and censure, happiness and misery, pleasure and pain etc. Such a devotee of the Supreme Lord Krishna is very dear to Him.
Tulyanindaastutirmaunee santushto yena kenachit; Aniketah sthiramatir bhaktimaan me priyo narah.
samaḥ—alike; śhatrau—to a foe; cha—and; mitre—to a friend; cha tathā—as well as; māna-apamānayoḥ—in honor and dishonor; śhīta-uṣhṇa—in cold and heat; sukha-duḥkheṣhu—in joy and sorrow; samaḥ—equipoised; saṅga-vivarjitaḥ—free from all unfavorable association; tulya—alike; nindā-stutiḥ—reproach and praise; maunī—silent contemplation; santuṣhṭaḥ—contented; yena kenachit—with anything; aniketaḥ—without attachment to the place of residence; sthira—firmly fixed; matiḥ—intellect; bhakti-mān—full of devotion; me—to Me; priyaḥ—very dear; naraḥ—a person