तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।
।।12.7।।हे पार्थ मेरेमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसारसमुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ।
।।12.7।। हे पार्थ जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।।
।।12.7।। व्याख्या -- तेषामहं समुद्धर्ता ৷৷. मय्यावेशितचेतसाम् -- जिन साधकोंका लक्ष्य? उद्देश्य? ध्येय,भगवान् ही बन गये हैं और जिन्होंने भगवान्में ही अनन्य प्रेमपूर्वक अपने चित्तको लगा दिया है तथा जो स्वयं भी भगवान्में ही लग गये हैं? उन्हींके लिये यहाँ मय्यावेशितचेतसाम् पद आया है।जैसे समुद्रमें जलहीजल होता है? ऐसे ही संसारमें मौतहीमौत है। संसारमें उत्पन्न होनेवाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है? जो कभी क्षणभरके लिये भी मौतके थपेड़ोंसे बचती हो अर्थात् उत्पन्न होनेवाली प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण मौतके तरफ ही जा रही है। इसलिये संसारको मृत्युसंसारसागर कहा गया है।मनुष्यमें अनुकूल और प्रतिकूल -- दोनों वृत्तियाँ रहती हैं। संसारकी घटना? परिस्थिति तथा प्राणीपदार्थोंमें अनुकूलप्रतिकूल वृत्तियाँ रागद्वेष उत्पन्न करके मनुष्यको संसारमें बाँध देती हैं (गीता 7। 27)। यहाँतक देखा जाता है कि साधक भी सम्प्रदायविशेष और संतविशेषमें अनुकूलप्रतिकूल भावना करके रागद्वेषके शिकार बन जाते हैं? जिससे वे संसारसमुद्रसे जल्दी पार नहीं हो पाते। कारण कि तत्त्वको चाहनेवाले साधकके लिये साम्प्रदायिकताका पक्षपात बहुत बाधक है। सम्प्रदायका मोहपूर्वक आग्रह मनुष्यको बाँधता है। इसलिये गीतामें भगवान्ने जगहजगह इन द्वन्द्वों(राग और द्वेष) से छूटनेके लिये विशेष जोर दिया है (टिप्पणी प0 635.1)।यदि साधक भक्त अपनी सारी अनुकूलताएँ भगवान्में कर ले अर्थात् एकमात्र भगवान्से ही अनन्य प्रेमका सम्बन्ध जोड़ ले और सारी प्रतिकूलताएँ संसारमें कर ले अर्थात् संसारकी सेवा करके अनुकूलताकी इच्छासे विमुख हो जाय? तो वह इस संसारबन्धनसे बहुत जल्दी मुक्त हो सकता है। संसारमें अनुकूल और प्रतिकूल वृत्तियोंका होना ही संसारमें बँधना है।भगवान्का यह सामान्य नियम है कि जो जिस भावसे उनकी शरण लेता है? उसी भावसे भगवान् भी उसको आश्रय देते हैं -- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11)। अतः वे कहते हैं कि यद्यपि मैं सबमें समभावसे स्थित हूँ -- समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29)? तथापि जिनको एकमात्र प्रिय मैं हूँ? जो मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करते हैं और मेरे परायण होकर नित्यनिरन्तर मेरे ही ध्यानजपचिन्तन आदिमें लगे रहते हैं? ऐसे भक्तोंका मैं स्वयं मृत्युसंसारसागरसे बहुत जल्दी और सम्यक् प्रकारसे उद्धार कर देता हूँ (टिप्पणी प0 635.2)। सम्बन्ध -- भगवान्ने दूसरे श्लोकमें सगुणउपासकोंको श्रेष्ठ योगी बताया तथा छठे और सातवें श्लोकमें यह बात कही कि ऐसे भक्तोंका मैं शीघ्र उद्धार करता हूँ। इसलिये अब भगवान् अर्जुनको ऐसा श्रेष्ठ योगी बननेके लिये पहले आठवें श्लोकमें समर्पणयोगरूप साधनका वर्णन करके फिर नवें? दसवें और ग्यारहवें श्लोकमें क्रमशः अभ्यासयोग? भगवदर्थ कर्म और सर्वकर्मफलत्यागरूप साधनोंका वर्णन करते हैं।
।।12.7।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासकों के लिए श्रद्धापूर्वक अनुष्ठेय गुणों अथवा नियमों का वर्णन करते हुए यह आश्वासन देते हैं कि निष्ठावान् साधकों का? इस संसारसागर से? उद्धार स्वयं भगवान् ही करेंगे। इन नियमों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर यह ज्ञात होगा कि किस प्रकार साधक के मन का शनैशनै विकास होकर वह दिव्य और श्रेष्ठ पद को प्राप्त होता है? जिसके पश्चात् उसे किसी प्रकार की बाह्य सहायता की अपेक्षा नहीं रह जाती है। प्रारम्भ में? साधक को साधनाभ्यास करने के लिए आवश्यक आत्मविश्वास को पाने के लिए अपने गुरु से आश्वासन तथा प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है।जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करते हैं किसी संस्था? या आदर्श अथवा राजसत्ता के लिए समस्त कर्मों को अर्पण करने या संन्यास करने का अर्थ है? अपनी व्यक्तिगत सीमाओं को नष्ट करना तथा अपने आदर्श से तादात्म्य रखना। इस प्रकार? एक अन्य नागरिक? विदेशों में स्वराष्ट्र के राजदूत के रूप में एक शक्तिशाली व्यक्तित्व रखता है क्योंकि वह अपने भाषण? कर्म और विचारों के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार? जब कोई भक्त अपने आप को पूर्णत ईश्वर के चरणों में अर्पण कर देता है? और फिर ईश्वर के दूत अथवा ईश्वरी संकल्प के प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है? तब वह दैवी शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। उसे अपने प्रत्येक कार्य में ही परमात्मा की उपस्थिति और अनुग्रह का भान बना रहता है।जो मुझे ही परम लक्ष्य समझता है एक नर्तकी को कभी साथ के मृदंग के ताल और लय का विस्मरण नहीं होता। एक संगीतज्ञ को तानपूरे की श्रुति का भान सदा बना रहता है। इसी प्रकार? एक भक्त को उपदेश दिया जाता है कि वह ईश्वर को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य माने और जीवन में सदैव उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न करे। धर्म को अतिरिक्तसमय का एक मनोरंजन अथवा दैनिक कार्यों से क्षणभर की मुक्ति का साधन नहीं समझना चाहिए। सारांश में? हमें यह उपदेश दिया जाता है कि सांस्कृतिक पूर्णत्व के उच्चतर शिखरों पर आरोहण करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन के सम्पर्कों? व्यवहारों एवं अनुभवों का उपयोग उस परमात्मा की उपल्ाब्धि के लिए करे जिसकी उपासना हम उसके सगुण साकार रूप में करते हैं।अनन्ययोग के द्वारा वे सभी प्रयत्न योग कहलाते हैं? जिनके द्वारा हम अपने मन का तादात्म्य अपने पूर्णत्व के लक्ष्य के साथ स्थापित कर सकते हैं। अपने मन को उसके वर्तमान विक्षेपों तथा अपव्ययी प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाकर विशाल आनन्द और पूर्ण ज्ञान के श्रेष्ठतर लक्ष्य की ओर प्रवृत्त करना ही योग है। यह शक्ति हम सबमें निहित है और उसका सदैव हम उपयोग भी कर रहे हैं। परन्तु योग का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि कौनसे लक्ष्य की ओर हम अग्रसर हो रहे हैं। दुर्भाग्य से? प्राय हमारा लक्ष्य दिव्य नहीं होता है केवल वैषयिकआनन्द के लिए ही प्रयत्न करना भोग है? योग नहीं।सामान्यत? हमारा लक्ष्य निरन्तर परिवर्तित होता रहता है? और इस कारण सतत संघर्षरत होने पर भी हम किसी भी निश्चित स्थान को नहीं पहुंचते हैं। यदि छुट्टियां बिताने के लिए किसी व्यक्ति के मन में दो स्थान हैं? परन्तु वह अपना गन्तव्य ही निश्चित नहीं कर पाता है? तो वह कहीं भी नहीं पहुंच सकता । वह व्यर्थ ही अपनी शक्ति और समय का अपव्यय करेगा। यहाँ प्रयुक्त अनन्ययोग शब्द का तात्पर्य यह है कि जिसमें साधक का लक्ष्य निश्चित और स्थिर है तथा उसके मन में लक्ष्य के प्रति अन्य भाव नहीं है अर्थात् जिसमें साधक और साध्य का एकत्व है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे मन का विघटन लक्ष्य के प्रति अन्य भाव के कारण हो सकता है? और ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में मन के विचरण के कारण भी हो सकता है।इस प्रकार जो भक्तजन (क) सब कर्मों का संन्यास मुझमें करते हैं? (ख) जो मुझे ही परम लक्ष्य मानते हैं? और (ग) जो अनन्ययोग से उपासना ध्यान करते हैं? वे मेरे उत्तम भक्त हैं। यह पहले भी कहा जा चुका है कि उपासना का वास्तविक अर्थ है लक्ष्य के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न करके तत्स्वरूप ही बन जाना। यही साधक का लक्ष्य है और इसी में उसकी कृत्कृत्यता है।भगवान् श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को ध्यानाभ्यास के समय इस बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है कि किस प्रकार वे अपने दुख विक्षेप और अपूर्णताओं के परे जा सकते हैं क्योंकि? मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा। यह स्वयं भगवान् का दिया हुआ वचन है। यह संभव है कि वर्षों की दीर्घकालीन साधना के पश्चात् भी यदि साधक आत्मानुभव के कहीं समीप भी नहीं पहुंचे? तो वे अधीर हो जायेंगे। अत भगवान् का आश्वासन आवश्यक है। भगवान् यहाँ यह भी वचन देते हैं कि शीघ्र ही मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा।जिनका मन मुझमें स्थित है सामान्यत मन अपनी ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण करता है। जब निरन्तर साधना के फलस्वरूप विजातीय प्रवृत्तियों का सर्वथा त्यागकर सजातीय वृत्ति प्रवाह को बनाये रखने की क्षमता साधक में आ जाती है? तब उसका मन अनन्त ब्रह्मरूप ही बन जाता है। यह मन ही है? जो हमारे जीवभाव के परिच्छेदों का आभास निर्माण करता है? और यही मन अपने अनन्तत्व का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव भी करता है। बन्धन और मोक्ष दोनों मन के ही हैं। आत्मा तो नित्यमुक्त है? कदापि बद्ध नहीं।